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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. अग्नि की परीक्षा नहीं होगी क्या ? मेरी परीक्षा कौन लेगा ? अपनी कसौटी पर अपने को कसना बहुत सरल है...पर सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है, क्योंकि, ‘‘अपनी आँखों की लाली अपने को नहीं दिखती है।” एक बात और भी है, कि जिसका जीवन औरों के लिए कसौटी बना है वह स्वयं के लिए भी बने, यह कोई नियम नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रायः मिथ्या-निर्णय ले कर ही अपने आपको प्रमाण की कोटि में स्वीकारना होता है...सो अग्नि के जीवन में सम्भव नहीं है। ‘‘सदाशय और सदाचार के साँचे में ढले जीवन को ही अपनी सही कसौटी समझती हूँ।" फिर कुम्भ को जलाना तो दूर, जलाने का भाव भी मन में लाना अभिशाप-पाप समझती हूँ, शिल्पी जी! ....तब !’’ उपरिली वार्ता सुनता हुआ भीतर से ही कुम्भ कहता है अग्नि से विनय-अनुनय के साथ कि ‘‘शिष्टों पर अनुग्रह करना Shall the ordeal of fire itself not take place ? Who shall put me to test the fire or the water ? To examine ourself on our own touchstone Is so easy...but It is very difficult to take the right decision, Because. 'The ruddiness of our own eyes Isn't visible to us’. One added point too is there, that The life, which has become A touchstone for others Should act as a touchstone also for itself, It isn't an inevitable rule. In such a situation, generally, Having taken a false decision indeed, One has to affirm himself In the rank of a testimony...therefore, It's not possible in the life of the fire. 'The life moulded into The cast of magnanimity and virtuous conduct Is regarded by me the true touchstone of myself.' Then, far from really burning the pitcher, Even to think of burning it Is taken by me as a curse, a sin, dear Artisan ! ...Well, then !” On hearing the words spoken out above, The pitcher tells the fire from within the kiln With a sense of humility and conciliation, that “ To do a favour unto the mannerly persons-
  2. बाहर...सो भीतर, भीतर...सो बाहर वपुषा-वचसा-मनसा एक ही व्यवहार, एक ही बस बहती यहाँ उपयोग की धार! और सुनो! यहाँ बाधक-कारण और ही है, वह है स्वयं अग्नि। मैं तो स्वयं जलना चाहती हूँ परन्तु, अग्नि मुझे जलाना नहीं चाहती है इसका कारण वही जाने।” किन शब्दों में अग्नि से निवेदन करूं, क्या वह मुझे सुन सकेगी ? क्या उस पर पड़ सकेगा इस हृदय का प्रकाश-प्रभाव ? क्या ज्वलन जल बन सकेगा ? इसकी प्यास बुझ सकेगी ? कहीं वह मुझ पर कुपित हुई तो...? यूँ सोचता हुआ शंकित शिल्पी एक बार और जलाता है अग्नि। लो, जलती अग्नि कहने लगी : ‘‘मैं इस बात को मानती हूँ कि अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, न ही भविष्य में मिलेगी। जब यह नियम है इस विषय में फिर ! Do what you say, say what you think, By deed, word and thought The uniform conduct, the one and the same only- It's here that the current of conscious attentiveness flows ! And listen, Here the obstructive cause is indeed different, It is the fire itself. I do myself want to be burnt off But, The fire doesn't wish to set me on fire The reason thereof is known to it only." In what words should I entreat the fire, Shall it give me a hearing ? Shall the enlightening effect of this heart Touch and impress it ? Shall the burning turn itself into water, Shall its thirst get itself quenched ? What, if it does frown upon me...? Pondering thus, the suspicious Artisan Kindles the fire once again. Lo, the burning fire adds thus: “I acknowledge the fact that None has attained liberation till to-day Without the ordeal of passing through the fire, Nor shall it indeed be achieved in future too. When, in this connection, thus goes the law Then, what!
  3. निचले भाग में एक छोटा-सा द्वार है जिस द्वार पर जा कर कुम्भकार नव बार नवकार-मन्त्र का उच्चारण करता है शाश्वत शुद्ध-तत्त्वको स्मरण में ला कर, और एक छोटी-सी जलती लकड़ी से अग्नि लगा दी गयी अवा में, किन्तु कुछ ही पलों में अग्नि बुझती है। फिर से, तुरन्त अग्नि जलाई जाती पुनः झट-सी बुझाती वह! यह जलन-बुझन की क्रिया कई बार चली, ...तब लकड़ी को पुनः कहता है कुम्भकार सौहार्द-पूर्ण भाषा में : “लगता है, अभी इस शुभ-कार्य में सहयोग की स्वीकृति पूरी नहीं मिली, अन्यथा यह बाधा खड़ी नहीं होती!'' इस पर कहती है लकड़ी पुनः सौम्य स्वागत स्वरों में, कि ‘नहीं...नहीं यह बाधा मेरी ओर से नहीं है! स्वीकारतो...स्वीकार... समर्पण तो...समर्पण... There is a tiny doorway in the lower part Approaching that doorway, the Artisan, Having remembered the eternal supreme soul, Chants the holy incantation – Navakāra Mantra' 73 in nine rounds; And With a small burning stick, The fire is awakened into the kiln, But Within a few seconds, the fire gets extinguished. Again, at once It is kindled Again it is extinguished instantly ! This activity of fire being kindled and being extinguished Went, on repeatedly,...then The Artisan again, in a friendly language, Speaks out to the wood-stick : “It seems, The assent for co-operation couldn't be obtained fully At present, in this auspicious deed, Otherwise This obstruction won't have stood in the way !” At this, the wood-stick again tells With the gentle wordings of welcome, that 'No, no...this hindrance Hasn't been projected from my side ! Assent does mean...assent... Dedication does imply...dedication...
  4. उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है हाँ, हाँ!! उस पीड़ा में निमित्त पड़ता है उठाने वाला बस, इस प्रसंग में भी यही बात है। कुम्भ के जीवन को ऊपर उठाना है, और इस कार्य में और किसी को नहीं, तुम्हें ही निमित्त बनना है।" यूँ शिल्पी के वचन सुन कर संकोच-लज्जा के मिष अन्तःस्वीकारता प्रकट करती-सी- पुरुष के सम्मुख स्त्री-सी- थोड़ी-सी ग्रीवा हिलाती हुई लकड़ी कहती है कि- ‘‘बात कुछ समझ में आई, कुछ नहीं, फिर भी आपकी उदारता को देख, बात टालने की हिम्मत ...इसमें कहाँ''...और लकड़ी की ओर से स्वीकारता मिली प्रासंगिक शुभ कार्य के लिए! सो... अवा के मुख पर दबा-दबा कर रवादार राख और माटी ऐसी बिछाई गई, कि बाहरी हवा की आवाज तक अवा के अन्दर जा नहीं सकती अब...! अवा की उत्तर दिशा में The lack of strength to rise up is the flaw, really Yes, yes ! In that suffering, the uptaker is regarded as an efficient cause Only, in this context, it is exactly the point. The life of the pitcher has to be uplifted, And For this work You yourself have to be the efficient cause And none else." Thus, on hearing the words of the Artisan, While taking a pretence of hesitation and shyness, As if expressing its internal assent – Almost like that of a woman before a man- Moving a bit of its neck, The wood-stick says that – “ The relevant point has been grasped and missed Partially, Even then, keeping in view your liberality, Where is the courage in it To put aside what you say?"...and For that relevant auspicious performance, Acceptance is extended from the side of the timber-piece ! So... Having pressed once and again upon the mouth of the kiln The crystallized ashes and soil Are spread over in such a manner, that Even the sound of the external wind Can't enter the pot-kiln now...! On the northern side of the kiln –
  5. २८-०३-२०१६ वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः) कल्पद्रुम महामण्डल विधान सर्वकाल ब्रह्म में ही चर्या करने वाले परिपूर्ण सम्वेदनशील ब्रह्मज्ञानी गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ब्रह्मत्व को प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! आप जब अपनी अस्वस्थता के कारण मुनि विद्यासागर जी को १९६८ चातुर्मास में अधिक समय नहीं दे पा रहे थे, तब आपने समाज वालों से कहा था कि विद्याधर जी को संस्कृत ज्ञान के लिए किसी संस्कृत अध्यापक को बुला लो। तब का एक संस्मरण आपके अनन्य भक्त छगनलाल जी पाटनी अजमेर ने १९९४ में मुझे लिखकर दिया। वह आपको बता रहा हूँ। इससे आपको आपके शिष्य की प्रतिभा पर गौरव का अनुभव होगा प्रोफेसर साहब पढाने आए पढ़ने बैठ गए "भाई कैलाशचंद जी पाटनी ने मेयो कॉलेज अजमेर से प्रोफेसर साहब को आमन्त्रित किया और वो आ गए। उनको बता दिया गया कि इन मुनि महाराज को संस्कृत पढ़ाना है। जैसे ही पढ़ाना शुरु हुआ, थोड़ी देर बाद ही प्रोफेसर साहब बोले-इनको तो मेरे से ज्यादा अच्छी संस्कृत आती है। इनको संस्कृत पढ़ाने वाले गुरु कौन हैं ? हम उनके दर्शन करना चाहते हैं जिन्होंने इन्हें इतनी ऊँची संस्कृत पढ़ाई है। मुझको आज ३० वर्ष हो गए कॉलेज में पढ़ाते हुए, लेकिन हम इतनी अच्छी संस्कृत में प्रवेश नहीं कर सके। धन्य हैं ऐसे गुरु जिनको ऐसा शिष्य मिला और धन्य हैं ऐसे शिष्य जिनको ऐसे गुरु मिले। मैं इनको नहीं पढ़ा सकता। यदि ये मुझे समय दे दें, तो मैं इनसे पढ़ना चाहता हूँ।" इस तरह प्रतिभा सम्पन्न मुनि विद्यासागर जी की क्षयोपशम शक्ति इतनी अगाध थी कि एक बार जो पढ़ते वो कण्ठस्थ करके ही छोड़ते थे। दिन प्रतिदिन उनकी मेधाशक्ति उज्ज्वल होती जा रही थी। ऐसी मेधा को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. एक और हत्या की कड़ी- जुड़ी जा रही, इस जीवन से। अब कड़वी बँट ली नहीं जाती कण्ठ तक भर आई है पीड़ा, अब भीतर अवकाश ही नहीं है, चाहे विष की घूँट हो या पीयूष की कुछ समय तक पीयूष का प्रभाव पड़ना भी नहीं है इस जीवन पर ! जो विषाक्त माहौल में रहता हुआ विष-सा बन गया है। “आशातीत विलम्ब के कारण अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" और यही हुआ इस युग में इसके साथ।” लड़खड़ाती लकड़ी की रसना रुकती-रुकती फिर कहती है- ‘‘निर्बल-जनों को सताने से नहीं, बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है।” इस पर क्षुब्ध हुए बिना मृदु ममता-मय मुख से मिश्री-मिश्रित मीठे वचन कहता है शिल्पी कि नीचे से निर्बल को ऊपर उठाते समय उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठाने वाले का दोष नहीं, One more link of a murder – Is being interlinked with this life. Now the bitter sip can't be swallowed up The suffering has overbrimmed the throat, Now, really, there is no empty space left inside, Whether it is a draught of the poison Or that of the nectar For some time, the nectar too Isn't going to leave its effect Upon this life ! Which, while dwelling within the poisonous Surroundings, Has itself become poison-like. ‘Due to the delay beyond expectation The injustice not as justice, but The justice does appear to be injustice indeed’. And this is what happens To it, in this age." The tongue of the staggering stick Again speaks out while moving with a jerk - "Not by harassing the weak, But only by saving them through providing strength and help – The strength of the strong proves its worth." On hearing this and without being agitated, The Artisan utters The sugarcandy-mixed sweet wordings With his tender affectionate tongue, that “While uptaking the down-trodden from the ground His hand may ache, It is none of the fault of the uptaker, –
  7. २७-०३-२०१६ वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः) कल्पद्रुम महामण्डल विधान आत्माहूतिनी तपस्या के साधक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपस्याचरण को त्रिकाले नमोस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आपने मुनि श्री विद्यासागर जी को समयसार पढ़ाया तो विद्यासागर जी उस आत्मविद्या को पढ़कर अनुभूति में उतारते चले गए। उनकी वह अनुभूति व्यवहारीजन के अनुभव में आने लगी थी। इस सम्बन्ध में दीपचंद छाबड़ा नांदसी वालों ने ०३-११-२०१५ को मुझे दो संस्मरण सुनाए। वह मैं आपको बता रहा हूँ। जिसे आप जानकर अनुभूत करेंगे कि आपका दिया गया ज्ञानदान और दीक्षा व्यर्थ नहीं गई। आपने जो अपेक्षा रखी थी वह मुनि विद्यासागर जी ने पूर्णत: करके दिखायी है- निजानुभवी की अध्यात्म दृष्टि "१९६८ अजमेर श्रावण माह का समय था। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को जुखाम हो गया था। तब श्री मिलापचंद जी पाटनी ने मुनिराज से कहा-आपको जुखाम हो रखा है, आप खुले में मत बैठो। तब मुनि श्री विद्यासागर जी जो गुरु महाराज से समयसार का अध्ययन कर रहे थे, उस अध्यात्म अमृत को पीकर उनकी भावदशा भी अध्यात्ममय हो गई थी। वे बड़े ही गंभीर भाव में बोले- "क्या मुझे जुखाम हो सकता है?" इस उत्तर को सुनकर पाटनी जी निरुत्तर हो गए और नमस्कार करके चले गए। नीचे आए तो छगनलाल जी पाटनी मिले और उनसे कहा-विद्यासागर जी तो आत्मानुभवी हैं। ये सदा निजानुभवी ही रहेंगे। जिनको जुखाम की अनुभूति भी आत्मानुभव में बाधा नहीं बनती, वे बड़े ही भेदविज्ञानी हैं, ये तो आगे जाकर अध्यात्म का डंका बजायेंगे। उनकी वार्ता सुनकर मैं मुनि विद्यासागर जी से बड़ा ही प्रभावित हुआ। तत्त्व की अति उत्कण्ठा इसी तरह एक दिन मैं ब्यावर से अजमेर सोनीजी की नसियाँ मुनि संघ के दर्शन करने पहुँचा। तब वहाँ पर केकड़ी (अजमेर) के विद्वान् श्रीमान् पण्डित दीपचंद जी पाण्ड्या प्राकृत-संस्कृत के भाषाविद् गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से शास्त्रीय चर्चा कर रहे थे। वहीं पर नवदीक्षित मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी बड़े ध्यान से चर्चाएँ सुन रहे थे। कुछ देर बाद चर्चा समाप्त हुई। तो मुनि विद्यासागर जी महाराज बाहर आ गए। उनके पीछे-पीछे पण्डितजी भी आ गए। पण्डित जी साहब ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को नमस्कार करके शास्त्रोक्त श्रुत भक्ति पर चर्चा की। लगभग १५ मिनिट तक दोनों ही ऊहापोह करते रहे। मैं पास में ही खड़े होकर उनकी चर्चा को सुनता रहा। मुनि श्री विद्यासागर जी जो भी बात बोलते पण्डित जी साहब उनकी बात पर हाँ जी-हाँ जी करते और पण्डित जी साहब जो भी बोलते तो मुनि श्री विद्यासागर जी अच्छा-अच्छा। ऐसा कहकर स्वीकारते। उनकी उस दिन की प्रसन्नचित्त होकर हर्षित वातावरण में तत्त्वचर्चा करने से ऐसा प्रतीत हो रहा था। मानो मुनिश्री विद्यासागर जी शास्त्रों के मर्म को शीघ्र ही आत्मसात् करना चाहते हों। उनकी यह चर्चा सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरे परिणाम भी उनके जैसे बनने के होने लगे।" इस तरह आपके शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी अपने आत्मकल्याण में प्रतिक्षण दत्तचित्त तो रहते ही साथ ही ज्ञान-ध्यान-तत्त्वचर्चा में सदा निरत रहते, जो भी उनको देखता उनके भाव भी उनकी चर्या को देखकर विशुद्ध होने लगते । ऐसे साधक ज्ञानपिपाशु के चरणों में नतमस्तक होता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. उसकी शोकाकुल मुद्रा कुछ कहने का साहस करती है, कि ‘‘जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है हम लकड़ी जो रहीं लगभग धरती की जा छू रही हैं हमारी पाप की पालड़ी, भारी हो पड़ी है। हमसे बहुत दूर.पीछे पुण्य की परिधि बिछुड़ी है क्षेत्र की ही नहीं, काल की भी दूरी हो गई है पुण्य और इस पतित जीवन के बीच में… कभी-कभी हमें बनाई जाती कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए। प्रायः अपराधी-जन बच जाते। निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें पीटते-पीटते टूटतीं हम। इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध'धनतन्त्र' है या मनमाना ’तन्त्र’ है! इस अनर्थ का फल-रस हमें भी मिलता है चखने को, और यह जो हमें निमित्त बना कर निरपराध कुम्भको जलाने की साध चली है। Its woe-begone posture Ventures to say something, that “ Our nature is hard since the very birth We have been the pieces of timber Almost reaching the ground, we have been touching it, The pan of our sins has become heavy. At a very far-off distance...behind us, The ‘Compass’ of moral merits has been separated from us, Not only the distance of the region But also the distance of the time has occurred Between the righteous conduct And this degraded life… Often we have been moulded into The hard to the harder canes For punishing the culprits. Generally, the defaulters escaped punishment While the innocents were put to beating, And, while beating them every now and then, We were broken into pieces. How can we call it to be a democracy ? This is simply an aristocracy, Or It is a despotic rule or autocracy ! The fruit-extract of this impropriety We also have to relish, And This yearning, which has been started To burn the innocent pitcher By making us as its efficient cause-
  9. आज, अवलोकन हुआ अवा का सरासर दृष्टि से, अब। अविलम्ब अवधारित अवधि में अवा के अन्दर कुम्भ को पहुँचाना है, और अवा को साफ-सुथरा बनाया जा रहा है। अवा के निचले भाग में बड़ी-बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी गाँठ वाली काली-काली छाल वाली बबूल की लकड़ियाँ एक के ऊपर एक सजाई जाती हैं, और उन्हें सहारा दिया जा रहा है लाल-पीली छाल वाली नीम की लकड़ियों का। शीघ्र आग पकड़ने वाली देवदारु-सी लकड़ियाँ भी बीच-बीच में बिछाई गईं, धीमी-धीमी जलने वाली सचिक्कन इमली की लकड़ियाँ जो अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की हैं और अवा के बीचों-बीच कुम्भ-समूह व्यवस्थित है। सब लकड़ियों की ओर से अवरुद्ध-कण्ठा हो बबूल की लकड़ी अपनी अन्तिम अन्तर्वेदना कुम्भकार को दिखाती है, और Today, the potter's kiln is observed With a cursory glance, now. Without delay, within a certain period The pitcher (kumbha) has to be entered into the potter's kiln, And The potter's kiln is being made neat and clean. Inside the downward portion of the kiln The huge, knotty, zigzag Logs of acacia tree Having a blackish bark Are placed carefully one upon the other, And they Are being supported With the sticks of margosa Having a reddish-yellow bark. The sticks similar to those of the pine-tree Which catch the spark instantly, Are spread amid empty spots, The smoothened timber pieces of the tamarind tree too Which get inflammed slowly Have been erected around At the brink of the circular pot-kiln And The batch of the pitchers has been arranged Exactly in the middle of the Kiln. On behalf of all the timber-pieces The sticks of the acacia tree, with the choked throat, Unfold their ultimate inner agony Before the Artisan, And
  10. इधर धरती का दिल दहल उठा, हिल उठा है, अधर धरती के कॅप उठे हैं धृति नाम की वस्तु वह दिखती नहीं कहीं भी। चाहे रति की हो या यति की, किसी की भी मति काम न करती। धरती की उपरिल उर्वरता फलवती शक्ति बह जाएगी। पता नहीं कहाँ वह जाएगी...? प्रायः यही सुना है, कि नभचरों से भूचरों को उपहार कम मिला करता है प्रहार मिला करता है प्रभूत! असंयमी संयमी को क्या देगा ? विरागी रागी से क्या लेगा ? और सुना ही नहीं, कई बार देखा गया कि नियम-संयम के सम्मुख असंयम ही नहीं, यम भी अपने घुटने टेकता दिखा है, हार स्वीकारना होता है। नभश्चरों सुरासुरों को ! Hither the heart of the Earth Has shaken, has moved, The lips of the Earth have trembled That thing named ‘fortitude’ Is found nowhere. Whether it is that of an indulgent one, or that of an ascetic, Nobody's intellect can be of any avail. The outward fertility of the Earth The fruit-bearing power shall be swept away Where shall it go, is not known...? Generally it has been heard, that Only scanty gifts are obtained By the earthly beings from the heavenly bodies, They get plentiful of blows ! What can a worldly person bestow upon a sage ? What shall an ascetic get from an impassioned one ? And It has not only been heard, it has been found often That Before the holy rituals and self-discipline Not only intemperance, but Yama, the Lord of Death, too Comes down upon his knees, The heavenly bodies, the gods and devils Have to concede their defeat !
  11. २६-०३-२०१६ वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः) कल्पद्रुम महामण्डल विधान अन्तस् की समग्र सम्वेदना से सत्ता का भावबोध प्राप्त करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचार को प्रणाम करता हूँ.... हे गुरुवर! अजमेर में उस दिन सबके मुख पर एक ही बात थी कि मुनि विद्यासागर जी का गृहस्थ अवस्था का परिवार जिनधर्म समर्पित, शुद्ध, परम-पवित्र, श्रद्धा-भक्ति, विनयशील, दानशील, मधुर व्यवहार भाषी परिवार है। जिस दिन सोनी नसियाँ में ब्रह्मचारी विद्याधर जी के माता-पिता, भाई-बहिनों ने बड़े ही ठाटबाट से आप द्वय गुरु महाराजों की पूजा की थी। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया- मल्लप्पा जी ने सपरिवार चढ़ाये १०८ स्वर्ण पुष्प "पिता जी के साथ हम सपरिवार अजमेर नगर आहारदान हेतु चौका लेके गए तब अन्तिम दिन सोनी जी की नसियाँ में मुनि द्वय गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज एवं श्री विद्यासागर जी मुनि महाराज की पूजा का कार्यक्रम रखा। उसमें अजमेर समाज भी सम्मिलित हुई थी हम सभी ने अजमेर के कवि प्रभुदयाल जी जैन द्वारा रचित मुनि ज्ञानसागर जी महाराज एवं मुनि विद्यासागर जी महाराज की पूजा सस्वर भक्ति भाव से की थी। उस पूजन में हम सब परिवार ने मिलकर १०८ स्वर्ण पुष्प समर्पित किए थे। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का मार्मिक प्रवचन हुआ था। तत्पश्चात् सर सेठ साहब भागचन्द्र जी सोनी, अजमेर जैन समाज के प्रमुख आदि ने माता-पिता को भरी समाज में सम्मान किया और अपने भाषण में बोले ‘स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्' संसार में ऐसी माताएँ बहुत कम हुआ करती हैं, जो ऐसे पुत्र को जन्म देती हैं कि वह अपना कल्याण तो करता ही है साथ ही माता-पिता, देश-समाज का भी कल्याण करता है एवं दुनियाँ में माता-पिता का ही नहीं वरन् मानव मात्र का नाम रोशन करता है। धन्य हैं ऐसे माता पिता जिनके लाड़ले ने अजमेर राजस्थान को धन्य कर दिया और इतिहास में नाम अमर बना दिया। इसके बाद संचालक निहालचंद जी मास्टर साहब ने पिताजी को बोलने के लिए कहा तब मुनि संघ के समक्ष पिताजी बोलने के लिए खड़े हुए और बोले-आचार्य ज्ञानसागर जी मुनि महाराज की जय। मुनि विद्यासागर जी महाराज की जय। मुनि संघ की जय। हमको हिन्दी साफ नहीं आती है। आप लोग समझ लेना। मुनि ज्ञानसागर जी महाराज ज्ञानी महाराज हैं और जौहरी हैं। दक्षिण भारत के रत्न को पहचान लिया और उसे तराश दिया। हमने आपके बारे में सुना है कि आप संस्कृत के विद्वान् पण्डित रहे हैं। आपने बहुत सारा साहित्य लिखा है और ब्रह्मचारी अवस्था में मुनियों को पढ़ाया है। तो हमने विद्याधर को आपको गोद दे दिया है। अब आप इसको अपने जैसा ही विद्वान् पण्डित बनाना। जिससे ये अपना और दूसरों का भला कर सके और हमें भी ऐसा आशीर्वाद दे देना हम भी संयम मार्ग में बढ़ सकें और हर चातुर्मास में आपकी सेवा में आ सकें।" इस तरह विद्याधर के सुसंस्कारों की पृष्ठभूमि में माता-पिता, कुल-परम्परा की भूमिका प्रकट हो जाती है। सम्यक् धर्म की परम्परा को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  12. २५-०३-२०१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) ममता को समता में ढालने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु... । हे गुरुवर! आपको पिछले पत्र में बताया था कि मल्लप्पा जी ने बड़े पुत्र को और परिवार को चौका लेकर अजमेर चलने की बात कहकर तैयारी करने की बात कही थी, आज मैं वह बात लिख रहा हूँ जब मल्लप्पा जी सपरिवार सदलगा से अजमेर आए थे और उन्होंने बड़ी ही नवधाभक्ति के साथ आहारदान दिया था। इस सम्बन्ध में अग्रज भाई महावीर जी ने बताया माँ श्रीमन्ती ने चौका लगाया अजमेर में "कई जन्मों के पुण्यार्जन के उदय से हम सभी १५ जुलाई १९६८ को सदलगा से अजमेर के लिए निकले। दादी का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वो चाचा के पास रहीं। माता-पिता छोटे भाई अनन्तनाथ एवं शान्तिनाथ दोनों छोटी बहनें शान्ता-सुवर्णा और विद्याधर के मित्र मारुति के साथ मैं अजमेर पहुँचा। अजमेर में समाजजनों ने माणिकचन्द्र जी सोगानी (एडवोकेट) के ऑफिस के ऊपर खाली कक्ष में हम लोगों को रुकाया। वहीं पर शुद्ध भोजन बनाने की व्यवस्था बनाई। दोपहर में हम सभी ने सोनी जी की नसियाँ में विराजमान ज्ञानमूर्ति गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन किए और निवेदन किया कि हम सभी कुछ दिन यहाँ रहेंगे, शुद्ध भोजन बनाकर करेंगे और साधुओं को आहार दान भी देंगे, आप सभी आशीर्वाद प्रदान करें। तब मुनि विद्यासागर जी बोले- ‘इतनी दूर क्यों आए ? आहार दान देने के लिए क्या वहाँ कोई साधु नहीं मिले?' तब माँ बोली- 'नये मुनि महाराज को भी तो आहार देना पड़ता है ना।' तब हँसते हुए मुनि श्री विद्यासागर जी बोले- ‘अरे इस शरीर को तो २० साल तक खिलाया है अभी तक मन संतुष्ट नहीं हुआ।' तब पिता जी बोले- ‘अभी तक तो बेटे के शरीर को खिलाया। अब मुनि महाराज को आहार दान देना है। प्रथम दिन पड़गाहन में सौभाग्य जागा और परमपूज्य गुरुदेव श्री ज्ञानसागर जी मुनि महाराज का पड़गाहन किया, नवधाभक्ति से आहार कराया। ज्ञानसागर मुनि महाराज ने हमारे दक्षिण का भोजन हँसते हँसते ग्रहण किया। आहार के पश्चात् पिच्छिका भेंट की तब माता-पिता दोनों ने गुरु महाराज से पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। दूसरे दिन पड़गाहन में क्षुल्लक सन्मतिसागर जी महाराज आए, तीसरे दिन क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज आए, चौथे दिन ब्रह्मचारी भैया जी जमुनालाल जी आए। पाँचवाँ-छटवाँ दिन खाली गया। सातवें दिन पुनः सौभाग्य जागा और नये मुनिराज श्री विद्यासागर जी मुनि महाराज का पड़गाहन हुआ और नवधाभक्ति से आहार कराया। आहारदान की अनुमोदना करने हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित हो गयी। आहार में माँ और बहिनों ने दक्षिण के विशेष व्यंजन बनाये थे जैसे-पूरणपोली, ज्वार की सूजी का हलवा, ज्वार की रोटी, इडली-डोसा, रागी, मट्टा दही आदि तब माँ ने बहुत वात्सल्य एवं आग्रह पूर्वक देने की कोशिश की मगर महाराज ने हँसते हुए अँजुली को बन्द रखा, नहीं लिया। दोनों छोटी बहिनों ने भी प्रयास किया, तब भी नहीं लिया। तब पिताजी एवं हमने और अधिक प्रयास नहीं किया। विद्यासागर जी ने कठोरता से अपने मोह को नष्ट किया। मित्र ने अलौकिक मित्र से लिया आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत आहार के पश्चात् मुनि श्री विद्यासागर जी ने हम लोगों से बात नहीं की, मारुति से बात की। मित्र मारुति बोला-आपने मुझे दीक्षा के लिए बुलाया था। उस वक्त मैं किसी कारण से नहीं आ सका, किन्तु अब मैं तैयार हूँ। तब मुनिराज विद्यासागर जी बोले- ‘अभी विवाह के उलझन में मत पड़ना, फिर देखेंगे। दूसरे दिन प्रवचन के बाद मारुति ने विवाह न करने का व्रत ले लिया। तब से आज तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहा है। आहार के बाद एवं अन्य समय में मुनि श्री विद्यासागर जी के पास जब भी बैठते तब इशारा करके बोलते-‘वहाँ जाओ गुरुमहाराज के पास बैठो।' गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज हम लोगों को धर्म का उपदेश देते। मित्र मारुति ने सबके रोगटे खड़े कर रूला दिया मारुति मुनि विद्यासागर जी के पास ही ज्यादा समय रहता था और कई बातें करता रहता था। एक दिन मारुति ने बताया-जब विद्याधर जी आचार्य देशभूषण जी महाराज के संघ में थे और गोम्मटेश्वर जा रहे थे तब बीजापुर कर्नाटक के पास डोली को उठाकर चले थे। थोड़ा चलने के बाद रास्ते में विश्राम के लिए बैठे तब विद्याधर जी को पृष्ठ भाग में बिच्छूने काट लिया किन्तु पास में कोई दवा वगैरह नहीं थी और किसी को बताएगें तो मुझे सेवा का अवसर नहीं मिलेगा अतः किसी को नहीं बताया। रातभर पीड़ा को सहन करते रहे। सुबह वह ठीक हो गया। यह घटना सुनकर माँ, दोनों बहिनें और हम तीनों भाईयों के रोगटे खड़े हो गए और आँसू आ गए। इस तरह मारुति से हम लोगों को कई बातें पता चलती रहती थीं। कारण कि घर वालों से तो मुनि विद्यासागर जी बात करते नहीं थे। हम लोग अजमेर में करीब १५ दिन रुके थे और गुरु महाराज ज्ञानसागर जी मुनि महाराज को दो बार आहार कराने का सौभाग्य मिला एवं क्षुल्लक ऐलक महाराजों को भी दो-दो बार आहार कराये, किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की विधि हम लोगों के हीन पुण्य के कारण एक ही बार मिली। फिर भी हम सभी अपने भाग्य को सराहते हुए खुश हुए थे, कि हमें ऐसे मुनिमहाराजों को आहारदान देने का अवसर मिला जो पंचमकाल में भी चतुर्थकाल जैसी साधना कर रहे हैं। प्रतिदिन अजमेर समाज के लोग आ करके हम लोगों से विद्याधर के बारे में उसके बचपन के बारे में। पूछते थे और सुन सुनकर बहुत खुश होते थे। अजमेर समाज ने बहुत स्नेह और सम्मान दिया। हम लोगों को अपने घर में भोजन कराने के लिए निमंत्रण देने आते थे और हम लोगों से पूछते थे आप लोगों को कौन-सी चीज पसंद है। जब हम लोग लौटने लगे तो बहुत से लोग स्टेशन पर छोड़ने आए और विदाई देते समय आँखों में आँसू लिए हुए थे। इस तरह विद्याधर के परिवार ने ससंघ को यथायोग्य भक्ति के साथ आहारदान देकर गृहस्थोचित गृहस्थधर्म की पालना की और अजमेर की जनता में व्याप्त भ्रान्ति को समाधित कर दिया। ऐसे शुभ और विशुद्ध भावों से सुसज्जित श्रेष्ठ कर्म की अनुशंसा करता हुआ... । आपका शिष्यानुशिष्य
  13. २४-0३-२0१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) प्राणीमात्र के साथ संवेदनात्मक जीवंत सरोकार स्थापित करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संयमित पद कमलों की भाव पूजा-वंदना करता हूँ...। हे गुरुवर ! सन् १९६८ का वर्षायोग अजमेर नगर में आपने किया। उस समय का पूरा विवरण दिगम्बर जैन महासंघ अजमेर के महामंत्री इन्दरचंद जी पाटनी (टेलीकॉम) जी ने २७-१०-२०१५ को भीलवाड़ा में आँखों देखा वर्णन सुनाया। वह मैं आपको स्मृति ताजा करने हेतु लिख रहा हूँ मुनि विद्यासागर जी का अजमेर में प्रथम वर्षायोग "सोनी जी की नसियाँ में मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज का प्रवचन प्रतिदिन होता था। ५ जुलाई १९६८ को सर सेठ श्री भागचंद जी सोनी, पण्डित हेमचन्द जी शास्त्री, छगनलाल जी पाटनी, ताराचन्द जी गंगवाल, पण्डित विद्याकुमार जी सेठी, प्रोफेसर (प्राचार्य) निहालचन्द जी बड़जात्या, मा. मनोहरलाल जी, कजोड़ीमल जी अजमेरा, महेन्द्रकुमार जी बोहरा, कैलाशचन्द जी पाटनी, माधोलाल जी गदिया, वकील पदमकुमार जी बड़जात्या आदि अनेक गणमान्य समाज श्रेष्ठियों ने मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में बड़ी श्रद्धा-भक्ति से श्रीफल समर्पित करते हुए पूरे अजमेर समाज की उपस्थिति में निवेदन किया गुरुदेव हम सभी की विनम्र प्रार्थना है कि इस वर्ष का चातुर्मास अजमेर नगरी को प्राप्त हो जिससे हम लोग धर्म लाभ लेकर अपने आत्म कल्याण के मार्ग को प्रशस्त कर सकें। तब श्री ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘देखो!' ९ जुलाई १९६८ को अजमेर जैन समाज प्रात:काल नसियाँ जी में एकत्रित हो गयी और ज्यों मुनि संघ मंचासीन हुआ तब सेठ साहब श्री भागचन्दजी सोनी जी ने पुनः निवेदन किया तब मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने हँसते हुए आशीर्वाद दिया और कहा- ‘चार माह हमारा संघ अजमेर में ही धर्म ध्यान करेगा, धर्म साधना करेगा, यदि आप लोग भी धर्म लाभ लेना चाहें तो हम लोगों की साधना में बिना बाधा किए अनुकूल समय में आप लोगों के धर्म लाभ में संघ निमित्त बन सकता है, इसके बाद श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने संकल्प किया, दिशाओं का बन्धन किया। १९६८-चातुर्मास में प्रतिदिन की दिनचर्या इस प्रकार रही प्रातः शौच से निवृत्त होकर, ८ बजे से ९ बजे तक प्रवचन होता था। जो श्री ज्ञानसागर जी महाराज देते थे। फिर आहाराचर्या के लिए निकलते थे। चूँकि श्री ज्ञानसागर जी महाराज बुजुर्ग थे तो वे आस-पास के चौकों में ही जाते थे, किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी और संघस्थ क्षुल्लकगण दूर-दूर तक शहर के अन्य चौकों में भी चले जाते थे। इसके पश्चात् १२ बजे से सामायिक हुआ करती थी फिर दोपहर २:३० बजे से समयसार ग्रन्थ की कक्षा चलती थी। जिसमें श्री ज्ञानसागर जी महाराज समस्त धर्म शास्त्रों के प्रमाणों के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के अभिप्राय को समझाते थे और समाज के कुछ विद्वान् जिज्ञासा रखते थे, प्रतिप्रश्न करते थे तो गुरु महाराज उनसे आगम प्रमाण पूछते थे और जब कोई ग्रन्थ दिखाते थे तो महाराज उसकी संस्कृत या प्राकृत पढ़कर अर्थ समझाते थे और कहते थे नीचे जो हिन्दी में अर्थ है वह गलत है। ऐसी बहुत ऊहापोह चला करती थी। मुनि विद्यासागर जी बड़े ध्यान से सुना करते थे और बीच-बीच में प्रश्न भी किया करते थे। इस कक्षा में छगनलाल जी पाटनी, ताराचन्द जी गंगवाल, ताराचन्द जी पाटनी, प्रेमराज जी दोषी, कैलाश जी पाटनी, पण्डित श्री हेमचन्द जी, मा० निहालचन्द जी, सेठ श्री भागचन्द जी सोनी, प्रधानाध्यापक मनोहरलाल जी जैन, ब्रः सुगनचंद जी गंगवाल, ब्रः श्री प्यारेलाल जी बड़जात्या, पं० विद्याकुमार जी सेठी, पं० हरक चंद जी, मथुरालाल जी बज, छीतरमल जी दोशी, कजोड़ी मल जी अजमेरा, मूलचंद जी चाँदी वाल, विद्याधर ब्रह्मचारी के धर्म के माता-पिता हुकुमचंद जी लुहाड़िया, रविन्द्र कुमार जी, कविराज श्री प्रभुदयाल जी, पदमचंद जी-मनोरमा पाटनी, भागचंद जी बाकलीवाल, बसंतीलाल जी बाकलीवाल, माधोलाल गदिया परिवार, कपूरचंद जी एडवोकेट, प्रफुल्ल कुमार जी, शान्तिलाल जी बड़जात्या, मिलापचंद जी पाटनी, दीपचंद जी दोशी, महेन्द्र कुमार जी बोहरा, स्वरूपचंद जी कासलीवाल, प्रकाशचंद जी गोधा, पी. कुमार फोटोग्राफर, सोहनलाल जी गदिया, पूषराज जी गदिया आदि समाज के बुद्धिजीवी लोग महाराज श्री ज्ञानसागर जी के समक्ष तत्त्व चर्चा किया करते थे। शाम को श्री ज्ञानसागर जी महाराज के साथ मुनि विद्यासागर जी प्रतिक्रमण किया करते थे और फिर आचार्य भक्ति होती थी फिर संघ सामायिक में लीन हो जाता था। ८:३० बजे समाज के बन्धुजन वैयावृत्य किया करते थे। मुनि श्री ज्ञानसागर जी की वैयावृत्य मुनि श्री विद्यासागर जी किया करते थे। दिन में जब कभी समय मिलता तो वो पण्डित हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री द्वारा अनुवादित प्रमेयरत्नमाला की चिन्तामणि नामक हिन्दी टीका को अपनी कॉपी में लिखा करते थे। अजमेर के हरकचंद जी लुहाड़िया सपत्नीक ने परमपूज्य वयोवृद्ध चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति श्री १०८ ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ससंघ के चरणों में निवेदन किया कि ३१ जुलाई से २ अगस्त तक आपके आशीर्वाद एवं सान्निध्य में भक्तामर का अखण्ड पाठ व पूजा जाप विधान करना चाहते हैं। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने आशीर्वाद प्रदान कर दिया। इस अनुष्ठान में अजमेर के अनेक लोगों ने भाग लिया। प्रात:काल गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का और दोपहर में मुनि विद्यासागर जी महाराज का मंगल प्रवचन हुआ। भादवा सुदी एकम् से तीज तक समाज की महिलाएँ रोट तीज व्रत रखती हैं। इस कारण बहुत सारी महिलायें मुनि ज्ञानसागर जी महाराज एवं विद्यासागर जी महाराज से आशीर्वाद लेने आयीं, मुनि विद्यासागर जी से उन महिलाओं ने निवेदन किया महाराज रोट तीज की कथा सुनाइए तो विद्यासागर जी को रोटतीज व्रत के बारे में जानकारी नहीं थी, उन्होंने गुरु ज्ञानसागर जी महाराज के पास भेज दिया, बाद में ज्ञानसागर जी महाराज ने दोपहर की तत्त्वचर्चा में इसका जिक्र किया। रोट तीज के दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को चौके में रोट दिया गया। आहार के बाद जब वो वापस नसियाँ जी आए तब ज्ञानसागर जी महाराज से बोले- 'यहाँ पर क्या इतनी मोटी-मोटी (हाथों का इशारा करते हुए) रोटी बनती हैं ?' तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘महाराज! ये राजस्थान है ना यहाँ पर दशलक्षण पर्व से दो दिन पहले ये रोट तीज आती हैं और इस दिन घरों में रोटी आदि नहीं बनती, ये इतनी मोटी-मोटी रोट बनती हैं इसको रोट कहते हैं, इसमें घी भर देते हैं, बूरा डाल देते हैं और तुरई की सब्जी के साथ खाते हैं, इसलिए आज के दिन वही खिलाते हैं।' तब विद्यासागर जी बोले- ‘इससे क्या होता है, तो ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'इससे इन्हें दस दिन भूख नहीं सताती, व्रत, उपवास अच्छे से हो जाते हैं तब विद्यासागर जी हँसने लगे। दशलक्षण पर्व में सेठ साहब भागचंद सोनी जी ने दशलक्षण पूजन विधान, सोलहकारण विधान, रत्नत्रय विधान के लिए माड़ना लगाया और ज्ञानसागर जी महाराज के प्रवचन के उपरांत चौथ के दिन समाज को आमन्त्रित किया कि जिन-जिन को भी पूजन विधान करना हो वो मेरे साथ खड़े होकर महाराज श्री से आशीर्वाद ग्रहण करें तब समाज के २०-२५ गणमान्य सज्जनों ने आशीर्वाद ग्रहण किया। प्रतिदिन प्रात: व मध्याह्न ३ बजे से नसियाँ जी में परमपूज्य मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज व पूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज का मार्मिक गम्भीर प्रवचन होता था। अनन्त चतुर्दशी के दिन व प्रतिपदा को नसियाँ जी तथा शहर के मंदिरों में मुनि संघ के सान्निध्य में वार्षिक कलशाभिषेक हुआ और उसके बाद ऐरावत हाथी पर श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा को विराजमान कर मंदिर के बाहर चारों तरफ एक परिक्रमा लगायी गयी। जिसमें भगवान के आगे अजमेर की दिगम्बर जैन संगीत भजन मण्डली भजन गाते हुए चल रही थी और मूलचन्द्र जी चाँदीवाल एवं नवीन जी गोधा आदि भाव नृत्य कर रहे थे। पूरी अजमेर समाज के लोग जय-जयकार कर रहे थे। एकम् के दिन विधान समाप्त हुआ। तब मध्याह्न में अरिहन्त प्रतिमा का अभिषेक के पश्चात् समाज के समस्त पुरुष वर्ग ने हाथों में अर्घ की रकेवी लेकर सेठ साहब के साथ भजन गाते हुए मंदिर की एक परिक्रमा लगाई और महाअर्घ बोलकर जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में अर्घ चढ़ाया और उसके बाद सभी नसियाँओं में कलशाभिषेक हुए और फिर उसके बाद पूरी समाज सरावगी मुहल्ले पहुँचती है और वहाँ सर्वप्रथम सेठ जी के गृह चैत्यालय में अभिषेक देखती हैं, फिर अलग-अलग धड़ों के मंदिरों में अभिषेक होता है, फिर सरावगी मुहल्ले के चौक में पूरी समाज एकत्रित होकर क्षमावाणी का कार्यक्रम करती है। सभी लोग एक दूसरे से क्षमा माँगते हैं और फिर सोनी नसियाँ में पूरी समाज एकत्रित होती है और जो रत्नत्रय व्रत करने वाले हैं, उनसे क्षमा माँगती है। भाद्रपद शुक्ला दोज को परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्यवर्य शान्तिसागर जी महाराज का समाधि दिवस धूमधाम से मनाया गया। मुनि द्वय के मार्मिक प्रवचन हुए। ०३-११-१९६८ को परमपूज्य गुरुवर श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ने केशलोंच किया। केशलोंच के पश्चात् श्रीमान् सर सेठ भागचंद सोनी जी ने दोनों मुनिराजों को नवीन पिच्छिका भेंट की एवं संघस्थ क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, सुखसागर जी, आदिसागर जी को नवीन पिच्छिका समाज के अन्य लोगों ने भेंट की और विद्यासागर जी की पुरानी पिच्छिका अनन्य भक्त कजौड़ीमल जी अजमेरा को प्राप्त हुई।" इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी प्रथम चातुर्मास में अजमेर में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की आज्ञा एवं अनुमति से ज्ञान-ध्यान-साधना करते थे। इस सम्बन्ध में आपकी अनन्य भक्त श्रीमती मनोरमा पाटनी। अजमेर ने एक संस्मरण सुनाया। गुरु आज्ञा से साधना में लीन "जैसे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज अपने नियम के पक्के और अनुशासन के पक्के थे। ऐसे ही उनके शिष्य मुनि विद्यासागर जी भी बन गए थे। हमने कई बार मुनि विद्यासागर जी को आतेड़ की छतरियों में घण्टों-घण्टों सामायिक करते सुना और देखा है। आतेड़ की छतरियाँ उस समय शहर से ४-५ कि.मी. दूर जंगल में पहाड़ियों से घिरी हुई थीं। १-२ बार गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने मेरे पतिदेव (पदमचंद जी पाटनी) को कहा- विद्यासागर को शीघ्र बुलाकर लाओ। तो विद्यासागर जी छतरियों की ओर से आते हुए मिलते थे। उनको बोला- ‘गुरु महाराज ने आपको बुलाने के लिए कहा था। तो मुनि विद्यासागर जी बोले- मैं तो समय पर पहुँच जाता हूँ। आप लोग ढूँढा मत करो। मैं गुरुजी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूँ।' आने के बाद मेरे पतिदेव ने गुरु महाराज को निवेदन किया कि विद्यासागर जी महाराज का कहना था कि मैं तो समय पर पहुँच जाता हूँ आप लोग ढूढ़ा मत करो, मैं गुरु जी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूँ, तब गुरु ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘आप लोगों को कैसे पता चलेगा विद्यासागर कैसी साधना कर रहे हैं, उनको देखोगे तभी तो पता चलेगा इसलिए मैं बोल देता हूँ।" इस तरह मुनि विद्यासागर जी की दीक्षा लेने के बाद गुरु ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा नित्य प्रति समयसार ग्रन्थ का स्वाध्याय करने से भाव विशुद्धि बढ़ गई तथा भावलिंगी साधु की सच्ची साधना में लीन हो गए और उनकी एकान्त साधना की रुचि बता रही थी कि वो जैसे परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा बताई गई शुद्धोपयोग दशा को अनुभूत करना चाह रहे हों। उस उत्कृष्ट भावदशा को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. आदिम-घाटी को ही पार कर रही है, घाटियों की परिपाटी प्रतीक्षित है अभी! और...सुनो! आग की नदी को भी पार करना है तुम्हें, वह भी बिना नौका! हाँ? हाँ !! अपने ही बाहुओं से तैर कर, तीर मिलना नहीं न हैं बिना तेरे। इस पर कुम्भ कहता है, कि ‘‘जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में। निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़ना ही चाहिए। अन्यथा, वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।” कुम्भ की ये पंक्तियाँ बहुत ही जानदार असरदार सिद्ध हुईं..। Is only crossing over the primitive valley, The series of the valleys is still awaited! And...listen ! You have to pass through even the river of fire, And that too without a boat ! Yes! O yes !! Swimming off with your own strength of arms, The coast can't be reached without swimming." On hearing this, the pitcher adds, that “Before the deep-insight of the devotee No difference does remain Between the water and the inflammable fire. The journey towards perfect ascetic devotion Proceeds, all along and ought to proceed, Indeed From diversity to unity From the perceptible to the imperceptible Otherwise, That journey is merely worth its name The journey has not yet been commenced.” These few lines of the pitcher Proved to be very vital Very impressive....
  15. धरती के कण ये तरसने लगे। यूँ, पूरा का पूरा माहौल डूब गया, परसन में, दरशन में, हरसन में और तरसन में ! स्वस्थ अवस्था की ओर लौटते कुम्भकार को देख कुम्भ ने कहा, कि परीषह-उपसर्ग के बिना कभी स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी त्रैकालिक सत्य है यह! गुप्त-साधक की साधना-सी अपक्व-कुम्भ की परिपक्व आस्था पर आश्चर्य हुआ कुम्भकार को, और वह कहता है- ‘‘आशा नहीं थी मुझे कि अत्यल्प काल में भी इतनी सफलता मिलेगी तुम्हें। कठिन साधना के सम्मुख बड़े-बड़े साधक भी हाँपते, घुटने टेकते हुए मिले हैं यहाँ अब विश्वस्त हो चुका हूँ पूर्णतः मैं, कि पूरी सफलता आगे भी मिलेगी, फिर भी, अभी तुम्हारी यात्रा These particles of Earth feel desirously eager, Thus, the whole of the surroundings drown Into contacts, into visits, Into rejoicings and keen eagerness ! On seeing the Artisan regaining His healthy condition, the pitcher said, That The attainment of heaven and final ‘Salvation’ Has never been nor shall be achieved Without severe vexations and calamities (Parişaha and Upasarga) It is an eternal truth ! At the mature Faith of an immature pitcher Which appears like the tacit devotion of an ascetic devotee The Artisan feels amazed, And he says- “I don't expect that You shall be so successful Within such a short period. Before the hard and perfect devotion Even the eminent devotees too Have been found here Breathing heavily, while kneeling down on their knees ! Now I am fully confident, That The complete success would be achieved in future also, Even then, your journey now onwards-
  16. योगी को आमन्त्रित करना है मन्त्रित करना है बाहर आने को ! निजी-निजी नीड़ों को छोड़ बाहर आ वन-बहार निहारता पंछी-दल की चहक भी चाह के अभाव में शिल्पी के कर्मों को तरंग-क्रम से जा छू नहीं सकी और शून्य में लीन हो गया वह ! यानी, श्रवणीय चहक के ग्राहक नहीं बने शिल्पी के कर्ण वह। ऐसी विशेष स्थिति में दूरज हो कर भी स्वयं रजविहीन सूरज ही सहस्रों करों को फैला कर सुकोमल किरणांगुलियों से नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी शिल्पी की पलकों को सहलाता है। इस सहलाव में शिल्पी को अनुभूत हुआ माँ की ममता का मृदु-स्नेहिल परस। आँखें विस्फारित हुईं हुआ अपार क्षमता का सदन आलोकधाम दिनकर का दरश। दूर से दरश पा कर भी लोचन हरस से बरसने लगे, और इथर... भक्ति के धवलिम कणों में स्नपित-शान्त होने The ascetic is to be invited He is to be enchanted for coming out ! Leaving behind their respective nests, Beholding the bloom of forest while coming out, Even the warbling of the flock of birds While running in the series of waves Couldn’t touch the ears of the Artisan, In absence of their eagerness, And It drowned into the empty Space. That is, Those ears of the Artisan Did not become the receivers of the audible warbling. In such a special situation In spite of being at a long distance The dustless Sun itself, indeed, Having extended his thousand-fold hands Tickles the eyelids of the Artisan, Like the closed petals of a lotus, With his tender beam-fingers. Through this tickling, the Artisan feels, The sweet-loving touch of a mother's sense of ownness. The eyes are gaped wide wonder-struck The glimpse of the abode of light, the Sun, Becomes the home of unlimited capabilities. In spite of viewing from a long distance The tears of joy roll down from the eyes, And hither… For bathing and being pacified. Into the bright drizzle of devotion
  17. नया योग है, नया प्रयोग है नये-नये ये नयोपयोग हैं नयी कला ले हरी लसी है नयी सम्पदा वरीयसी है नयी पलक में नया पुलक है नयी ललक में नयी झलक है नये भवन में नये छुवन हैं नये छुवन में नये स्फुरण हैं। यूँ, यह नूतन परिवर्तन हुआ तथापि, इसका प्रभाव कहाँ पड़ा- मौन-आसीन शिल्पी के ऊपर, मन्द-मन्द सुगन्ध पवन बह-बह कर भी वह अप्रभावक ही रह्य। शिल्पी के रोम-रोम वे पुलकित कहाँ हुए ? अपरस को परस वह प्रभावित कब कर सकता...? शिल्पी की नासा तक पहुँच कर भी गुलाब की ताजी महक वह उसकी नासा को जगा न सकी। भोगोपभोग की ये वस्तुएँ ...जब भोग-लीन भोक्ता को भी तृप्त नहीं कर पाती हैं। फिर...तो...यहाँ- It is new association, new experiment These are new and newer usages of the standpoints The novel art has befitted with the greenery The new prosperity is more superior There is a new thrill into new eyelids There is a new glimpse into a new longing There are new touches, into the new mansions Into the new touches, there are new throbbings. Thus, this novel change occurs Even then, Where does it leave its impact – Upon the silently seated Artisan, That soft fragrant breeze In spite of blowing constantly, Remains ineffective. Where do the rows of hair over the body Of the Artisan feel thrilled ? When can that touch Influence the untouched...? The fresh fragrance of the rose, Despite reaching the nostrils of the Artisan, Can't wake up his nasal sense These things of worldly enjoyments and luxuries ... When Can't satisfy Even a pleasure-seeking enjoyer Then...indeed...hither -
  18. कलियाँ खुल खिल पड़ीं पवन की हँसियों में, छवियाँ घुल-मिल गईं गगन की गलियों में, नयी उमंग, नये रंग अंग-अंग में नयी तरंग नयी ऊषा तो नयी ऊष्मा नये उत्सव तो नयी भूषा नये लोचन-समालोचन नया सिंचन, नया चिन्तन नयी शरण तो नयी वरण नया भरण तो नयाऽऽभरण नये चरण-संचरण नये करण-संस्करण नया राग, नयी पराग नया जाग, नहीं भाग नये हाव तो नयी तृपा नये भाव तो नयी कृपा नयी खुशी तो नयी हँसी नयी-नयी ये गरीयसी। नया मंगल तो नया सूरज नया जंगल तो नयी भू-रज नयी मिति ती नयी मति नयी चिति ती नयी यति नयी दशा ती नयी दिशा नहीं मृषा तो नयी यशा नयी क्षुधा तो नयी तृषा नयी सुधा तो निरामिषा Being unfolded, the buds get blossomed With the laughters of the winds, Their splendours mix-up together In the lanes of the sky, A new rapture, new colours A new wave in each of the limbs A new dawn, hence a new energy The fresh celebrations, hence fresh adornments, The new eyes with new reviews A fresh sprinkling of water a fresh thinking A fresh shelter hence a fresh selection A new dieting with new decorations The new steps, a fresh movement - The new rituals, the new purifications The new melody, the fresh pollen, A new awakening, no escaping The fresh gestures with fresh satisfaction The new feelings with new grace A fresh delight with fresh smiles Thus, new and fresh this gloriousness. The fresh welfare with the fresh Sun A new forest with fresh soil- A new time-limit with new understanding A new consciousness with a new guidance A new condition with a new direction No falseness, then a new fame A fresh hunger with a fresh thirst A fresh nectar, then, fresh vegetarianism
  19. २३-०३-२०१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) जगत् विख्यात साधु मंगल, उत्तम, शरण गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भावार्घ समर्पित करते हुए त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आज मैं विद्याधर के दादा भाई महावीर की वह मन:स्थिति बतला रहा हूँ। जब वो अजमेर से वापस अपने घर जाने लगे। तो वे दुःख एवं खुशी के मिश्रित भावों के साथ विदाई ले रहे थे और मन में होने वाली घर की परिस्थिति को यादकर सशंकित हो रहे थे। पता नहीं संभावना के गर्भ से खेद जन्म लेगा या खुशियाँ जन्म लेगीं। इस आन्दोलित मन से ही उन्होंने मुझे उस दिन का संस्मरण सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ विदाई में मिला आत्मकल्याण का संदेश "विद्याधर से बने विद्यासागर मुनि की दीक्षा देखकर दो दिन बाद मैं घर वापस आने लगा तो मैं मुनि विद्यासागर जी महाराज के पास गया। वे गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के पास में ही बैठे थे। मैंने पास में बैठकर दोनों महाराज को नमोस्तु किया। तब मेरी आँखों में आँसू आ गए। मन व्याकुलित था। मैंने मुनि विद्यासागर जी से कहा- मैं जा रहा हूँ। तब उनकी मधुर आवाज मेरे कानों में गूँजी वो कह रहे थे- ‘जो मैंने कहा है, उस पर विशेष ध्यान रखना। इसी मुनि भेष से ही जीवन को अन्तिम विदाई देना। मुनि बनकर ही भव से पार होना है। और माता-पिता को भी धर्म साधना की बात कहना। अन्तिम समय समाधिमरण करके भव सुधारना। ऐसा सभी के लिए मेरा भाव व्यक्त कर देना। फिर बोले-गुरु महाराज से आशीर्वाद ले लो।' तब पास में बैठे गुरु महाराज ज्ञानसागर जी को मैंने नमोस्तु किया और कहा-मैं जा रहा हूँ। तब महाराज बोले- ‘आत्मकल्याण की ओर ध्यान रखना और सभी को धर्ममार्ग पर लगाए रखना एवं विद्यासागर जी ने जो कहा है, उस पर विशेष ध्यान रखना।’ यह अमृत उद्बोधन पाकर मैं और मल्लू (चचेरे भाई का बेटा) सदलगा वापस आ गए।'' इस तरह विद्याधर के दादा भाई महावीर जी भारी मन से सजल नेत्रों से रूँधे हुए गले से विदाई लेकर रेलगाड़ी में बैठ तो गए, किन्तु रास्ते भर विद्याधर की बचपन की बातें आपस में चचेरे भाई से करते हुए दो रात्रि-दो दिन करते रहे। एक पल को भी यदि झपकी लगती तो स्वप्न में विद्याधर या विद्यासागर की झाँकी दिखती। जब वो घर पहुँचे तो मन सशंकित था कि पिताजी बहुत नाराज होंगे... किन्तु परिवार जन की जो मनःस्थिति बनी उसको सुनकर आप समझ जायेंगे कि आपके लाड़ले शिष्य विद्यासागर आसन्न भव्य परिवार के हैं। जैसा मुझे महावीर जी ने बताया वही मैं आपको ज्यों का त्यों बता रहा हूँ... सदलगा में खेद-पछतावा-धैर्य-स्वर्णिम उमंग-उत्साह “अजमेर से जाते समय परिवार जनों को दीक्षा महोत्सव की झाँकी दिखाने के लिए फोटो लेकर गया। रास्तेभर उन फोटो को देखते रहे, मल्लू से अजमेर की या पुरानी बातें करते हुए दो दिन रात कैसे गुजर गए पता नहीं चला, थोड़ी निद्रा आई भी तो स्वप्न में विद्याधर की घटनाएँ दिखती रहीं। सदलगा पहुँचकर जैसे ही हमने दीक्षा की फोटो दिखाई, घर के सभी लोगों ने चित्रों को माँथे से लगाया फिर देख-देखकर रोने लगे। पिताजी बहुत खेदखिन्न हुए आँखों में आँसू भर आए बोले-मैं क्यों नहीं गया, मुझको जाना चाहिए था, मेरे प्यारे बेटे ने वह कार्य कर दिखाया जो मैं नहीं कर सका था, मेरे पिताजी मुझे पकड़कर ले आए थे। मैं विद्याधर को रोक नहीं रहा था, उम्र छोटी होने के कारण और उससे अत्यधिक प्यार होने के कारण चाहता था कि कुछ दिन घर पर ही साधना कर ले... लेकिन वह तो बिना बताए ही चला गया और मैं, मोह के कारण दीक्षा के उत्सव में नहीं गया... मेरे कारण घर के सदस्य भी नहीं जा सके मुझे धिक्कार है...। फिर थोड़ी देर बाद अपने आप को सम्भालते हुए बड़े शान्त भाव से बोले-अपन सभी अजमेर चलेंगे, चौका लगायेंगे, आहार दान देंगे और मेरे से बोले ५-१० दिन में खेती-बाड़ी का सब काम कर लो और चौके की सभी लोग तैयारी करो। तब बहुत रोई । पिताजी समझाते हुए बोले-जो होना था सो हो गया और यह तो पहले से ही लग रहा था कि यह घर में नहीं रुकेगा। तुमने जिसकी भक्ति करके उस लाड़ले को प्राप्त किया था, उसी भक्ति का यह प्रताप है । हम धन्य हुए। फिर मुझसे बोले-तुमको गृहस्थाश्रम अच्छे से सम्भालना है। तो मैंने कहा-विद्यासागर मुनि महाराज ने भी यही बोला है। यह कैसा संयोग है ? तब हमने अजमेर पहुँचने का और बिन्दोरी का जुलूस, दीक्षा महोत्सव एवं पारणा के उत्साह के बारे में सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया। सुनकर सभी लोग बड़े प्रसन्न हुए और नहीं जा पाने के कारण खूब रोये। तब दादी माँ बोली-मेरा पोता इतनी कम उम्र में कैसे मुनिव्रत धारण किया। तूँने मना नहीं किया। अब मुझे दर्शन करने की बहुत उत्कण्ठा हो रही है, लेकिन मेरा दुर्भाग्य है इस जर्जर अवस्था में उनके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे। तो पिताजी बोले-आपका स्वास्थ्य ठीक हो जाये तो लेकर चलूँगा। छोटे भाई-बहिन भी शीघ्र जाने के लिए कहने लगे। तैयारियाँ शुरु हो गईं। तैयारी ऐसी हो रही थीं मानो दीवाली आ गई हो। बड़े ही उमंग एवं उत्साह के साथ हम सभी तैयारी में लगे हुए थे। पिताजी ने विद्याधर की सोने की चैन एवं अंगूठी जो वो पहनते थे। उसको ले जाकर सुनार के यहाँ गलवाकर १०८ स्वर्ण पुष्प बनवाये थे। उन पुष्यों से महाराज की पूजा करने के लिए साथ में ले गए थे। मेरे आने का समाचार पाकर सभी कुटुम्बीजन और ग्रामवासी, समाजजन घर पर आ-आ करके विद्याधर के बारे में पूछने लगे। मैं उन सबको सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाता । तो सभी लोग बड़े आश्चर्यचकित होकर सुनते । खुश होते और यही कहते तुम लोग तो सभी धन्य हो गए और हम लोग भी धन्य हो गए जो ऐसे महापुरुष के गाँव में जन्म लिया। विद्याधर के मित्रगण भी आकर के मिले सभी लोग आश्चर्य कर रहे थे और उनकी" इस तरह सदलगा में सभी के जीवन में एक परिवर्तन आया और हम सभी श्रद्धा-भक्ति के साथ अपने मुनि महाराज के दर्शन-पूजन-भक्ति-सेवा करने अजमेर पहुँच गए। धन्य हैं, ऐसे भव्यात्मा को प्रणाम | आपका शिष्यानुशिष्य
  20. ‘‘दोनों हाथ कुछ ऊपर उठा एक पद धरती पर निश्चल जमाते। एक पद पीछे की ओर खींच एड़ी के बल से गेंद की ठोकर दे कर बालक ज्यों देखता रह जाता,” पवन देखता रह गया। अब क्या पूछो! बादल दल के साथ असंख्य ओले सिर के बल जा कर सागर में गिरते हैं एक साथ, पाप-कर्म के वशीभूत हो कर भयंकर दुःखापन्न नरकों में गोलाटे लेते शठ-नायक नारक गिरते ज्यों। इधर... कई दिनों के बाद, निराबाध निरभ्र नील-नभ का दर्शन। पवन का हर्षण हुआ उत्साह उल्लास से भरा सौर-मण्डल कह उठ, कि- ‘‘धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, और हम सबकी धरती में निष्ठा घनी रहे, बस।'” अणु-अणु कण-कण ये वन-उपवन और पवन भानु की आभा से धुल गये हैं। Having raised both his hands a bit up While planting one of his feet durably on the Earth. Having pulled one of his legs backwards, Having Kicked the ball like a boy, By dint of his heel – Who stands aloof wonder-struck So, the wind remains an on – looker. Now, it how wonderful ! Countless frozen drops of water, along with the band of clouds Moving fast headlong , Fall together Into the ocean, As the villainous hell-dwellers fall down, – Leaping into the infernal regions -On being subjugated by their sinful deeds -On being entangled with horrible agonies. Hither... After so many days, A glimpse of the unhindered cloudless blue sky. Infused with jubilance into the wind Filled with joy and zeal, The Solar Sphere speaks out, that – “ The dignity of the Earth should endure, and The faith of all of us Should only flourish deeply into the Earth.” Each and every atom, each and every particle The forests, gardens and the winds - All these have been purged with the lustre of the Sun.
  21. आकुलित करेगी क्या ? सब कुछ खुलेगी-खिलेगी उसके सम्मुख...अविलम्ब ! यूँ प्रासंगिक कार्य ज्ञात होते ही, उसे सानन्दं सम्पादित करने पवन कटिबद्ध होता है तुरन्त। कृतज्ञता ज्ञापन कराता धरा के प्रति, प्रलय-रूप धारण करता हुआ रोष के साथ कहता है, कि ‘अरे पथभ्रष्ट बादलो! बल का सदुपयोग किया करो, छल का न उपभोग किया करो! छल-बल से हल नहीं निकलने वाला कुछ भी। कुछ भी करो या न करो, मात्र दल का अवसान ही हल है, और वह भी निकट-सन्निकट!" मति की गति-सी तीव्र गति से पवन पहुँचता है नभ-मण्डल में, पापोन्मुखों में प्रमुख बादलों को अपनी चपेट में लेता है, घेर लेता है और उनके मुख को फेर देता है जड़ तत्त्व के स्रोत, सागर की ओर... ! फिर, पूरी शक्ति लगा कर उन्हें ढकेल देता है- Make agitated ? Everything shall unfold and blossom itself Before it...without delay! Thus, the relevant work being really known, The wind girds up its loin at once To get it accomplished joyfully. Making others express their gratitude for the Earth -While assuming the form of final destruction, Tells with a sense of wrath – "O thou wayward clouds ! Try to make good use of your strength, You shouldn't take advantage of knavery ! No solution can be attained Through the force of fraud. You may do a thing or not, The solution is only the end of grouping, And that too At close and closest quarters !” With the fastest motion like that of intellect The wind reaches the higher sky sphere, And takes the chief among the sinful clouds Into its clutches, encircles them And Changes the direction of their facets Towards the source of inanimate matter, the ocean...! Then, with its full forces Pushes them down -
  22. २२-०३-२०१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) उन्नत ललाट पर चिंतन की रत्नत्रयी समान्तर रेखाओं में ब्रह्मतेज के धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल विनय वंदन करता हूँ...। हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने आचार्य देशभूषण जी महाराज को क्यों छोड़ा ? इस रहस्य को मैं आज आपको बता रहा हूँ। जैसा विद्याधर के दादा भाई महावीर ने बताया ऐसे हुई श्रेष्ठ गुरु की खोज दीक्षा के दूसरे दिन दोपहर में मैं मुनि श्री विद्यासागर जी के पास गया। कन्नड़ भाषा में वार्तालाप की। मैंने पूछा-आपने आचार्य देशभूषण जी महाराज को क्यों छोड़ा ? तब वो बोले- '१३-१४ माह मैं महाराज के साथ रहा। सेवा की, लेकिन ज्ञानार्जन तो कुछ कर ही नहीं पाया। चूलगिरि, जयपुर से गोम्मटेश्वर के लिए विहार हुआ। महाराज के साथ विहार में रहा। तब मुझे रास्ते में आचार्य महाराज ने संघ की व्यवस्था का दायित्व सौंप दिया। मुझे पैसों का पूरा आय-व्यय का हिसाब रखना पड़ता था। तो में इसी में लगा रहता था। स्वाध्याय एवं साधना का समय ही नहीं मिलता था। तब एक दिन मन में विचार आया। मैंने घर किसलिए छोड़ा था। संसार की झंझटों से बचकर आत्मकल्याण की भावना मन में ही रह गई। तब हमने विचार कर निर्णय लिया कि ज्ञान प्राप्ति के लिए हम कोई योग्य श्रेष्ठ गुरु को खोजेंगे। जब मैं जयपुर से अजमेर संघ के साथ आया। तब मेरी कई बार अजमेर के एक ब्रह्मचारी जी से बात हुई। उन्होंने मुझे बता दिया था कि आपकी ज्ञानार्जन की भूख पूज्य मुनि ज्ञानसागर जी महाराज शान्त कर सकते हैं। वो बड़े ही ज्ञानी हैं। उन्होंने आचार्य वीरसागर जी महाराज एवं आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघस्थ मुनि एवं आर्यिकाओं को पढ़ाया है- स्वाध्याय कराया है और संस्कृत के कई ग्रन्थ लिखे हैं। वो महान्। ज्ञानी हैं। सरल स्वभावी हैं। निर्दोष आगम की चर्या करते हैं। कोई परिग्रह आदि नहीं रखते हैं। इतना मैंने उनसे सुना था। तो मैं स्तवनिधि से सीधे मुनि ज्ञानसागर जी गुरु महाराज के पास आ गया।' तब मैंने पुनः प्रश्न किया। आपके पास पैसे तो थे नहीं, फिर आपके पास पैसे कहाँ से आए ? तो उन्होंने बताया कि मेरे पास कुछ पैसे जो आपने पहले दिए थे वो रखे हुए थे और कुछ पैसे मैंने मित्र मारुति से लिए थे।’ मैंने पूछा कि आप यहाँ तक कैसे पहुँचे? तो उन्होंने बताया-‘स्तवनिधि से बस से कोल्हापुर आया और कोल्हापुर से ट्रेन से बम्बई गया। फिर बम्बई से ट्रेन से अहमदाबाद आया। फिर वहाँ से अजमेर की ट्रेन मिली और मैं अजमेर आ गया।' तो मैंने पूछा-आपको कितने दिन लगे ? बोले-'तीन दिन लगे।' तो मैंने पूछा-रास्ते में भोजन पानी ? बोले-'२ उपवास हो गए।' इस तरह कठिन पुरुषार्थकर विद्याधर विद्यासागर मुनि महाराज बने। आत्मकल्याण की तीव्र। जिजीविषा देख मुझे संतोष हुआ कि उन्होंने सही मार्ग चुना है।" इस प्रकार ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने श्रेष्ठ गुरु की खोज में कठिन पुरुषार्थ किया और मनचाहा वरदान प्राप्त कर लिया। धन्य हैं ऐसे पुरुषार्था जो महापुरुष बन गए। उनके श्री चरणों में नमोस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. जो औरों से क्या, अपने शरीर की ओर निहारते नहीं। कुछ पल खिसक गये, कि फूल का मुख तमतमाने लगा। क्रोध के कारण, पाँखुरी-रूप अधर-पल्लव फड़फड़ाने लगे, क्षोभ से, रक्त-चन्दन आँखों से वह ऊपर बादलों की ओर देखता है- जो कृतघ्न कलह-कर्म-मग्न बने हैं, हैं विघ्न के साक्षात् अवतार, संवेगमय जीवन के प्रति उद्वेग-आवेग प्रदर्शित करते, और जिनका भविष्य भयंकर, शुभ-भावों का भग्नावशेष मात्र! भिन्न-भिन्न पात्रों को देख कर भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ यह जो फूल का वमन-नमन परिणमन हुआ, हुआ वर्तन-परिवर्तन, उतना ही पर्याप्त हुआ पवन के लिए। हूँ! हाँ !! अनुक्त भी ज्ञात होता है अवश्य उद्यमशील व्यक्ति के लिए फिर..तो... संयमशील भक्ति के लिए किसी भी बात की अव्यक्तता Who, what, to talk of others, Doesn't look even at his own body. Some seconds slip away, when The face of the flower Grows red with anger; The petal-like lips of leaves Flutter, with anguish; With the reddish-yellow eyes – It looks up at the clouds - Which, being ungrateful, Are drowned into the deeds of disputes; Which are the visible-procreations of hindrances Which display excitement and anxiety Towards the life of good emotions, And Whose future, a horrible one, Is only a wreckage of sublime sentiments ! Having seen the different characters Along with the different modes of feelings The vomitings, salutations, transmutations! The turning and changing, Of the flower, as such Is sufficient really for the wind. Yes! Yes !! Even the unsaid too is certainly known To a diligent person Then...indeed… For the devotion with self-control Shall the indistinctness of anything....
  24. २१-०३–२०१६ खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः) दर्शन का प्रदर्शन दिगम्बर रूपधारी गुरुवर द्वय के चरणों में त्रिकाल त्रिभक्ति पूर्वक नमोस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आज मैं आपको वह बात बताने जा रहा हूँ। जो मन को कातर बनाती है। जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा का समाचार सदलगा परिजनों के पास पहुँचा और वहाँ जो स्वाभाविक स्थिति बनी। इस सम्बन्ध में विद्याधर जी के अग्रज भाई महावीर जी ने मुझे ०९-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बताया। सो मैं आपको बता रहा हूँ अजमेर से टेलीग्राम सदलगा पहुँचा "२६ जून को टेलीग्राम घर पर आया। वह अंग्रेजी में था- ‘Viddyadhar Muni Deeksha going on 30 jun 1968' यह टेलीग्राम पढ़कर हमने माता-पिता को बताया तो तुरन्त ही पिताजी नाराज हो गए। घर में अशान्ति फैल गई। माँ एवं हम सभी भाई-बहिन रोने लगे। काफी देर तक यह स्थिति बनी रही। किसी ने भी भोजन-पानी नहीं किया, क्योंकि विद्याधर से सभी को अत्यधिक प्रेम था। अड़ोस-पड़ोस के लोगों को पता चला। तो वो सब ढाँढस बँधाने के लिए आ गए। पिताजी कहने लगे कि मैं नहीं जाऊँगा तो उसकी दीक्षा नहीं होगी। इस कारण घर से किसी ने भी जाने का विचार नहीं बनाया। तब ऐसी स्थिति में मैंने विचार किया कि विद्याधर का ज्ञान और दिनचर्या से तो लगता है कि वह वैराग्यमार्ग में बढ़ेगा, रुकने वाला नहीं है अत: मुझे जाना चाहिए। एक बार तो उसको मनाऊँगा। नहीं मानेगा तो अपनी आँखों से उसकी दीक्षा तो देखूँगा। यह सोचकर हमने बिना बताये जाने का विचार बनाया। उस वक्त मैं २५ वर्ष का था और कर्नाटक से बाहर महाराष्ट्र में आस-पास ही गया था। अत: इतनी लम्बी यात्रा कैसे की जाए ? यह सोचकर हमने अपने चचेरे भाई के लड़के मल्लू को तैयार किया और इचलकरंजी के व्यापारी जो अजमेर के रहने वाले थे। उनसे पूछा-तो उन्होंने अजमेर जाने के लिए उपाय बताया और सोनी जी की नसियाँ का पता बताया। मैं मल्लू को लेकर गुप्तरूप से घर के बाहर निकल गया और अजमेर २९ जून को शाम को ८ बजे पहुँचा। जब मैं अजमेर पहुँचा तब सोनी नसियाँ को ढूढ़ते हुए, मैं और मल्लू सीधे नसियाँ के पास वाले तिराहे पर पहुँचे। वहाँ बहुत भीड़ थी। शाम के ८:३० बज रहे थे और कोई जुलूस निकल रहा था। तब हम दोनों एक दुकान के चबूतरे पर चढ़कर जुलूस को देखने लगे। तब एक सज्जन से पूछा-यह क्या है ? तब उन्होंने बताया-यह बिन्दोरी निकल रही है। हम इसका मतलब समझ नहीं पाये। रंग-बिरंगे जलते हुए ट्यूबलाईट एवं गैस बत्ती के लैम्प सड़क के दोनों ओर लिए लोग चल रहे थे। घोड़े एवं हाथियों पर लोग बैठे हुए, बग्घियों पर सजे हुए लोग बैठे हुए, ऊँट, ढोल, नगाड़े, कई बैण्ड पार्टियाँ और नाचते हुए तरह-तरह के युवाओं की टोलियों को देखकर लगा कि किसी राजा-महाराजा के बच्चे की शादी है। आगे ६ हाथी निकले और जैसे ही आखिरी सातवाँ हाथी निकला उस पर हमने विद्याधर को देखा, देखते ही उसको पहचान लिया। वह सफेद धोती-दुपट्टा पहने हुए थे और सिर पर सोने-चाँदी का गोल मुकुट चमक रहा था। गले में तरह-तरह की मालाएँ चमक रही थीं। तब भारी भीड़ में मैं भी घुस गया और नाचते हुए युवाओं के बीच में मैं भी नाचने लगा। तभी विद्याधर की दृष्टि मेरी गाँधी टोपी पर पड़ी और उन्होंने मुझे पहचान लिया। तब उनके पीछे बैठे श्रीमान् पण्डित विद्याकुमार जी सेठी को उन्होंने इशारा करके बताया। तब पण्डित जी साहब के कहने से लोगों ने मुझे उठाकर हाथी पर चढ़ा दिया और मैं पण्डित जी के पीछे बैठ गया। तब पण्डित जी बोले-५-७ मिनिट पहले ही हमने ब्रह्मचारी जी से कहा था कि आपके घर से कर्नाटक से कोई नहीं आया ? किन्तु आप आ गए, बड़ी खुशी की बात है। जब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को पता चलेगा तो वे बहुत खुश होंगे। समाज में भी प्रसन्नता आ जायेगी। धीरे-धीरे जुलूस सोनी नसियाँ पर जाकर समाप्त हुआ। फिर सीधे गुरु महाराज के पास जाकर सभी ने दर्शन किए। तब पण्डित विद्याकुमार जी सेठी ने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को मेरा परिचय दिया-महाराज ये विद्याधर के बड़े भाई सदलगा से आ गए और चचेरे भाई का लड़का भी आया है। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने हँसते हुए सिर पर पिच्छी लगाकर आशीर्वाद दिया। तब विद्याकुमार जी ने पूछा-‘माताजी-पिताजी नहीं आए?' तो हमने कहा-हाँ वो नहीं आ पाए। फिर हमको समाज के लोग ले गए। दूसरे दिन सुबह ७ बजे मैं गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास दर्शन हेतु गया। तब वहाँ विद्याधर जी बैठे हुए थे। मुझको देखकर गुरुदेव ज्ञानसागर जी बोले-‘क्यों महावीर! विद्याधर को लेने आए हो?' तो मैंने कहा-हाँ! मुझे माता-पिता ने इसी के लिए भेजा है। आप विद्याधर को मेरे साथ घर भेज दीजिए। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी बोले-'तो विद्याधर से पूछ लो जाना चाहे तो ले जाओ।' तभी मैंने विद्याधर को कन्नड़ भाषा में बड़े प्यार से समझाया-देखो भाई! घर पर दादी माँ, माता-पिता और भाई-बहिन सभी दु:खी हैं। जब से सुना है माँ तो तभी से रो रही है। पिताजी को आप जानते हैं। वे बहुत व्यथित हैं। दोनों छोटे भाई और बहिनें भी रो रहे हैं। दादी की स्थिति तो बहुत खराब है, वह तो दिन-रात ही विलाप करती रहती है और सारे कुटुम्बीजन भी आ-आकर कहते हैं कि विद्याधर को लेकर आओ। थोड़ा विचार करो, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? घर पर रहकर खूब धर्म करो, स्वाध्याय करो, साधना करो। आपको तो वैसे भी कोई मना नहीं करता। इसलिए एक बार माता-पिता के पास चलो फिर निर्णय लेना। तब विद्याधर बोले- ‘देखो भाई! मैं पिताजी का स्वभाव जानता हूँ और मैं आपके भरोसे ही निकला हूँ, क्योंकि आप घर के मुखियाँ हैं इसलिए माता-पिता का ध्यान रखना और सेवा करना तथा दोनों भाईयों व दोनों बहिनों को अच्छे ढंग से पढ़ाना-लिखाना और ध्यान रखना अंत में इसी मुनि भेष से ही इस जीवन को अन्तिम विदाई देना है। मुनि बनकर ही इस भव से पार होना है। विद्याधर का यह निर्णय सुनकर मैं मौन रह गया। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने मुझसे कहा-'भैया हर जीव अपने आत्मकल्याण के लिए स्वतंत्र है।' तब विद्याधर जी समाज वालों के साथ बिन्दोरी के लिए चले गए और गुरु महाराज ने पुन: पूछा-‘माता-पिता क्यों नहीं आए ? क्या उनकी सहमति लेकर आए हो ? या विद्याधर को ही लेने आए हो ? जो भी बात करनी है उससे कर लो। हमने कहा-वह तो आपके सामने ही जाने को मना कर रहा है। आप एक बार घर भेज दीजिए। तब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी ने कहा- ‘हमने उसे एक बार कहा था कि माता-पिता से मिल आओ, अनुमति ले आओ। तो उसने मुझसे कहा-घर जाने पर अनुमति नहीं मिलेगी। मुझे तो अपना आत्मकल्याण करना है। सो मैं आपके पास आ गया हूँ।' यह सुनकर मैं हाथ जोड़कर नमोस्तु करके बाहर आ गया। दोपहर में मुझे सभा के अन्दर मंच पर बुलाया गया और दो शब्द बोलने के लिए ५ मिनिट दे दिए गए लेकिन मुझको मारवाड़ी या हिन्दी का ज्ञान नहीं था और समाज जनों को कन्नड़ समझ न पड़ती तब विद्याधर जी ने हमारी सहायता की थी। वही हमने टूटी-फूटी हिन्दी में बोला था, कुछ-कुछ भाव स्मरण में इस प्रकार है-‘मुनि दीक्षा लेने की खुशी विद्याधर को है और आप सभी को है, परन्तु हमको नहीं है। हमारा भाई हमसे दूर हो जायेगा लेकिन मुनि बनना तो बहुत अच्छा है, बनना ही चाहिए। हम परिवार की ओर से क्षमा माँगते हैं। जय जिनेन्द्र।' इसके बाद विद्याधर जी ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से दीक्षा का निवेदन किया। श्रीफल चढ़ाकर नमोस्तु किया और आशीर्वाद लेकर 'नमः सिद्धेभ्यः' बोलकर केशलोंच करना प्रारम्भ कर दिया। मेरे मंच पर खड़े-खड़े देखते हुए आँसू आने लगे। मुझको देखकर बहुत सारे लोगों की आँखे भर आईं, रोने लगे । विद्याधर ने लगभग-एक डेढ़ घण्टे में ही सिर, दाढ़ी-बूंछ के बड़े-बड़े धुंघराले काले बाल उखाड़कर फेंक दिए। उसके बाद गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ने संस्कार किए। पिच्छी-कमण्डलु प्रदान किए, उसके बाद नामकरण किया। नामकरण सुनते ही मेरा ध्यान माँ की बोली पर गया। माँ बोला करती थी कि महामुनि विद्यासागर जी महाराज अक्किवाट की भक्ति का प्रतिफल है विद्याधर और आज यह कैसा संयोग बना? कि गुरुदेव ने इनका नाम भी विद्यासागर ही रख दिया। विद्यासागर की भक्ति ने विद्याधर को बनाया विद्यासागर।" इस तरह अग्रज भाई महावीर जी ने हृदय को बड़ा कठोर करके अपनी ओर से अनुमति प्रदानकर आपका और विद्याधर का मार्ग सुलभ कर दिया था। महान् गुरु एवं महान् शिष्य को प्रणाम करता हुआ.... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. कुछ क्षण मौन! फिर पवन ने कहा विनय के साथ कि ‘‘मुझे याद किया...सो कारण ज्ञात करना चाहता हूँ ....जिससे कि प्रासंगिक कर्त्तव्य पूर्ण कर सकूँ अपने को पुण्य से पूर सकूँ, और पावन-पूत कर सकें, बस और कोई प्रयोजना नहीं... हाँ! पर के लिए भी कुछ करूं सहयोगी-उपयोगी बनूँ यह भावना एक बहाना है, दूसरों को माध्यम बना कर मध्यम-यानी समता की ओर बढ़ने बस, सुगमतम पथ है, और औरों के प्रति अपने अन्दर भरी ग्लानि-घृणा के लिए विरेचन!'' पवन के इस आशय पर उत्तर के रूप में, फूल ने मुख से कुछ भी नहीं कहा, मात्र गम्भीर मुद्रा से धरती की ओर देखता रहा। फिर, दया-द्रवीभूत हो कर करुणा-छलकती दृष्टि फेरी सुदूर बैठे शिल्पी की ओर... Silence for some moments ! Then, the wind utters meekly, that "You remember me....therefore, I wish to know the reason thereof, ...So that I may perform the relevant duties May fill up myself with virtuous deeds, And Only sanctify myself, No other purpose is there... Yes ! I should do something for the others also May become co-operative, helpful, This sentiment is a pretext, To advance towards the ‘middle', that is, equanimity, By making good use of others as medium... Only, it is the easiest way, It acts as a purge for aversion and hatred With which we are filled for the others !” Upon this intention of the wind The flower doesn't say even a word, As a reply to it!, lt keeps on starting at the ground With a grave face only Then, Being melted by mercy It turns its eye full of pathos Towards the Artisan, sitting at a distance far off...!
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