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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. कविता-श्रवण ने उसे बहुत प्रभावित किया। पुनः संकेत मिलता है सेठ को- अब शत-प्रतिशत निश्चित है पात्र का अपनी ओर आना। जैसे-जैसे प्रांगण पास आता गया वैसे-वैसे पात्र की गति में मन्दता आई और पात्र को अनुभूत हुआ कि उसके पदों को आगे बढ़ने से रोक कर अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है कोई विशेष पुण्य-परिपाक! पात्र की गति को देख कर और सचेत हो, श्रद्धा-समवेत हो अति मन्द भी नहीं अति अमन्द भी नहीं, मध्यम मधुर स्वरो में अभ्यागत का स्वागत प्रारम्भ हुआ : ‘भो स्वामिन्! नमोस्तु! नमोस्तु! नमोस्तु! अत्र! अत्र! अत्र! तिष्ठ! तिष्ठ! तिष्ठ!' यूँ सम्बोधन-स्वागत के स्वर दो-तीन बार दोहराये गये साथ-ही-साथ, धीमे-धीमे हिलने वाले The listening of poetry Has impressed him deeply. Again, some hint is dropped with the eminent trader – The arrival of the holy hermit towards us Is now cent-per-cent certain. The more the courtyard Came nearer, The more the gait of the holy hermit Caught slowness accordingly And The holy guest (Munirāja) felt that By arresting his steps from going ahead, Some unique ripeness of the virtuous deeds Is attracting them towards itself ! On seeing the gait of the worthy guest – Being more cautious, Being filled with veneration, With the medium melodious voice - Not too dim Not too loud as well, The reception of the holy visitor began : "O Swāmin ! Salutation to thee! Salutation to thee! Salutation to thee ! Hither ! hither ! hither! Please stay! stay ! stay !’ Thus the notes of addressing and greeting Were repeated twice or thrice Along, with it, Moving to and fro very slowly –
  2. गड़-गड़ाहट ध्वनि करते सजल, लोचन-युगल। सावण की चौंसठ धार पात्र के पाद-प्रान्त में प्रणिपात करते हैं… फिर...तो... धरती ने अनायास, सहज रूप से बादल की कालिमा को धो डाली, अन्यथा वर्षा के बाद बादल-दल वह विमल होता क्यों ?...'' कुम्भ के मुख से कविता सुनी कम शब्दों में, सार के रूप में, दाता की गौरव-गाथा आचार-संहिता ही सामने आई, आदर्श में अपना मुख दिखा विमुख हुआ जो आदर्श जीवन से, जिस मुख पर बेदाग होने का दम्भ-भर दमक रहा था। सेठ की आँखें खुल गईं, वह अपने को संयत बनाता, सब कुछ भ्रान्तियाँ धुल गईं। Produce a thundering sound, Both the eyes brimming with tears. The sixty four-fold currents of the month of Sāvana Prostrate upon the feet-spot Of the worthy...Sacred guest (Munirāja) Thereafter...indeed... The earth Easily, in a natural way Washes away The blackness of the cloud, Otherwise After the rains Why that band of clouds, Would have become spotless ?” The verse was heard from the mouth of the pitcher In brief and substantial form, The glorious story of the benefactor The moral code of conduct was indeed, presented, The one, who has forsaken his ideal life, After showing his face mirrored forth into the ideals, - The face, on which Only the false pride of being unstained Was shining off. The eyes of the noble trader Were woke up from sleep, He exercised self-control upon himself, All the misapprehensions were cleansed away.
  3. लेखनी लिखती है कि- निश्चय से गुरु शिष्य को अपनाते कहाँ ? शिष्य भी है पर उसे अपना बनाते कहाँ ? हाँ, ऐसे गुरु के समागम से अपनत्व का शोध होता है जन्म-मरण से परे अमरत्व का बोध होता है फिर वह जानता है अपना अस्तित्व अपने ही गुणों का स्वामित्व मिट जाता है पर से ममत्व शेष रहता एक निजात्म से ही एकत्व देख उसकी अंतर्साधना गुरु को होती प्रसन्नता ज्यों-ज्यों आत्मदर्शन की प्यास बढ़ती त्यों-त्यों वह अंतर की गहराई में उतरता खो जाता वह स्वयं में इतना कि अंतर का प्रभु झलकता अनुभूत होता है तब उसे अंतर्ध्वभाव में दुख है कहाँ ? बाहर में सुख था कहाँ ? यहाँ तो आनंद का बगीचा है। सुख का बिछाया गलीचा है। अनंत उपकार है गुरु का जो यहाँ तक पहुँच पाया, गुरु के दिशा बोध से स्वतत्त्व का दर्शन पाया। कहता है वह शिष्य- गुरु का ही अनंत उपकार है यह गुरु का ही आभार है यह ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी का जिसे मिला आशीष वही बन गया अपना मीत। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  4. मुख-पात्र खोला है कृत संकल्पिता है धरती कि दाता की प्रतीक्षा नहीं करना है दाता की विशेष समीक्षा नहीं करना है। अपनी सीमा, अपना आँगन भूल कर भी नहीं लाँघना है कारण, पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्माण कराती है पाप की पालडी फिर भारी पड़ती है वह, और स्वतन्त्र-स्वाभिमान पात्र में परतन्त्रता आ ही जाती है, कर्त्तव्य की धरती धीमी-धीमी नीचे खिसकती है, तब क्या होगा? दाता और पात्र दोनों लटकते अधर में।... तभी...तो… काले-काले मेघ सघन ये अर्जित पाप को पुण्य में ढालने जो सत्-पात्र की गवेषणा में निरत हैं, पात्र के दर्शन पा कर भाव-विभोर गद्गद हो The vessel of mouth has been opened The earth is firmly determined That The benefactor is not to be waited for Special review of the benefactor is not to be done Our own limit Our own courtyard Has not to be transgressed even by mistake Because, The pitiableness of a sacred guest-Munirāja Wakes the appearance of pride In the prideless benefactor, The pan of sins then, Gets heavier, And In the free and self-respecting sacred guest The sense of dependence creeps in, indeed, The ground of dutifulness, slowly and gradually, Slides downward, What shall happen then ? The benefactor as well as the sacred guest Muniräja Both of them get overhanged in the void. That...is why… These dark and blackish Dense clouds, which Having obtained the visit of sacred guest-Munirāja Are absorbed into the search of a holy spot – To mould their acquired sin Into the form of meritorious action, On feeling overjoyed with an emotional heart in ecstasy,–
  5. भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ यूँ दाताओं से होती गईं, ‘‘हाँ! हाँ !! यही स्थिति हमारी भी हो सकती है” यूँ कुम्भ ने कहा सेठ को- और सेठ को सचेत किया- ‘‘पात्र से प्रार्थना ही पर अतिरेक नहीं, इस समय सब कुछ भूल सकते हैं पर विवेक नहीं। तन, मन और वचन से दासता की अभिव्यक्ति हो, पर उदासता की नहीं। अधरों पर मन्द मुस्कान हो, पर मजाक नहीं। उत्साह हो, उमंग हो पर उतावली नहीं। अंग-अंग से विनय का मकरन्द झरे, पर, दीनता की गन्ध नहीं। और इसी सन्दर्भ में सुनी थी सन्तों से एक कविता, सो..सुनो, प्रस्तुत है, आदृत है बुध-स्तुत है : धरती को प्यास लगी है नीर की आस जगी है The various types of misconceptions Are thus committed by the benefactors, “ Yes! yes !! This very position may prevail upon us too" Speaks thus the pitcher (kumbha) to the noble trader, And Serves a note of caution to the noble trader- “ A request may be made to holy guest-Munirāja But no excess should be done, We can, at this time, Forget everything else But discretion. A sense of due service should be expressed Through the body, the mind and the word But not that of indifference. There should play a tender smile across the lips, But not buffoonery. There should be enthusiasm and gust But not impatience. The pollen of humility should fall off From each and every limb, But there should be no smell of pitiableness. And, In this very context A poem was heard from the saints, Therefore...hark, it is presented, It is honoured, and is admired by the wise : The land is thirsty The hope for water has awakened –
  6. कई बार पात्र मिले पर, भावना जगी नहीं आज भावना बलवती बन पड़ी है, इस अवसर पर भी यदि दर्शन हो, पर स्पर्शन नहीं, स्पर्शन हो, पर हर्षन नहीं, भावना भूखी रहेगी...। तो फिर कब... भूख की शान्ति वह ? आज का आहार हमारे यहाँ हो, बस! इस प्रसंग में यदि दोष लगेगा तो...मुझे लगेगा, आपको नहीं स्वामिन्! हे कृपा-सागर, कृपा करो देर नहीं, अब दया करो।” दाता की इस भावुकता पर मन्द-मुस्कान-भरी मुद्रा को मौनी मुनि मोड़ देता है और चार हाथ निहारता-निहारता पथ पर आगे बढ़ जाता है। तब तक दाता के मुख से पुनः निराशा-घुली पंक्ति निकली : ‘‘दाँत मिले तो चने नहीं, चने मिले तो दाँत नहीं, और दोनों मिले तो… पचाने की आँत नहीं...!" The worthy ascetics (Munirājas) came across many a times But, the feelings were not aroused the sentiments have acquired vigour to-day, Even on this occasion, if The visiting should take place but not the holy touch, The touching should, occur but not the rejoicing, The sentiments shall remain famished...! At what stage, then... That fulfilment of hunger ?- The holy meals to-day should occur at our place, yes ! If any fault is found in this context It shall then...be imputed to me, And not to you, O Lord ! O thou ocean of mercy, take pity upon me, Now, show your compassion without delay.” - On this sentimentalism of the benefactor, The silent Munirāja (saint) turns His face bearing a soft smile And Observing gradually the ground by four cubits, Goes ahead on his path. Meanwhile, a line full of hopelessness Again breaks out from the lips of the benefactor: “Of what good use are the teeth without the grams, Of what good use are the grams without the teeth, And of what good use are the both of Them... indeed If they are without a digestive intestine...!"
  7. लेखनी लिखती है कि मिटने वाले असत् स्वरूप का बोध कराती है दुनिया मिटने पर रोती है और रूलाती है दुनिया, गुरु सत् स्वरूप का बोधकर आत्म शक्ति का शोधकर स्वयं जगते हैं, शिष्य की खोलते हैं अँखियाँ। सोते से जागना कौन कहाँ चाहते ? इसीलिए पहले जागृति का महत्त्व समझाते पर से विरत, स्व में रत कैसे होना ? जिसे भ्रम से अपना माना उसे कैसे खोना ? गुरु सिखाते कुछ नहीं स्वयं करके दिखाते हैं। करते कुछ नहीं वास्तव में करना ही मिटाते हैं, फिर रह जाता सब कुछ सहज शिष्य स्वयं में ही प्रभु को पाते हैं इस प्रभु-मिलन में शिष्य गुरु का ही उपकार मानते हैं। वरना कौन किसकी करता परवाह चाहे भरे आह या हो जाये तबाह एक गुरु ही आत्मिक पीड़ा समझते हैं शव समान शिष्य को शिव बना देते हैं और देखो ना गुरु की महानता इतना सब करने पर भी कहते हैं गुरु मैं नहीं तुम्हारा किञ्चित् भी कर्ता यही तो है गुरु की विशालता जो जन्मों-जन्मों की तपस्या से हमें मिलते हैं ऐसे ही श्रीविद्यासागरजी गुरुवर हमें प्रभु के रूप में दिखते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  8. पर्याप्त पतला पड़ गया वह दुर्लभता इसी को तो कहते हैं। कुछ दाताओं के मुख से कुछ भी शब्द नहीं निकले मन्त्र-मुग्ध कीलित-से रह गये। कुछ...तो विधि-विस्मरण से विकल हो गये, और कपाल पर बार-बार हाथ लगाते हैं, वह ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि कहीं प्रतिकूल भाग्य की डाँट-डॉट कर भगा रहे हों। ‘‘हे महाराज ! विधि नहीं मिली, तो...नहीं सही कम-से-कम इस ओर देख तो लेते, इतने में ही सन्तोष कर लेते हम” यूँ एक दाता ने मन की बात सहज-भाव से सुना दी। दाता के कई गुण होते हैं उनमें एक गुण विवेक भी होता है लो, एक दाता ने विवेक ही खो दिया और भक्ति-भाव के अतिरेक में पात्र के अति निकट पथ पर आगे बढ़ दयनीय शब्दों में कहा, कि ‘‘इस जीवन में इसे पात्रदान का सौभाग्य मिला नहीं, It has undergone enough of lightness, This is what is called rarity, indeed. No word is issued forth From the lips of some of the benefactors Who remain standing as if charmed and nailed. Some of them...indeed Become restless because of forgetting the methodical rites, And Put their palms over their skull once and again, It seems as if They are scolding off Their unfavourable fate. “O great saint ! If the methodical rituals have lacked...let it be so, At least your Holiness should have cast a glance hither, We would have felt satisfied with this much only" -Thus, one of the benefactors expressed his mind In a natural manner. There are many qualities of a benefactor One of them is the power of discretion, Lo, One of the benefactors lost his power of discretion And Under excessive feelings of devotion, On reaching nearer the sacred guest After going along the way, Spoke out in pitiable words, that “He couldn't get in this life The good luck of food-offering to a sacred guest-Munirāja.
  9. भानु अग्रिम दिन तो आ सकता है ...आता ही है ! परन्तु पथ पर चलते-चलते अध-बीच मुड़ कर नहीं आता मुड़ कर आना तो...दूर मुड़ कर देखता तक नहीं वह, पूर्व से पश्चिम की ओर यात्रा करता पश्चिम से पूर्व की ओर आता हुआ देखा नहीं गया आज तक, और सम्भव भी नहीं। दाताओं, विधि-द्रव्यों की पहचान कब, कैसा कर लेता है पात्र, पता तक नहीं चल पाता बिजली की चमक की भाँति अविलम्ब सब कुछ हो जाता है। ‘‘पात्र का प्रांगण में आना, फिर बिना पाये भोजन-पान लौट जाना… घनी पीड़ा होती है दाता को इससे” यूँ ये पंक्तियाँ एक दाता के मुख से निकल पड़ीं। हाथों हाथ सन्तों की बात भी याद आई उसे, कि परम-पुण्य के परमोदय से पात्र-दान का लाभ होता है हमारे पुण्य का उदय तो...है परन्तु, अनुपात से The sun may appear the next day also ...It does appear, indeed ! But While tracking its way It doesn't take a turn the half-way Far from returning back.. It doesn't even turn itself to see, While taking its journey from Eastwards to Westward, It has never been sighted, Arriving Eastward from Westward even up to this day, And that is not possible also. When and how does the worthy guest-Munirāja Recognizes the benefactors and the ceremonial Substances– Can't be even detected, Every thing happens without delay Like a flash of lightning. “The arrival of worthy guest within the courtyard, Then Without obtaining food and water Turning back… - The benefactor is deeply pained on that Score" Thus, these utterings Broke out from the lips of a benefactor. Hastily He remembered the saying of the Saints, that Due to the supreme rise of the Supreme moral merits The benefit of food-offering is accredited, The moment of the rise of our moral merits is there...indeed, But, according to the proportion, –
  10. लेखनी लिखती है कि- गुरु चरणों को पावन मंदिर समझता है शिष्य, गुरु की हर आज्ञा का पालन सौभाग्य मानता है शिष्य, वह इसलिए समर्पण नहीं करता कि गुरु केवल मेरे हो जायें अपितु मेरा समग्र जीवन गुरु के नाम हो जाये। प्रभावित होता वह गुरु-आचरण से कठोर से कठोर गुरु आदेश को पालने में डरता नहीं वह मरण से। गोपनीय बात किसी से कहता नहीं अपने चंचल मन तक भी आने देता नहीं छिपकर बात कभी सुनता नहीं गुरु से बात कुछ छिपाता नहीं कुतर्क करके स्वयं को औरों के समक्ष श्रेष्ठ सिद्ध करता नहीं गुरु की श्रेष्ठता और स्तुति करते-करते कभी थकता नहीं। जितना चाहता स्वयं को उससे भी अधिक चाहता गुरु को जितना प्रसन्न रखता स्वयं को उससे भी अधिक प्रसन्न रखता गुरु को; क्योंकि वह जानता है - गुरु के बिना मेरा अस्तित्व नहीं समंदर के बिना लहर का सत्व नहीं समुद्र रह सकता लहर के बिना गुरु रह सकता शिष्य के बिना पर शिष्य कैसे रह सकता गुरु के बिना गुरु में ही शिष्य के प्राण बसते हैं श्रीविद्यासागर गुरु को शिष्य अपने प्राण मानते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  11. सन्तों की, गुणवन्तों की सौम्य-शान्त-छविवन्तों की जय हो! जय हो! जय हो! पक्षपात से दूरों की यथाजात यतिशूरों की दया-धर्म के मूलों की साम्य-भाव के पूरों की जय हो! जय हो! जय हो ! भव-सागर के फूलों की शिव-आगर के चूलों की सब-कुछ सहते धीरों की विधि-मल धोते नीरों की जय हो! जय हो! जय हो! अब तो...और आसन्न आना हुआ अतिथि का! प्रारम्भ के कई प्रांगण पार कर गये , पथ पर पात्र के पावन पद पल-पल आगे बढ़ते जा रहे, पीछे रहे प्रांगण-प्राणों पर पाला-सा पड़ गया वह पुलक-फुल्लता नहीं उनमें! भास्कर ढलान में ढलता है इधर, कमल-वन म्लान पड़ता है, फिर भी पात्र पुनः लौट आ सकता है यूँ, आशा भर जगी है उनमें। To the saints, to those who are eminent in merits, To those who possess an amiable and peaceful Appearance There be victory ! victory ! victory ! To those who are far away from partiality To those who are the brave ascetics in their natural naked form To those who are the roots of the religion of Compassion To those whose hearts are filled with the true equanimity There be victory ! victory ! victory ! To those who are the coasts to the ocean of worldly existence To those who are the pivots of the treasure-house of salvation To those who are firm-minded in tolerance To those who are like waters for washing the dirt of Karmas There be victory ! victory! victory ! In the meantime...more Closer comes the arrival of the sacred guest Munirāja He crosses many courtyards at the start, The holy feet of the worthy guest-Munirāja Are taking large strides forward every minute, The life-breath of the courtyards left behind Looks like frost-bitten There isn't among them the normal rejoicing and bloom! The sun reclines over the slope Hither the lotus-grove withers away, Even then A ray of hope awakes into their hearts That the worthy guest may turn his feet back.
  12. कोई अपने करों में रजत-कलश ले खड़े हैं, कोई युगल करों को कलश बना कर खड़े हैं, कोई ताम्र-कलश ले कोई आम्र-फल ले कोई पीतल-कलश ले कोई सीताफल ले कोई रामफल ले कोई जामफल ले कोई कलश पर कलश ले कोई सर पर कलश ले कोई अकेला कर में ले केला कोई खाली हाथ ही कोई थाली साथ ले। विशेष बात यह है, कि सब विनत-माथ हैं और बार...बार...सुदूर तक दृष्टिपात करते अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लो, इतने में ही आते हुए अतिथि का दर्शन हुआ और दाताओं के मुख से निकल पड़ी जयकार की ध्वनि ! जय हो! जय हो! जय हो ! अनियत विहारवालों की नियमित विचारवालों की Some of them are standing With the silver-urn holding into their hands, Some others are standing, Having folded both of their hands Into the form of an urn, Some of them holding the copper-urn The others with the mango-fruit Some of them with brass-urns Some one putting the custard apples on his palms The others with the pumpkin into their hands The others having guava into their hands Some of them holding one jar upon the other jar The other balancing-pitcher upon his head Some one standing alone Putting a banana over his palms The other one with his hands really vacant Some one with a platter in his hand. The remarkable thing is that All of them are there with their heads humbly Bowed, And Once and again...at distant places..., Casting their glances Are waiting for some sacred guest-Munirāja. Lo, meanwhile, the arriving sacred guest-Munirāja Comes within their sight, And The cheers of rejoicings Break out from the throats of the benefactors ! Victory ! victory ! victory ! to those Whose departures or arrivals are unfixed Whose thinking is well-disciplined
  13. लेखनी लिखती है कि- गुरु के पास नहीं जड़ संपत्ति फिर भी क्यों भागते हैं भक्त, लगाये ध्यान योग लीन हैं गुरु अपने में फिर भी क्यों होते हैं अनुरक्त। नाशवान जड़ संपदा त्याग कर कई भक्त खाली होकर आते हैं या यूँ कह दें कि विपत्ति स्वरूप जड़ संपत्ति छोड़कर शाश्वत सुख संपत्ति से झोली भर ले जाते हैं। जो स्वयं आकिञ्चन्य हैं वे क्या देंगे कई नास्तिक यह सोचते होंगे ? सच यही है कि- गुरु कुछ देते नहीं पर मिल जाता है सूरज को देखते ही ज्यों कमल खिल जाता है। यहाँ लेखनी भी कुछ लिखना चाहती है कि- जगत् से अनंत गुणा प्रेम जगत्गुरु से करना है तो गुरु कहते हैं- मुझसे भी अनंत गुणा प्रेम श्री प्रभु से करना है तो प्रभुवर कहते हैं- मुझसे भी अनंत गुणा प्रेम स्वयं में स्वयं से करना है। यहीं से सच्चे सुख का द्वार खुलता है इस प्रसंग पर निश्चयवादी आत्मा कहता है- लक्ष्य है जब स्वयं में ही समर्पित होना तो गुरु के समीप जाकर व्यर्थ समय क्यों खोना ? उसे कैसे समझायें कि समय की मौलिकता भी गुरु ने बतलायी है सदगुरु के बिना ही चेतना अब तक रोयी है अब रोना नहीं गुरु श्रीविद्यासागरजी आ गये हैं पाकर गुरु की विराग दृष्टि लगता है सब कुछ पा गये हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  14. लेखनी लिखती है कि खेत लहलहाये तो समझ लेना कृषक का पुरुषार्थ है, शीतल पवन चले तो समझ लेना नदी का तट है, ज्ञान के पट खुलने लगे तो समझ लेना गुरु का हाथ है। आखिर कौन-सी ज्योति है गुरु के नयन में जो हजारों मील दूर से ही शिष्य के भाव पढ़ लेते हैं, कौन-सी शक्ति है मन में जो शिष्य की दुर्गम गतिविधियों को भी वहीं से समझ लेते हैं। गुरु छवि होती रवि-सी हर कोई उस ताप को कहाँ सह पाता ? बेचारा देख उन्हें ठगा-सा रह जाता सोचकर जाता कि यह पूछृगा, वह पूछृगा पर देखते ही उन्हें, प्रश्न कपूर-सा उड़ जाता। सारे प्रश्नों के उत्तर हैं गुरुवर इसीलिए तो अनुत्तर हैं गुरुवर जल को गर्म करना है जल्दी तो ढक्कन ढक दो फल को पकाना है जल्दी तो घास में रख दो यहाँ कहती है शिष्य की मति यदि शाश्वत आनंद पाना है जल्दी तो सद्गुरु के चरणों में रह लो। श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु को श्रद्धा से चुन लो। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  15. लेखनी लिखती है कि जैसे माँ बालक को प्रत्येक वस्तु का नाम बतलाती साथ ही उसकी उपयोगिता समझाती वैसे ही आत्मा की अतलांत गहराईयों तक आगम के आलंबन से ले जाकर शुद्धाशुद्ध भावों का भान कराते हैं गुरु अपने शिष्य को उसके आत्मजगत् में उसकी ही प्रवृत्तियों का परिचय कराते हैं गुरु। पर को अपना मान पनप रहा जो अभिमान उसे आत्मीय बनकर मिटाते हैं वस्तुओं को छुड़ाते नहीं वास्तव में गुरु वस्तु का स्वरूप समझाते हैं स्व-पर का शोधन कराते हैं, पर को हटाते नहीं तब शिष्य ही स्वयं हिताहित को जानकर आत्महित में लगता है अहित को तजकर। गुरु जानते हैं कि- अमृत सींचने पर भी आँवला आम बन नहीं सकता मेंढ़क छाती फुलाकर भी शेर बन नहीं सकता कितना ही चमके काँच पर वह हीरा बन नहीं सकता शिष्य भी अपना पुरुषार्थ न जगाये तो मेरा निमित्त कुछ कर नहीं सकता। इसीलिए भावलिंगी गुरुदेव श्रीविद्यासागरजी अपूर्व कृपा करते हैं पर कहते हैं मैंने कुछ किया नहीं, अदभुत ज्ञान देते हैं पर कहते हैं मैंने कुछ दिया नहीं, धन्य है गुरु की निरीहवृत्ति गुरु की निस्पृह प्रवृत्ति। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  16. लेखनी लिखती है कि एक अबोध सद्यः जात शिशु को दुख नहीं होता मानापमान का, किसी के प्रति भाव नहीं आता राग-द्वेष रूप मलिनता का, चाहे गृह में चोर घुस जाये या सम्माननीय व्यक्ति आ जाये किसी का मरण हो जाये या मांगलिक उत्सव आये वह तो निश्चित होकर रहता अपने ही विचारों में डूबता। गुरु की कृपा कोख मिलते ही जन्म हो जाता है शिष्य का, असंख्य आत्मप्रदेश में श्रद्धा नयन खुलते ही जागरण होता है आतम का, तब वह नवजात शिशु-सा अपने परायों के भेद बिना करता नहीं रागादिक का व्यक्तिकरण चाहे कोई जन्मे या हो जाये मरण लगता है मानो देखते हुए भी देखता नहीं सुनते हुए भी सुनता नहीं अपनों में रहते हुए भी एकत्व नहीं मोह करने वालों पर भी ममत्व नहीं। सच है, जगत् में निश्चित हैं दो ही आत्मा पहला नवजन्मा बालक दूसरा आत्माराधक साधक गुरुवर श्रीविद्यासागरजी निश्छल बालक सम हैं निरीह निर्विकार साधक संत हैं ऐसे ही गुरु की पाकर शरण शिष्य करके कर्मों का अंत होता अरहंत है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  17. लेखनी लिखती है कि लक्ष्य किया जाता है निर्धारित सर्वप्रथम शिष्यत्व पाने का फिर शिष्यत्व से सिद्धत्व गुण पाने का। गुरुत्व का लक्ष्य होता नहीं होना भी नहीं चाहिए शिष्य को गुरु बनने का भाव आता नहीं आना भी नहीं चाहिए। गुरु तो होता है लक्ष्य साधक पथ भूलों को पथदर्शक जिनका आचरण ही होता इशारा जिनके कथन से ही मिल जाता किनारा अपनी करुणा पर ही करुणा आती उन्हें अपनी दया पर ही दया आती उन्हें इसीलिए कहते हैं गुरु- निश्चय से स्वयं पर ही उपकार कर रहा हूँ; क्योंकि अपनी दया करुणा से पीड़ित हो रहा हूँ। ऐसे गुरु की महिमा गाने से हो जाता मुख-कमल प्रफुल्लित जिनकी शांत छवि निरखने से हो जाते नयन- कमल पुलकित जिनके गुण सुमरने से हो जाता हृदय-कमल सुरभित जिनकी कृपा वृष्टि में भीगने से हो जाता समूचा चेतन आनंदित। यह सिर्फ शब्दों की नहीं पंक्तियाँ हैं जीवंत स्मृतियाँ, अहंकार की परतें खुलेंगी यहीं एक बार गुरु-कृपा पर श्रद्धा करके देखो, विश्वास है पलकें झपकेंगी नहीं एक बार श्रीविद्यासागरजी गुरुवर के दर्शन करके देखो। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  18. लेखनी लिखती है कि गुरु तो क्षीरसागर की भाँति हैं जो मिष्ट भी हैं इष्ट भी हैं ज्ञान की प्यास भी बुझाते हैं कर्मों की तपन भी मिटाते हैं गुरु तो पूनम के चाँद की भाँति हैं उज्ज्वल भी हैं सुंदर भी हैं आबाल वृद्ध को प्यारे हैं अज्ञान अंधेरे में गुरु ही सहारे हैं गुरु तो सुमेरु की भाँति हैं जो अडिग हैं उत्तुंग भी हैं साधना से डिगने नहीं देते शिष्यों को गुणों से उन्नत शृंग-सा कर देते। गुरु तो दीये की लौ की भाँति हैं जो स्वयं जलता है प्रकाश भी देता है नीचे से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है नि:स्वार्थ भाव से जीने का संदेश देता है देखा है इन आँखों ने सुना है इन कानों ने कि- चलते हैं गुरु, मंजिल पाते हैं शिष्य करते हैं गुरु, नाम पाते हैं शिष्य श्रम करते हैं गुरु और विश्राम पाते हैं शिष्य शब्द कोष में जितने भी प्रशंसात्मक हैं शब्द सारे गुरु-महिमा में कम पड़ जाते हैं। गुरु कहते हैं मात्र महिमा न गाओ अपनी अस्मिता भी जान लो मेरा श्रम सार्थक हो जायेगा जिस दिन तू मेरे जैसा ही नहीं प्रभु जैसा हो जायेगा ऐसे विशाल हृदयी हैं गुरुवर श्रीविद्यासागर मन आनंदित होता ऐसे गुरु के दर्शन पाकर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  19. लेखनी लिखती है कि गुरु लोभवश मत बनाना कि वह तुम्हें भगवान् बना देंगे, गुरु भयवश मत बनाना कि वह तुम्हें नरक से बचा लेंगे, गुरु स्वार्थवश भी मत बनाना कि वह बिगड़ी बना देंगे, मेरी खाली झोली भर देंगे, गुरु कर्त्तव्यवश भी मत बनाना कि सब गुरु बनाते हैं तो मुझे भी बनाने पड़ेंगे मेरे भी कभी काम आयेंगे प्रसिद्ध गुरु मेरी प्रसिद्धि बढ़ायेंगे। बल्कि गुरु बनाना है तो तय करो वह तुम्हारी मिथ्या मान्यता मिटा देंगे जो तुम्हें प्राणों से प्रिय हैं उसे तुम्हारे प्राणों से हटा देंगे अपना मानकर जो किया है एकत्रित तुमने वह सब तुमसे छीन लेंगे बदल देंगे तुम्हारा जीवन और बदले में लौटा देंगे तुम्हारा चैतन्य धन। जो शिष्य स्वयं अपने लिए कर न पाया अपने होकर गुरु कर देते हैं वह वास्तव में गुरु एक अनुपम शक्ति है चर्म चक्षु से दिखती नहीं है वह श्रद्धा चक्षु से उसके होने का मात्र एहसास किया जाता है। गुरु जो देते हैं अदृश्य देते हैं दृश्य जगत् को कहाँ दिख पाता है दिखाने का प्रयोजन ही क्या गुरु-शिष्य का आपसी यह नाता है जिसका कोई गुरु नहीं वह यह अनुभव कर नहीं सकता, शिष्य की चेतना कहती है- जिसके गुरु हों श्रीविद्यासागरजी जैसे वह संसार में भटक नहीं सकता। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  20. लेखनी लिखती है कि शिष्य का जो भी ज्ञान है गुरु आशीष का ही फल है शिष्य की स्वयं से जो पहचान है यह गुरु का ही एहसान है। माना कि स्वर्ण पाषाण अपने आप में है कीमती पर आँच में तपकर निखर जाता है कई गुना चमक जाता है जब आभूषण में परिवर्तित हो जाता है, माना कि रत्न पाषाण खान में रहकर भी है कीमती पर शिल्पी के हाथ में आ वंदनीय हो जाता है कई गुना कमनीय हो जाता है जब उसे तराश कर मूर्ति बना देता है पत्थर से भगवान् बना देता है। श्रेष्ठ बनना चाहता है हर कोई पर गुरु बिन कौन श्रद्धा जगा पाता है ? बिना श्रद्धा तेल के श्रेष्ठता का दीया कौन जला पाता है ? इसीलिए दीया जलाने के पूर्व शिष्य को निश्छिद्र पात्र समझकर गुरु उसमें ज्ञान का तेल भर देते हैं फिर उसे आत्मज्योति की धरोहर सौंप स्वयं को निश्चित कर लेते हैं। गुरु की शक्ति को तोलो मत वह अतुलनीय है गुरु ने जो दिया है उसे कहो मत वह अकथनीय है गुरु हमारे चारों ओर मौजूद हैं बस नयन खोलना है भावो से भरकर गुरुवर विद्यासागर-विद्यासागर बस पुकारना है | आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  21. लेखनी लिखती है कि गुरु शिष्य को कभी गिराते नहीं मोह से घिरे हुए का मोह छुड़ाते हैं गिरे हुए को गुरु उठाते हैं उठाकर स्नेह से बिठाते हैं बिठाकर उसे स्वयं चलकर दिखाते हैं उसे भी चलना सिखाते हैं, धन्य हैं गुरु जो शिष्य को बाह्य जगत् से उठाकर अंतर्जगत् में ले जाते हैं। फिर भी कोई शिष्य रह जाता अनाड़ी जिसे अनुशासन भी बंधन लगता है सुनकर भी गुरु के वचन क्रंदन करता है जिसे भक्ति का स्वर भी रुदन लगता है अरे! आकाश पर धूल फेंकने से स्वयं ही धूल से भर जाओगे उन पर शूल उछालने से स्वयं ही शूलों में छिद जाओगे लेखनी करती है निवेदन- ऐसे शिष्य कभी मत बनना गुरु-शिष्य की पवित्र परंपरा कभी कलंकित मत करना, वरना कलकल होता रहता जहाँ ऐसी कलंकला में जन्म लेना पड़ेगा वहाँ गुरु ही नहीं मिलेंगे तो दुखों से कौन बचायेगा अभी भी अवसर है गुरु श्रीविद्यासागरजी मिले हैं जिनसे अनेक मुरझाये सुमन भी खिले हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  22. लेखनी लिखती है कि गुरु किसी एक से बँध नहीं सकता बहती नदी का जल किसी के हाथों की ओट से रुक नहीं सकता तरङ्गिणी है वह तो प्रवाहित होगी ही अपार सागर की ओर गुरु जा रहे परम प्रभु से मिलने पाने भव समंदर का छोर शिष्य स्नेह का बंधन उन्हें रोक नहीं सकता। वे तो चलते हैं अविरल मंजिल तक पथ पर मुड़कर कभी देखते नहीं, जिन्हें पाना है गुरु से प्रभु-पथ वे आयें, पथ पायें, किसी को गुरु रोकते नहीं। जो दुखी हैं बहिर्मुखी हैं जिसकी मति की अधोगति है, उसे अपनी दिव्यदृष्टि की किरण मात्र से अंतर्मुखी करते हैं, तब कहने में आता है, गुरु ही सुखी करते हैं जो स्वयं ऊर्ध्वगति से रति करते हैं स्वसन्मुख मति रखते हैं। जानते हैं वे कि- दैहिक सुख सीमित है आत्मिक सुख असीम है देह ही जब विनाशीक है तो उससे प्राप्त सुख अविनाशी कैसे हो सकता है ? आत्मा शाश्वत है तो उससे प्राप्त सुख क्षणिक कैसे हो सकता है ? इसीलिए दैहिक दृष्टि से सुख मिलता नहीं और आत्मिक दृष्टि होते ही दुख रहता नहीं इस तरह तत्त्व ज्ञान बाँटते हुए गुरु द्रुतगति से लक्ष्य पथ पर बढ़ते जाते हैं, विद्याधर जैसे पुण्यशाली शिष्य ही गुरु श्रीज्ञानसागरजी से ज्ञान ले पाते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  23. लेखनी लिखती है कि पुरानी कहानियों में पढ़ते थे राजा के प्राण तोते में बसते थे लेकिन यह शिष्य गुरु की कहानी तो अदभुत है इसमें विद्याधर तोते के प्राण श्रीज्ञानसागरजी महाराज में बसते थे। शिष्य तन से भले दूर रहे पर मन से सदा पास रहता है जब जब आता है गुरु का संस्मरण झट भक्ति-यान में बैठ पहुँच जाता है ज्ञान ही होता तब दिशासूचक यंत्र श्रद्धा ही होती उसका पंथ, किसी को दीखता नहीं पर आकर कब मिल जाता है वह विकत समस्या भी सुलझा लेता है वह गुरु और शिष्य का मिलन है यह तन का नहीं चेतन का गटबंधन है यह यह सब शिष्य की भक्ति का कमाल है बिना मांगे होता मालामाल है | कोई जादूगर नहीं ये जो हाथ सफाई का खेल दिखाये कोई सोदागर नहीं ये जो जड़ कमी का माल दिखाये ये तो है ज्ञान सिन्धु के लाल जिनकी कृपा पाने लगते है कई साल | आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  24. लेखनी लिखती है कि माना माटी में घट होने की क्षमता है पर कुंभकार न हो तो ? माना बीज में पेड़ होने की क्षमता है पर बागवान न हो तो ? माना जल में मुक्ता होने की क्षमता है पर स्वाति का काल न हो तो ? माना दीप में रोशन होने की क्षमता है पर ज्योति का संबंध न हो तो ? सच गुरु ही कुंभकार, गुरु ही बागवान हैं गुरु ही दिव्यज्योति, गुरु ही स्वाति का काल हैं। अट्टालिका की ऊँचाई दिखाई देती है सबको लेकिन नींव की गहराई दिखाई कहाँ देती सबको ? परंतु महल की उन्नति उसकी बुनियाद पर निर्धारित है, शिष्य की प्रत्येक सफलता गुरु-कृपा पर ही आधारित है। सच्चे गुरु ऐसे ही होते हैं कृत उपकार को प्रकट नहीं होने देते हैं किंतु उसे उन्नत कर देते हैं ऐसे गुरु यदि देखना है तो श्रीज्ञानसागरजी गुरुवर को देखना जिन्होंने अपने शिष्य को उन्नत किया अपने समान इसीलिए तो कहलाए वे गुरु महान्। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  25. लेखनी लिखती है कि- सुनी होगी कहावत तुमने "पूत हो सकता है कपूत पर माता कुमाता नहीं होती" इसके आगे भी है एक युक्ति शिष्य हो सकता है मतलबी पर गुरु की वृत्ति कभी स्वार्थी नहीं होती। सरिता तो सरकेगी ही सूरज तो उगेगा ही चंदा तो चाँदनी छिटकायेगा ही वृक्ष तो उगेगा ही सारी प्रकृति लीन है अपने में पर मनुष्य व्यर्थ समय खोता लड़ने में दूसरों पर अधिपत्य जमाता है तभी तो संकटो से घिर जाता है। लेखनी भी हसँती है उसकी मूढ़ता पर क्या धरती को बांटा जा सकता है ? क्या आसमाँ को काटा जा सकता है ? गुरु जड़ संपत्ति नहीं कि आपस में बाँट ले गुरु कोई जमीं जागीदारी नहीं कि अपनी-अपनी नाप ले। अरे! गुरु तो होते विराट सम्राटों के भी सम्राट जिन्हें शीश झुकाने मनुज ही क्या देवता भी तरसते हैं ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी के चरणों में त्रियोग से नमते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
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