लेखनी लिखती है कि
मिटने वाले असत् स्वरूप का
बोध कराती है दुनिया
मिटने पर रोती है और रूलाती है दुनिया,
गुरु सत् स्वरूप का बोधकर
आत्म शक्ति का शोधकर
स्वयं जगते हैं, शिष्य की खोलते हैं अँखियाँ।
सोते से जागना कौन कहाँ चाहते ?
इसीलिए पहले जागृति का महत्त्व समझाते
पर से विरत, स्व में रत कैसे होना ?
जिसे भ्रम से अपना माना उसे कैसे खोना ?
गुरु सिखाते कुछ नहीं
स्वयं करके दिखाते हैं।
करते कुछ नहीं वास्तव में
करना ही मिटाते हैं,
फिर रह जाता सब कुछ सहज
शिष्य स्वयं में ही प्रभु को पाते हैं
इस प्रभु-मिलन में शिष्य
गुरु का ही उपकार मानते हैं।
वरना कौन किसकी करता परवाह
चाहे भरे आह या हो जाये तबाह
एक गुरु ही आत्मिक पीड़ा समझते हैं
शव समान शिष्य को शिव बना देते हैं
और देखो ना गुरु की महानता
इतना सब करने पर भी कहते हैं
गुरु मैं नहीं तुम्हारा किञ्चित् भी कर्ता
यही तो है गुरु की विशालता
जो जन्मों-जन्मों की तपस्या से हमें मिलते हैं
ऐसे ही श्रीविद्यासागरजी गुरुवर
हमें प्रभु के रूप में दिखते हैं।