तप धर्म की दिव्य देशना
तप और ध्यान जीवन के आवश्यक अंग होते हैं तपे बिना आत्मा कुंदन नहीं बन सकती है । उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आज तप धर्म के सन्दर्भ में आयोजित प्रवचन में व्यक्त किये।
आचार्य श्री ने कहा की हीरे का कण भोजन के साथ पेट में चला जाय तो मृत्यु का कारन बन जाता है जबकि ओषधि के रूप में जाय तो गुणकारी बन जाता है । तप सात्विक भाव से करते हैं तो परिणाम अच्छे होते हैं । दो प्रकार की साधना बताई गई है मृदु और कठोर । जीवन में दोनों प्रकार की साधना कर लेना चाहिए परंतु पूर्ण ध्यान और मनोयोगके साथ करना चाहिए । जब नदी में पानी का वेग होता है अच्छे अच्छे तैराक भी धोखा खा जाते हैं उसी प्रकार तप की अग्नि जब तेज होती है तो अच्छे अच्छे साधक भी विचलित हो जाते हैं । तपस्या करने से पहले आकुलता को छोड़ना पड़ता है तब निराकुलता मिलती है । कितना भी ध्यान लगाओ जितनी शक्ति है साधना उतनी ही हो पायेगी । छोटी सी साधना में ही लोग घबराते हैं । तप से ही कर्मों की निर्जरा होती है और निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है और बिना आकुलता को त्याग किये तप साधना संभव हीनहीं है । जैंसे खेल में लंबी कूद में काफी पीछे से दौड़कर आना पड़ता है तभी ऊँची छलांग लगाई जा सकती है ऐंसे ही साधना में भी काफी अभ्यास की जरूरत पड़ती है।
उन्होंने कहा की जो व्यक्ति तप करते समय विपरीत परिस्थितियों में दहशत में आ जाता है बो कभी सफलता प्राप्त नहीं कर पाता । जिनके पास तप त्याग का अनुभव है बो ही आपको इस बिषय में सही रास्ता बता सकते हैं अन्यथा आप भटकाव की दिशा में जा सकते हैं । उन्होंने कहा की जिस प्रकार हवाई जहाज रनबे पर दौड़ता है तो उड़ते ही उसके पहिये अंदर मुड़ जाते हैं फिर उतारते समय फिर पहिये खुल जाते हैं उसी प्रकार जब आपकी साधना का जहाज आप शुरू करते हो , तप में जब प्रवेश करते हो तब जो बाहरी पदार्थ रूपी पहिये हैं उन्हें भीतर करना पड़ता है तभी आप साधना की उडाँन भर पाओगे। आपका अनुभव ,आपका ज्ञान पैराशूट का काम करता है जो आपको अधोगति में जाने से रोक सकता है । साधना से ही आत्मा की गति उर्धगमन् की और जा सकती है । कर्मों का बंध तभी टूट सकता है जब तप की तीव्रता होती है । भीतर शुक्ल ध्यान की अग्नि जलने पर ही बाहर के पुदगल छूटते हैं और कर्मों का क्षय हो जाता है तो केवलज्ञान जागृत होने लगता है , और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
गुरुवर ने पांच पांडवों का उदहारण देते हुए कहा की जब उन्होंने साधना प्रारम्भ की तो समता के भाव से तप किया और युधिष्ठर, भीम, अर्जुन ने निर्वाण को प्राप्त किया और नकुल ,सहदेव बड़े भाइयों के मोह की भावना के आ जाने के कारन मोक्ष को जाने से चूक गए । इसलिए साधना के मार्ग में बढ़ने के पूर्व सभी मोह के भावों का त्याग आवश्यक होता है । तप से आयु कर्मों का क्षय नहीं होता है परंतु कठोर तप से घातिया कर्म का क्षय अवश्य होता है और घातिया कर्मों के क्षय से ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है । किसी वीतरागी को हजार बर्ष के तप में मुक्ति मिली तो किसी को अन्तरमुहरत में ही मुक्ति प्राप्त हो गई । सबका अपने अपने कर्मों का कर्म सिद्धान्त होता है उसी अनुसार मुक्ति प्राप्त होती है । साधना के क्षेत्र में निरंतरता और अभ्यास को बनाके रखने की महती आवश्यकता होती है साथ ही साधना के क्षेत्र में जो योगी जन सतत् लगे हैं उनका मार्गदर्शन प्राप्त करके अपना आत्मकल्याण किया जा सकता है।
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