लेखनी लिखती है कि
खेत लहलहाये तो
समझ लेना कृषक का पुरुषार्थ है,
शीतल पवन चले तो
समझ लेना नदी का तट है,
ज्ञान के पट खुलने लगे तो
समझ लेना गुरु का हाथ है।
आखिर कौन-सी ज्योति है गुरु के नयन में
जो हजारों मील दूर से ही
शिष्य के भाव पढ़ लेते हैं,
कौन-सी शक्ति है मन में
जो शिष्य की दुर्गम गतिविधियों को भी
वहीं से समझ लेते हैं।
गुरु छवि होती रवि-सी
हर कोई उस ताप को कहाँ सह पाता ?
बेचारा देख उन्हें ठगा-सा रह जाता
सोचकर जाता कि यह पूछृगा, वह पूछृगा
पर देखते ही उन्हें, प्रश्न कपूर-सा उड़ जाता।
सारे प्रश्नों के उत्तर हैं गुरुवर
इसीलिए तो अनुत्तर हैं गुरुवर
जल को गर्म करना है जल्दी तो ढक्कन ढक दो
फल को पकाना है जल्दी तो घास में रख दो
यहाँ कहती है शिष्य की मति
यदि शाश्वत आनंद पाना है जल्दी
तो सद्गुरु के चरणों में रह लो।
श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु को श्रद्धा से चुन लो।