लेखनी लिखती है कि
लक्ष्य किया जाता है निर्धारित
सर्वप्रथम शिष्यत्व पाने का
फिर शिष्यत्व से सिद्धत्व गुण पाने का।
गुरुत्व का लक्ष्य होता नहीं
होना भी नहीं चाहिए
शिष्य को गुरु बनने का भाव आता नहीं
आना भी नहीं चाहिए।
गुरु तो होता है लक्ष्य साधक
पथ भूलों को पथदर्शक
जिनका आचरण ही होता इशारा
जिनके कथन से ही मिल जाता किनारा
अपनी करुणा पर ही करुणा आती उन्हें
अपनी दया पर ही दया आती उन्हें
इसीलिए कहते हैं गुरु-
निश्चय से स्वयं पर ही उपकार कर रहा हूँ;
क्योंकि अपनी दया करुणा से पीड़ित हो रहा हूँ।
ऐसे गुरु की महिमा गाने से
हो जाता मुख-कमल प्रफुल्लित
जिनकी शांत छवि निरखने से
हो जाते नयन- कमल पुलकित
जिनके गुण सुमरने से
हो जाता हृदय-कमल सुरभित
जिनकी कृपा वृष्टि में भीगने से
हो जाता समूचा चेतन आनंदित।
यह सिर्फ शब्दों की नहीं पंक्तियाँ
हैं जीवंत स्मृतियाँ,
अहंकार की परतें खुलेंगी यहीं
एक बार गुरु-कृपा पर श्रद्धा करके देखो,
विश्वास है पलकें झपकेंगी नहीं
एक बार श्रीविद्यासागरजी गुरुवर के दर्शन करके देखो।