लेखनी लिखती है कि
जैसे माँ बालक को
प्रत्येक वस्तु का नाम बतलाती
साथ ही उसकी उपयोगिता समझाती
वैसे ही आत्मा की अतलांत गहराईयों तक
आगम के आलंबन से ले जाकर
शुद्धाशुद्ध भावों का भान कराते हैं गुरु
अपने शिष्य को उसके आत्मजगत् में
उसकी ही प्रवृत्तियों का परिचय कराते हैं गुरु।
पर को अपना मान पनप रहा जो अभिमान
उसे आत्मीय बनकर मिटाते हैं
वस्तुओं को छुड़ाते नहीं
वास्तव में गुरु वस्तु का स्वरूप समझाते हैं
स्व-पर का शोधन कराते हैं,
पर को हटाते नहीं
तब शिष्य ही स्वयं हिताहित को जानकर
आत्महित में लगता है अहित को तजकर।
गुरु जानते हैं कि-
अमृत सींचने पर भी
आँवला आम बन नहीं सकता
मेंढ़क छाती फुलाकर भी शेर बन नहीं सकता
कितना ही चमके काँच
पर वह हीरा बन नहीं सकता
शिष्य भी अपना पुरुषार्थ न जगाये
तो मेरा निमित्त कुछ कर नहीं सकता।
इसीलिए भावलिंगी गुरुदेव श्रीविद्यासागरजी
अपूर्व कृपा करते हैं
पर कहते हैं मैंने कुछ किया नहीं,
अदभुत ज्ञान देते हैं
पर कहते हैं मैंने कुछ दिया नहीं,
धन्य है गुरु की निरीहवृत्ति
गुरु की निस्पृह प्रवृत्ति।