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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. लेखनी लिखती है कि गुरु की शरण में जाकर शिष्य का पुण्य बढ़ने लगता है दुनिया की नजरों में वह उभरने लगता है, तब पुण्य की चपेट में आ जग ख्याति की चाह में भटक जाता है वह राह गुरु से श्रेष्ट बनने के चक्कर में जीवन कर देता हैं तबाह | वह स्वल्प पुण्य में तृप्त हो एकाकी होना चाहता है गुरु की पारखी द्रष्टि से दूर हो मनमानी करना चाहता है लेकिन एकत्व विभक्त्व आत्म-स्वरूप समझे बिना भक्तो की भीड़ में खो जाता हैं, अपने को जाने बिना अपनों में खो जाता है | कहाँ समझ पाता है वह अज्ञ की - गुरु अनेको के बीच रहकर भी रहेते है अकेले, दूसरों से बोलते दिखते हुए भी रहते हैं अनबोले, सच, गुरु तो होते ही अलबेले। पुण्य के प्रलोभन में आते नहीं आत्म प्रयोजन को साधते सही यही तो गुरु की अंतर परिणति है इसीलिए गुरु केन्द्र तो शिष्य परिधि है। चाहे कितना ही पुण्य हवाओं में उड़ने लगे बदलियों की आकृतियों को पकड़ने लगे वे नश्वर हैं बिखरेंगी शिष्य की आत्मा फूट-फूटकर रोयेगी तब आयेंगे गुरु करुणासागर समझायेंगे फिर उसे स्नेह से भरकर जो गुरु करे वो कोई कर नहीं सकता हर किसी को श्रीविद्यासिंधु-सा गुरु मिल नहीं सकता। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  2. लेखनी लिखती है कि- जीवन की समूची यात्रा है वर्तुल-सी जब कोई प्राणी पाता है गुरु - शरण तो गुरु पहुँचाते हैं प्रभु - शरण फिर प्रभु ही पहुँचा देते हैं निज आत्मा की शरण। कभी-कभी ऐसा भी होता है भक्त पाता है प्रभु की शरण फिर प्रभु - भक्ति से ही मिलती गुरु-शरण तब गुरु ही कराते निज का वरण। भव - भवांतर की उलझी गुत्थियाँ गुरु ही सुलझा सकते हैं, अनंतकाल से होती आई गल्तियाँ गुरु ही दूर कर सकते हैं, जो कोई समझा नहीं पाया अब तक ऐसी गहन बार गुरु ही समझा सकते हैं। कहना है गुरु का की- संसार का भ्रमण तजने गुरु जरूरी हैं पर मुक्ति पाने गुरु तजना भी जरूरी है जो शिष्य और परमात्मा के बीच धीरे से हट जाते हैं, गिरने लगे यदि शिष्य तो अदृश्य हाथों से थाम लेते हैं। सच, गुरु की महिमा अकथ है शिष्य के लिए वही मंजिल वही पथ है द्रुत गति से गंतव्य तक ले जाने वाला गुरु-कृपा ही अनुपम रथ है। गुरु की इस कविता में श्रीविद्यासागरजी गुरु का ही दर्शन हो आता है एक बार जो हो गया इनका वह जग में किसी का कहाँ हो पाता है ? आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  3. प्रयोजन बस, बन्धन से मुक्ति! भवसागर का कूल...किनारा। अब तक प्रांगण में चौक पूरा गया खेल खेलती बालिकाओं द्वारा। लगभग समय निकट आ चुका है अतिथि की चर्या का- चर्चा इसी बात की चल रही है दाताओं के बीच! नगर के प्रति मार्ग की बात है आमने-सामने अड़ोस-पड़ोस में अपने-अपने प्रांगण में सुदूर तक दाताओं की पंक्ति खड़ी है पात्र की प्रतीक्षा में डूबी हुई है। प्रति प्रांगण में प्रति दाता प्रायः अपनी धर्मपत्नी के साथ खड़ा है। सबकी भावना एक ही है। प्रभु से प्रार्थना एक ही है, कि अतिथि का आहार निर्विघ्न हो और वह हमारे यहाँ हो बस! लो, पूजन-कार्य से निवृत्त हो नीचे आया सेठ प्रांगण में और वह भी माटी का मंगल-कुम्भ ले खड़ा हो गया। The only purpose, deliverance from worldly bondage ! The farthest end ...the coast of the ocean of worldly existence. Meanwhile, a square space with coloured meal or powders is drawn artfully By some sportive girls in the courtyard. The time has almost ripened For the routine observance of food-taking by the holy guest-Munirāja The mention is being made on this very point Among all the benefactors ! The situation at every street of the city is, that Facing each other, in the neighbourhood, Inside their own courtyards The line of benefactors runs a long way, Absorbed in expectation of the worthy personage- Munirāja. Within each of the courtyards Generally Every benefactor stands with his lawful wife. The only feeling which belongs to everyone, The only prayer done unto the Lord is, That The suitable bestowal of food to the sacred guest- Munirāja- Should take place unhampered, And that How fortunate, if it could be at his own place. Lo, after being free from the offerings of adoration The eminent trader descends in the courtyard And he also Stand up with an auspicious earthen pitcher in hand.
  4. लेखनी लिखती है कि माना कि क्रोध मानव की कमजोरी है किंतु गुरु को क्रोध करना मजबूरी है उनका क्रोध कमजोरी नहीं होता शिष्य को सुधारने का उपाय ही होता सर्वप्रथम गुरु अपने आचरण से समझाते फिर वचन से समझाते फिर भी न समझे तो उसे कठोरता से समझाते; क्योंकि गुरु जानते हैं कि- सुधार जरूरी है बिना समझे शिष्य की कहानी अधूरी है। भले ही क्रोध करते हुए दिखते, पर पूरी तरह जागृत ही रहते सामान्य जन की तरह होश खोते नहीं पर के खातिर रवयं पाप बीज बोते नहीं, किंतु शिष्य यदि करता है क्रोध तो कैसे पायेगा बोध पात्र में भरे हैं पहले से क्रोध के कंकर तो कैसे उँडेलें गुरु अमृत नहीं बन सकता वह शांत स्वरूप शंकर। गुरु जैसा कर रहे वैसा शिष्य को करना नहीं, गुरु जैसा कह रहे वैसा करने वाला शिष्य है सही, गुरु के क्रोध में भी शिष्य के लिए उद्बोधन है, स्वयं झुककर उठा रहे पतित शिष्य को सच, गुरु ही संकटमोचन हैं। गुरुवर श्रीविद्यासागरजी भी हैं ऐसे एक बार उनके होकर देखो अरे! यह तो हैं भगवन् जैसे एक बार शरण में आकर देखो। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  5. मांगलिक कुम्भ रखा गया अष्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर। प्रतिदिन की भाँति प्रभु की पूजा को सेठ जाता है, पुण्य के परिपाक से धर्म के प्रसाद से, जो मिला महाप्रासाद के पंचम-खण्ड पर जहाँ चैत्यालय स्थापित है, रजत-सिंहासन पर रजविरहित प्रभु की रजतप्रतिमा अपराजिता विराजिता है। सर्व-प्रथम परम श्रद्धा से वन्दना हुई प्रभु की, फिर अभिषेक किया गया प्रभु का, स्वयं निर्मल निर्मलता का कारण गन्धोदक सर पर लगा लिया सेठ ने सादर...सानन्द। फिर, जल से हाथ धो कर प्रतिमा का प्रक्षालन किया विशुद्ध-शुभ्र वस्त्र से पाप-पाखण्डों से परिग्रह-खण्डों से मुक्त असंपृक्त त्यागी वीतरागी की पूजा की अष्टमंगल द्रव्य ले भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से सांसारिक किसी प्रलोभनवश नहीं, The auspicious pitcher is placed Upon the eight-cornered seat of sandalwood. According to his daily routine The eminent trader sets out for the Lord's worship, Due to the auspicious ripening of the virtuous deeds By the grace of religiousness, whatever was obtained - On the fifth apartment of the grand mansion, Where there stands a special temple, Is installed Upon the silvery throne The dustless silver image of the invincible Lord. First of all, the adoration of the Lord Is observed with a sense of deepest faith, Then, the ritual of His ‘anointment' is observed; The eminent trader applies over his own head The fragrant sacred water, that is, the Gandhodaka Pure in itself, and instrumental in purification, With a sense of reverence...and...joy. Then, after washing his hands with water, He performs the holy cleansing of the idol With the help of a clean white piece of cloth, - Worships the renouncer and passion-winner Lord, – Free from and unmixed with the segments of Possessions The sins and hypocrisies The segments of possessions, Offering eight auspicious substances With a sense of deep devotion, eager strength And not under the sway of some worldly gains,
  6. लेखनी लिखती है कि गुरु को कागजों पर नहीं हृदय की दीवार पर अंकित करना है, गुरु की स्तुति अधरों से नहीं अंदर से करना है; क्योंकि गुरु जो कर सकते सारी दुनिया मिलकर भी कर सकती नहीं, गुरु जो दे सकते सारी दुनिया मिलकर भी दे सकती नहीं, गुरु देते हैं अद्रश्य जो जन जन को दिखाई देता नहीं। धन की सुरक्षा करना जानते हैं सब परिवार की सुरक्षा करना जानते हैं सब शरीर की सुरक्षा करना जानते हैं सब चल संपत्ति को अचल संपत्ति बनाना जानते हैं सब, किंतु मन को स्थिर कैसे करना चेतन को कर्मों से सुरक्षित कैसे करना नहीं जानते अज्ञ प्राणी। तब गुरु ही स्वात्म सुरक्षा का उद्घाटित करते हैं रहस्य, लक्ष्य विहीन को दिखलाते हैं जीवन का परम लक्ष्य। पहले मंजिल की महिमा समझाते हैं उसे पाने का उपाय बतलाते हैं फिर मार्ग में सहायक बनकर उसे मंजिल तक ले जाते हैं। बिना कुछ लिये सब कुछ दे दें बिना कुछ कहे सब कुछ कह दें क्या है कोई ऐसा नि:स्वार्थी जगत् में ? क्या है कोई ऐसा परमार्थी जगत् में ? शिष्य का हृदय बोलता है - हाँ, श्रीविद्यासागरजी गुरुदेव हैं जगत् में जो रहते हैं अपने में पर विराजते हैं जन-जन के मन में। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  7. मृदु और काठिन्य में साम्य है, यहाँ। और यह हृदय हमारा कितना कोमल है, इतना कोमल हैं क्या तुम्हारा यह उपरिल तन ? बस हमारे भीतर जरा झाँको, मृदुता और काठिन्य की सही पहचान तन को नहीं, हृदय को छूकर होती है। “ श्रीफल की सारी जटाएँ हटा दी गईं सर पर एक चोटी-भर तनी है जिस चोटी में महकता खिला-खुला गुलाब फंसाया गया है। प्रायः सबकी चोटियाँ अधोमुखी हुआ करती हैं, परन्तु श्रीफल की ऊर्ध्वमुखी है। हो सकता है इसीलिए श्रीफल के दान को मुक्ति-फल-प्रद कहा हो। ‘‘निर्विकार पुरुष का जाप करो” यूँ कहती-सी आर-पार प्रदर्शन-शीला शुद्ध स्फटिकमणि की माला कुम्भ के गले में डाली गई है। अतिथि की प्रतीक्षा में निरत-सा यूँ, सजाया हुआ There is a resemblance here between the soft and the hard. And How tender is This heart of ours, Is your external body Soft in such a measure ? Enough of it, peep a bit into us, The true cognizance of softness and hardness Is obtained by touching the heart And not the body.” All the coirs of the coconut were removed, Only a crest of hair is stretched up overhead Into which, a blooming open fragrant rose Has been decorated. Everybody's crests of hair overhead Are generally downcast, But That of the coconut is upcast. It might be so, Hence the offering of a coconut Would have been termed as the ‘bestower of the fruit of salvation'. “Tell the beads of a rosary in memory of passionless sacred soul-Muniraja', As if uttering such words A garland of pure gems of crystal, Exhibiting transparency, Has been put around the neck of the pitcher. Decorated in this manner, As if attentive in waiting for the sacred guest Munirāja.
  8. कुंकुम का पुट देखते ही बनता है! हलदी कुंकुम केसर चन्दन ने अपनी महक से माहौल को मुग्ध-मुदित किया। मृदुल-मंजुल-समता-समूह हरित हँसी ले- भोजन-पान-पाचक चार-पाँच पान खाने के कुम्भ के मुख पर रखे गये। खुली कमल की पाँखुरी-सम जिनके मुखाग्र बाहर दिख रहे हैं और उनके बीच में उन्हें सहलाने एक श्रीफल रखा गया जिस पर हलदी-कुंकुम छिड़के गये। इस अवसर पर श्रीफल ने कहा पत्रों को, कि “हमारा तन कठोर है तुम्हारा मृदु, और यह काठिन्य तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। आज तक इस तन को मृदुता ही रुचती आई, परन्तु तब संसार-पथ था यह पथ उससे विपरीत है ना! यहाँ पर आत्मा की जीत है ना! इस पथ का सम्बन्ध तन से नहीं है, तन गौण, चेतन काम्य है The covering of rouge is worth seeing ! The turmeric, rouge, saffron and sandalwood Make the surroundings charming and pleasing With their odour. Soft, lovely, having an uniform group With a green smile - Digestive for the food-stuffs and drinkables, Four or five eatable betel-leaves, Are placed around the mouth of the pitcher. Like the petals of a blossomed lotus, Whose frontal tops are peeping outside And Amid them, to tickle them, Is placed a coconut, On which turmeric and saffron were sprinkled. On this occasion, The Šrifala (coconut ) tells the betel-leaves, that “Our body is hard Yours is the soft one, and This hardness won't suit you. Uptil now This body has really been relishing the softness, But, It was, then, the way of the world Isn't this path contrary to it! Isn't there the triumph of Soul here! The relation of this path Isn’t with the body, The body is secondary, the Sentient Being or Consciousness is desirable.
  9. लेखनी लिखती है कि- अर्हत् पथ के पथिक हैं जो सिद्ध पद के इच्छुक हैं जो चल रहे हैं अनवरत बहे रहे हैं जैसे भागीरथ | गुरु के श्रवण - पुट कुछ तो विशेष हैं ऊपर से प्रभु वचनों का भी करते हैं श्रवण तो निचे से पथ भूलों का सुन लेते है रुदन तब वे रुके हुए मालूम पड़ते हैं परन्तु अंतर्पथ पर अरुक अथक चलते ही रहते हैं। हाँ, इस शुभ प्रवृत्ति के समय इनकी दया होती है दर्शनीय करुणा होती है अनुकरणीय अनुकंपा होती है आदरणीय प्रवृत्ति होती है पूज्यनीय; क्योंकि गुमराहियों को राह दिखाने का यदि राग उन्हें नहीं आता तो वीतरागता का मार्ग उन राहियों को कौन दिखाता ? लक्ष्य के प्रति लौ कौन जलाता ? निर्भयता से भला कौन चल पाता ? यह तो गुरु की ही महिमा है जिनने नि:शंकता से शिवपथ पर चलकर "चरैवेति चरैवेति" सार्थक की शब्दावलियाँ हैं जो स्वयं सत्पथ पर चलकर चलाते हैं शिष्यों को ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागर मिलते कहाँ सबको ? आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  10. आसन से उतर कर सोल्लास सेठ ने भी हँसमुख सेवक के हाथ से अपने हाथ में ले लिया कुम्भ, और ताजे शीतल जल से धोता है कुम्भ को स्वयं! फिर, बायें हाथ में कुम्भ ले कर, दायें हाथ की अनामिका से चारों ओर कुम्भ पर मलयाचल के चारु चन्दन से स्वयं का प्रतीक, स्वस्तिक अंकित करता है- 'स्व' की उपलब्धि हो सबको इसी एक भावना से। और प्रति स्वस्तिक की चारों पाँखुरियों में कश्मीर-केसर मिश्रित चन्दन से चार-चार बिन्दियाँ लगा दीं। जो बता रहीं संसार को, कि संसार की चारों गतियाँ सुख से शून्य हैं। इसी भाँति, प्रत्येक स्वस्तिक के मस्तक पर चन्द्र-बिन्दु समेत, ओकार लिखा गया योग एवं उपयोग की स्थिरता हेतु। योगियों का ध्यान प्रायः इसी पर टिकता है। हलदी की दो पतली रेखाओं से कुम्भ का कण्ठ शोभित हुआ, जिन रेखाओं के बीच Stepping down from his seat The eminent trader too, joyfully, Holds out the pitcher in his own hand From the hand of the cheerful attendant, And He washes it himself thoroughly With the fresh cool water ! Then, holding the pitcher into his left hand, Marks the fylfot, a symbol of one's own ‘Self', By his ring-finger of the right hand On all the four sides around the pitcher, With the lovely sandalwood from the Mount Malaya- Cherishing the only feeling That everyone should accomplish his own ‘Self '. And Inside all the four petals of the each of the fylfot, With the sandalwood, mingled with Kashmira-saffron, Spotted four round drops each, Which are telling the world, that All the four worldly courses of transmigration of soul Are devoid of real happiness. In the same manner, On the head of every fylfot ‘Omkāra’ is writ large, along with a dot within a crescent For the steadfastness of penance and divine devotion. The meditation of ascetics More often dwells firmly upon this base. The throat of the pitcher is adorned With the two thin streaks of turmeric, The streaks, amid which –
  11. कुछ भी नहीं है। मूलभूत पदार्थ ही मूल्यवान होता है। धन कोई मूलभूत वस्तु है ही नहीं धन का जीवन पराश्रित है। पर के लिए है, काल्पनिक! हाँ! हाँ!! धन से अन्य वस्तुओं का मूल्य आँका जा सकता है वह भी आवश्यकतानुसार कभी अधिक कभी हीन और कभी औपचारिक, और यह सब धनिकों पर आधारित है। धनिक और निर्धन- ये दोनों वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं आँक सकते, कारण, धन-हीन दीन-हीन होता है प्रायः और धनिक वह विषयान्ध, मदाधीन!! उपहार के रूप में भी राशि स्वीकृत नहीं हुई तब, सेवक ने शिल्पी की सादर धन के बदले में धन्यवाद दिया और चल दिया घर, कुम्भ ले सानन्द! Is nothing at all. Only the basic object Is valuable indeed. Money is really none of the fundamental things The life of the money begs dependence - An imaginary existence, it is meant for the others ! Yes! yes !! The prices of the other things May be evaluated by the money That too, according to the need, At times more, at times less, And at times in a formal way - And all this Depends upon the rich. The rich and the poor - Both of these Can’t evaluate even in a dream The exact price of a thing, Because, A poor man is generally pitiable and inferior, And, The wealthy person – Blind with sensuality, a slave to wantonness !!” The amount then wasn't granted Even as a gift, The attendant, with due respect, Extended thanks to Artisan in place of money And Started on his way home joyfully, with the pitcher !
  12. सेवक चुन लेता है कुम्भ एक-दो लघु, एक-दो गुरु और शिल्पी के हाथ में मूल्य के रूप में समुचित धन देने का प्रयास हुआ कि कुम्भकार बोल पड़ा- “आज दान का दिन है आदान-प्रदान लेन-देन का नहीं समस्त दुर्दिनों का निवारक है यह प्रशस्त दिनों का प्रवेश-द्वार! सीप का नहीं, मोती का दीप का नहीं, ज्योति का सम्मान करना है अब! चेतन भूल कर तन में फूले धर्म को दूर कर, धन में झूले सीमातीत काल व्यतीत हुआ इसी मायाजाल में, अब केवल अविनश्वर तत्त्व को समीप करना है, समाहित करना है अपने में, बस! वैसे, स्वर्ण का मूल्य है रजत का मूल्य है कण हो या मन हो प्रति-पदार्थ का मूल्य होता ही है, परन्तु, धन का अपने आप में मूल्य The attendant selects pitchers One or two small, and one or two big in size And An attempt is made to put the proper money As the price Into the hands of the craftsman When The Artisan speaks out – “ It is the day of charity to-day And not that of the give and take, the interchange, It is the preventive measure for all the miserable days - The gateway for the auspicious days ! We have to honour now - Not the shell, but the pearl Not the lamp, but the flame ! Forgetting the soul, we get allured by the body Discarding the religiousness, we swing with the money An unlimited time-span is frittered away Under this very snare of worldly illusion, Now only the nearness with the imperishable Soul Has to be established, Has only to be composed within our own ‘self'! Somehow or other, The gold has its value The silver has its value Whether it is a particle or forty seras, i.e., a ‘mana’ Each and everything, indeed, has its value, But, The value of money in itself –
  13. खोल देते हैं प्रकृति और पुरुष के भेद हाथ की गदिया और मध्यमा का संघर्ष स्पर्श पा कर धा...धिन्..धिन्...धा… धा...धिन्..धिन्...धा… वेतन-भिन्ना चेतन-भिन्ना, ता...तिन...तिन...ता... ता..तिन..तिन...ता… का तन...चिन्ता, का तन...चिन्ता? घूँ...घूँ..घूँ। ग्राहक के रूप में आया सेवक चमत्कृत हुआ वह मन-मन्त्रित हुआ उसका तन तन्त्रित-स्तम्भित हुआ कुम्भ की आकृति पर और शिल्पी के शिल्पन चमत्कार पर। यदि मिलन हो चेतन चित् चमत्कार का फिर कहना ही क्या! चित् की चिन्ता, चीत्कार चन्द पलों में चौपट हो चली जाती कहीं बाहर नहीं, सरवर की लहर सरवर में ही समाती है। कुम्भ का परीक्षण हुआ निरीक्षण हुआ, फिर... Unfold The mysteries of Nature and Soul, ( Prakrti and puruşa ) – Through the touch and friction of the palm of hand Along with the middle finger, – Dhā...dhin...dhin...dhā... Dhā...dhin...dhin...dhā... Different are those bodies different the vital Consciousness Tā...tin... tin...tā… Tā...tin...tin...tā... Why worry for the body...why worry for the body...? Beat...beat...exactly thus ! The attendant who arrives as a customer Feels astonished His mind was enchanted His body under the magic-spell is wonder-struck At the figure of the pitcher And Upon the amazing craftsmanship of the Artisan. What to say, if There is an union Of the marvel of the Supreme Spirit with the Supreme Knowledge ! The worries of perception, their agonizing effects Fade away, being demolished, within seconds, Not somewhere outside- The wave of the reservoir rests beck into the reservoir itself. The pitcher is examined Again it is inspected, then...
  14. सा...रे ग...म यानी सभी प्रकार के दुःख प...ध यानी पद-स्वभाव और नि यानी नहीं, दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का विभाव-परिणमन मात्र है वह। नैमित्तिक परिणाम कथंचित् पराये हैं। इन सप्त-स्वरों का भाव समझना ही सही संगीत में खोना है सही संगी को पाना है। ऐसी अद्भुत शक्ति कुम्भ में कहाँ से आई, यूँ सोचते सेवक को उत्तर मिलता है कुम्भ की ओर से कि ‘‘यह सब शिल्पी का शिल्प है, अनल्प श्रम, दृढ़ संकल्प सत्-साधना-संस्कार का फल। और सुनो, यह जो मेरा शरीर घनश्याम-सा श्याम पड़ गया है सो...जला नहीं। जिस भाँति वाद्य-कला-कुशल शिल्पी मृदंग-मुख पर स्याही लगाता है उसी भाँति शिल्पी ने मेरे अंग-अंग पर, स्याही लगा दी है, जो भाँति-भाँति के बोल Sā...re...ga...ma, la that is, All types of afflictions Pa...dha, that is, the essential quality – And, Ni, that is, 'not', - -Affliction can never be an essential quality of Soul, It is only the degenerating after-effect contrary to the real nature Of the soul, under the bondage of the kārmic nature of delusion. The dispositions, produced due to some special reason are somehow alien, From a particular point of view, that is ‘kathanchit, To comprehend, indeed, the sense of these seven notes of gamut Is to be rapt with the true music Is to obtain a true companion.Where from did the pitcher attain Such a power, thinking thus, the attendant Gets an answer from the pitcher That “All this craftsmanship is the creation of the Artisan, The result of genuine devotion and purification, Special efforts and firm resolve. And, hark, This body of mine Which has turned blackish as a dark cloud Hasn't...really...burnt away. Just as A craftsman skilled in the art of musical instruments Applies dark ink on the mouth-top of a timbrel, In the same manner The Artisan has applied dark ink Upon each and every limb of my body, And the different notes of the gamut
  15. तुम्हें निमित्त बना कर अग्नि की अग्नि-परीक्षा ले रहा हूँ। दूसरी बात यह है कि मैं एक स्वामी का सेवक ही नहीं हूँ वरन् जीवन-सहायक कुछ वस्तुओं का स्वामी हूँ, सेवन-कर्ता भी। वस्तुओं के व्यवसाय लेन-देन मात्र से उनकी सही-सही परख नहीं होती अर्थोन्मुखी दृष्टि होने से, जब कि ग्राहक की दृष्टि में वस्तु का मूल्य वस्तु की उपयोगिता है। वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ क्षण सुख में रमण कराती है।” सो, यह ग्राहक बन कर आया है और कुम्भ को हाथ में ले कर सात बार बजाता है सेवक। प्रथम बार कुम्भ से ‘सा' यह स्वर उभर आया ऊपर फिर, क्रमशः लगातार रे...ग..म...प...ध...नि निकल कर नीराग नियति का उद्घाटन किया अविनश्वर स्वर-सम्। कुल मिला कर भाव यह निकला- Utilizing you as an efficient cause I'm putting the fire itself to the fire-test through you. The other point is that I'm not only an attendant to a master But I'm also the owner of some commodities Essential to life, and their user as well. Through the business of the things Through their give and take only, Their real test can't be undertaken – The viewpoint being that of monetary gain; While According to the customer's view The true, value of a thing consists in its utility. That utility indeed makes a man-the consumer – Enjoy comfort for some moments." Hence, he has come as a customer And After holding up the pitcher in his hand, The attendant sounds it seven times. As the first strain The note ‘sā swells out from the pitcher Then, continuously, in a series, Re...ga...ma...pa...dha...ni… Having gushed out, unfolds The unimpassioned destiny regulations full of feelings Like that of the imperishable strains. In toto, the sense prevails –
  16. एक हाथ में कुम्भ ले कर, एक हाथ में लिये कंकर से कुम्भ को बजा-बजा कर जब देखने लगा वह... कुम्भ ने कहा विस्मय के स्वर में- “क्या अग्नि-परीक्षा के बाद भी कोई परीक्षा-परख शेष है, अभी ? करो, करो परीक्षा! पर को परख रहे हो अपने को तो...परखो जरा! परीक्षा लो अपनी अब! बजा-बजा कर देख लो स्वयं को, कौन-सा स्वर उभरता है वहाँ सुनो उसे अपने कानों से! काक का प्रलाप है, क्या गधे का पंचम आलाप ? परीक्षक बनने से पूर्व परीक्षा में पास होना अनिवार्य है, अन्यथा उपहास का पात्र बनेगा वह।” इस पर सेवक ने कहा शालीनता से- ‘‘यह सच है कि तुमने अग्नि-परीक्षा दी है, परन्तु अग्नि ने जो परीक्षा ली है तुम्हारी वह कहाँ तक सही है, यह निर्णय तुम्हारी परीक्षा के बिना सम्भव नहीं है। यानी, Holding up the pitcher into one hand, When he starts examining the pitcher, Sounding it carefully once and again With a pebble caught into the other hand... The pitcher speaks out with a note of surprise- “ Despite the fiery ordeal Does any more test and inspection still remain ? Take, take the test ! You are examining the others Examine...a bit of yourself, indeed! Take your own test now! Sounding yourself carefully, have a check-up of your own ‘self”, What voice springs up there - Listen to it with your own ears ! Is it the absurd crowing of a crow Or A donkey's outcry in its fifth tone ? It is compulsory to pass the examination, Before becoming an examiner, Otherwise The one shall make himself a laughing stock." Hearing this, the attendant replies with courtesy - “It's true, that You appear at the fire-test, But The test which is furnished to you by the fire, Is proper upto what extent - This judgment Isn't possible without putting you to test. That is,
  17. कटते गिरि पर ग्रीष्म-दिन दिनकर की अदीन छाँव में। यूँ! कुम्भ ने भावना भाई सो, ‘‘ भावना भव-नाशिनी'' यह सन्तों की सूक्ति चरितार्थ होनी ही थी, सो हुई। लो, इधर...वह नगर के महासेठ ने सपना देखा, कि स्वयं ने अपने ही प्रांगण में भिक्षार्थी–महासन्त का स्वागत किया हाथों में माटी का मंगल कुम्भ ले। निद्रा से उठा, ऊषा में, अपने आप को धन्य माना और धन्यवाद दिया सपने को, स्वप्न की बात परिवार को बता दी। कुम्भकार के पास कुम्भ लाने प्रेषित किया गया एक सेवक, स्वामी की बात सुना दी सेवक ने, सुन, हर्षित हो शिल्पी ने कहा ‘‘दम साधक हुआ हमारा श्रम सार्थक हुआ हमारा और हम सार्थक हुए।" कुम्भकार की प्रसन्नता पर सेवक और प्रसन्न हुआ, The summer-days pass upon the high hills Under the shining shadow of the Sun. Thus ! the pitcher promotes its feelings Therefore,‘sacred sentiments are the saviours from Worldly-bondage'-This saying by the sages Has to accomplish the very meaning, indeed, Hence, it proves its purport...to be valid. Lo, hither...that The eminent trader of the city dreams that He, himself In his own courtyard With an auspicious pitcher of soil into his hands Receives a great saint, seeking holy alms. Wakes up from his sleep, at dawn, Regards himself as a blessed one And Thanks his dream, Tells the gist of the dream to his family. One of the servant is sent to the pot-maker To bring back a pitcher, The servant communicates what his master tells him, On hearing it, the Potter-artisan says delightfully: "Our vital energy sustains us Our labours prove to be fruitful And We come out as successful." On seeing the Artisan rejoicing The attendant feels still more pleased,
  18. 22 फरवरी, गुरुवार - परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का भव्य मंगल प्रवेश आज दोपहर बाद, सन्मति विहार, बिलासपुर में होने जा रहा है। बिलासपुर में आयोजित बेदी प्रतिष्ठा महोत्सव में पूज्य आचार्यसंघ का परम सानिध्य मिलेगा। आयोजन के प्रतिष्ठाचार्य होंगे ब्र. श्री सुनील भैया जी। चर्चा है कि बेदी प्रतिष्ठा उपरांत आचार्यश्री जी अमरकंटक तीर्थ की ओर मंगल विहार करेंगे एवम 3 मार्च को अमरकंटक में प्रवेश संभावित है।
  19. ४-०४-२०१६ बड़ोदिया (बाँसवाड़ा राजः) अध्यात्म जगत् के यशस्वी साधक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में नमोस्तु करता हूँ.... हे गुरुवर आपकी साधना, ज्ञानाराधना, प्रवचनामृत, जिज्ञासा-समाधान एवं वृद्धावस्था में भी अद्वितीय-अनुपम कार्य करने के कारण समाजजन आपसे बेहद प्रभावित थे। इस कारण अखबारनवीस आपके अनोखे समाचार से पाठकों को आश्चर्यचकित करते रहते थे और अपने अखबार के पाठक बढ़ाते रहते थे। इस सम्बन्ध में मुझे इन्दरचंद जी पाटनी (महामंत्री दिगम्बर जैन महासंघ, अजमेर) ने कुछ अख़बारों की कटिंग दी, जो आपको दिखा रहा हूँ- १. आचार्य श्री को श्रद्धांजलि मदनगंज-किशनगढ़ में आचार्यश्री का समाधि दिवस। यहाँ पर ज्ञानमूर्ति वयोवृद्ध परम तपस्वी श्री १०८ श्री मुनि ज्ञानसागर जी महाराज का संघ सहित वर्षायोग हो रहा है। जिससे अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है। महाराजश्री के कुछ दिनों से नेत्रों में कष्ट हो जाने से स्थानीय दिगम्बर जैन समाज में अत्यन्त चिन्ता व्याप्त रही थी। अब पूर्व की अपेक्षा ठीक है। दिनाँक ०६-०६-१९६७ को जैन धर्म के वर्तमान काल के धर्म प्रवर्तक चारित्र चक्रवर्ति स्व. श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी का समाधि दिवस भक्तिपूर्वक मनाया गया। जिसमें महाराजश्री ने आचार्यश्री को भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपने संक्षेप भाषण में बताया कि आज जो जैन त्यागी मुनि नजर आ रहे हैं, वह आचार्य श्री की ही देन हैं। आचार्य श्री के जीवन पर संघस्थ त्यागियों के भाषण हुए। वैद्य पन्नालाल पाटनी (जैन गजट १४ सितम्बर १९६७) २. विहार व पुनः आगमन मदनगंज १५-०१-१९६८ को मध्याह्न में ३:३० बजे श्री १०८ ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी महाराज के संघ ने दादिया किशनगढ़ की ओर विहार कर दिया। विहार के समय महाराज श्री का सारगर्भित भाषण हुआ पश्चात् श्री विद्याकुमार जी सेठी अजमेर व श्री मूलचंदजी लुहाड़िया मदनगंज के भाषण के बाद संघ का विहार हो गया। रात को संघ किशनगढ़ शहर में ठहरा किशनगढ़ में समाज के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने महाराज श्री से विहार न करने के लिए निवेदन किया क्योंकि महाराज श्री के नेत्रों को क्षति पहुँचने का विशेष खतरा है। ध्यान रहे महाराज श्री के संघ का चातुर्मास मदनगंज में हुआ था। इस बीच महाराज श्री के नेत्रों में व्याधि हो गई थी। श्रीमान् धर्मवीर सर सेठ भागचंद जी साहब व श्री माणकचंद जी सोगाणी अजमेर ने भी श्री महाराजश्री से अभी यहीं रुकने के लिए प्रार्थना की, हर्ष है कि महाराजश्री पुनः मदनगंज पधारगए हैं। –वैद्य पन्नालाल पाटनी (जैन गजट १५ फरवरी १९६८) ३. संघ आगमन दादिया- श्री १०८ मुनि ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ मदनगंज-किशनगढ़ से रवाना होकर १२-०२-१९६८ को यहाँ पधारे हैं। दादिया आगमन पर समाज के सभी स्त्री-पुरुषों ने आपका स्वागत किया। सभी साधर्मी बन्धुओं से समाज का अनुरोध है कि यहाँ पधारकर महाराज श्री के प्रवचनों का लाभ उठायें। संघ में विद्वान श्री १०५ क्षुल्लक जी महाराज श्री सन्मतिसागर जी, सिद्ध सागर जी एवं शंभूसागर जी व त्यागीगण आदि हैं। गुमानमल झाँझरी (जैन गजट २२ फरवरी १९६८) ४. मुनि दीक्षा लेने वाले ब्रह्मचारी की विराट शोभायात्रा अजमेर के इतिहास में मुनिदीक्षा की अविस्मरणीय घटना (कार्यालय प्रतिनिधि द्वारा) अजमेर २१ जून। रविवार को स्थानीय जैन परिवार के जिस युवक ब्रह्मचारी श्री विद्याधर का ऐतिहासिक दीक्षा समारोह होने जा रहा है उसके सम्मान में आज हजारों जैन धर्मावलंबियों ने नगर में एक विराट शोभायात्रा निकाली। सम्भवतः अजमेर में यह प्रथम अवसर है जब जैन समाज के एक तरुण ब्रह्मचारी ने वैराग्य भावना में लीन होकर परम वीतरागी निर्ग्रन्थ दिगम्बरी मुनि दीक्षा लेनी चाही हो। रविवार को बड़ा धड़ा दिगम्बर जैन पंचायती नसियाँ में भव्य विराट आयोजन सम्पन्न होगा। जिसे देखने के लिए अजमेर से बाहर के जैन मतावलम्बी भी भारी संख्या में अजमेर आ रहे हैं। ब्रह्मचारी विद्याधर को मुनि दीक्षा जैन मुनि श्री ज्ञानसागर जी ग्रहण करायेंगे। इस विराट आयोजन की पूर्व संध्या स्थानीय कबाड़ी मोहल्ले से ब्रह्मचारी विद्याधर की एक विराट शोभायात्रा निकाली गई। जो शहर के विभिन्न मार्गों से होती हुई सोनी जी की नसियाँ में समाप्त हुई। ब्रह्मचारी श्री एक सुसज्जित हाथी पर अवस्थित थे और उनके आगे पीछे हजारों की संख्या में जैन समाज के नेता एवं श्रद्धालु स्त्री-पुरुष महावीर स्वामी का जय-जयकार करते हुए चल रहे थे। (दैनिक नवज्योति अजमेर (राजः) दिनाँक ३० जून १९६८, रविवार) ५. २२ वर्षीय जैन ब्रह्मचारी द्वारा मुनि दीक्षा ग्रहण २० हजार धर्मप्रेमियों की उपस्थिति में विशाल समारोह सम्पन्न (कार्यालय प्रतिनिधि द्वारा) अजमेर, ३० जून स्थानीय सुभाषबाग के पास स्थित बड़ा धड़ा नसियाँ में हजारों नर-नारियों एवं श्रद्धालु लोगों की अपार भीड़ के बीच आज बेलगाँव मैसूर के २२ वर्षीय ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जैन मुनि की दीक्षा लेकर कठोर साधना एवं संयम व त्याग के अनुगामी हो गए। उल्लेखनीय है कि आज तक इतनी कम आयु का कोई भी ब्रह्मचारी मुनि दीक्षा जैसे कठिन मार्ग का अनुगामी इस शहर में नहीं बना। यही कारण था कि इस आत्म संयमी युवक ब्रह्मचारी के दीक्षा समारोह को देखने के लिए न केवल अजमेर से अपितु जयपुर, ब्यावर, नसीराबाद, केकड़ी, किशनगढ़ एवं अन्य अनेक दूरस्थ स्थानों तक के श्रद्धालु लोग उपस्थित हुए थे। ब्रह्मचारी विद्याधर समारोह सुविख्यात जैन मुनि आचार्य ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। दीक्षा के सम्पन्न होने के साथ ही हजारों स्त्री-पुरुषों के हर्ष विह्वल जय जयकार के बीच नव दीक्षित मुनि को आचार्य विद्यासागर के नाम से अलंकृत कर दिगम्बर जैन मत के अनुसार उन्हें निरावरण कर दिया गया। यों तो समारोह स्थल पर आज प्रात: से ही दर्शनार्थी स्त्री पुरुषों का मेला लगना प्रारम्भ हो गया था किन्तु दीक्षा का कार्यक्रम दोपहर से पूर्व ही प्रारम्भ हो गया। इस विशाल समारोह का प्रारम्भ आज मध्याह्न १२:०५ बजे से नव दीक्षित बाल ब्रह्मचारी विद्याधर जी के कर कमलों से शान्ति विधान पूजा के साथ प्रारम्भ हुआ। तत्पश्चात् भजन एवं गायन के हर्षोल्लास पूर्ण वातावरण के साथ २ बजे शुभ मुहूर्त पर दीक्षा कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। इस अवसर पर सेठ भागचन्द सोनी द्वारा प्रस्तावित तथा समाज द्वारा अनुमोदित प्रस्ताव के अनुसार जैन मुनि श्रीज्ञानसागर को चारित्र विभूषण की पदवी से विभूषित किया गया। इस समारोह के अन्तर्गत ५ दिन तक विराट शोभायात्रायें निकाली गई जिसमें लगभग ढाई हजार रुपया भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ। एक प्रवक्ता के अनुसार इस धन राशि का उपयोग शास्त्रे प्रकाशन में किया जाएगा। दीक्षा समारोह के अवसर पर नव दीक्षित मुनि के धर्म के माता-पिता श्री हुकुमचंद लुहाड़िया और उनकी धर्मपल्लि ने आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया। कार्यक्रम के अन्त में जैन मुनि श्री ज्ञानसागर और नवदीक्षित मुनि विद्यासागर ने उपस्थित जन समुदाय को आशीर्वाद दिया। जीवन परिचय - नव दीक्षित मुनि की जैन समाज द्वारा प्रकाशित परिचय पुस्तिका के अनुसार आपका जन्म मैसूर प्रान्त के बेलगाँव जिला स्थित सदलगा ग्राम में हुआ था। उक्त मुनि वहाँ के एक कृषक परिवार से संबन्धित हैं। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा कन्नड़ भाषा के माध्यम से प्रारम्भ हुई। आपका मन ९ वर्ष की आयु से ही वैराग्य की ओर अभिमुख हुआ। आपने कन्नड़ भाषी होते हुए भी संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया। आपने ब्रह्मचर्य अवस्था में ही आजन्म पद यात्रा का व्रत धारणकर रखा है। (दैनिक नवज्योति, अजमेर (राजः) दिनाँक १ जुलाई १९६८) ६. अजमेर में विद्याधर जी की दीक्षा का अभूतपूर्व आयोजन अजमेर ३० जून (नि.सं.) जितना हर्ष और उल्लास आज अजमेर में सम्पन्न परम कल्याणकारी मुनि दीक्षा समारोह के शुभ अवसर पर जैनाजैन सभी समाजों के आबालवृद्ध नर-नारी सभी में देखने को मिला वह अभूतपूर्व था। लोगों को सर्वत्र यह कहते सुना गया कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसा दृश्य देखकर कभी नेत्रों को कृतार्थ किया हो-ऐसा उनको स्मरण नहीं। श्रीमान् धर्मवीर सर सेठ साहब भागचंद सोनी जी के शब्दों में प्राकृतिक सुषमा से पूर्ण भारत के हृदय स्वरूप अजमेर नगर के महान् पुण्योदय से अजमेर के इतिहास में हुई यह प्रथम मुनि दीक्षा थी। इससे अजमेर धन्य हो गया। मैसूर राज्यान्तर्गत बेलगाँव जिला के सदलगा ग्राम निवासी स्वनामधन्य बाल ब्रह्मचारी २२ वर्षीय तरुण, पूज्य श्री विद्याधर जी ने ज्यों ही स्थानीय बाबाजी के नसियाँ के उद्यान में मध्याह्न २ बजे करीब ३० हजार जैनाजैन जनता के समक्ष एवं १०८ ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण पूज्य मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्री चरणों में मुनिलिंग धारण करने की अपनी इच्छा प्रकट की तो श्री पं. विद्याकुमार जी का माइक पर इसे प्रकट करते ही गला भर आया और नेत्रों से मोती टपक पड़े। इन्द्रदेव भी भला पीछे कैसे रह सकते थे समस्त उपस्थित जन समुदाय के साथ ही वे भी हर्षाश्रु स्वरूप हल्की-हल्की बूंद बरसाने को मजबूर हो गए। यह कोई अनहोनी नहीं थी यह तो प्राकृतिक थी और प्रकृति भला अपने स्वभाव से इस परम आनन्द दायक कल्याणकारी अनुपम अवसर पर क्यों चूकती। दीक्षा समारोह का कार्यक्रम ठीक १२ बजे परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी महाराज के संसघ गाजे बाजे सहित पाण्डाल में पधारते ही जयकारों के गगनभेदी घोष के साथ प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम एक ५ वर्षीय नन्हें बालक ने अपनी तोतली वाणी में मंगलाचरण किया। पश्चात् कुछ गायन भाषणों के बाद दीक्षार्थी श्री विद्याधर जी ने परमपूज्य महाराज श्री के चरणों में दीक्षा हेतु अनुरोध के बाद। दीक्षा की आज्ञा मिलने पर उपस्थित प्राणी मात्र से क्षमा याचना की। समस्त उपस्थित जन समुदाय अपलक नेत्रों से उक्त क्रियाओं को देखकर आनन्द विभोर हो रहा था। इस अवसर पर मैसूर राज्य से दीक्षार्थी ब्रह्मचारी जी के अग्रज तथा भतीजे भी पधारे थे। उन्होंने दीक्षार्थी के वयोवृद्ध माता-पिता तथा अपना दीक्षा हेतु अनुमोदन किया। प्रभावना की अटूट धारा में जब दीक्षार्थी पूज्य ब्रह्मचारी जी ने अपने लम्बे घने काले बालों का निर्ममत्व भाव से केशलुंचन प्रारम्भ किया तब मोही प्राणी त्याग की इस पराकाष्ठा को देखकर गदगद हो आर्द्र हो गया। केशलोंच के मध्य में अनेक वैराग्यपूर्वक भाषण हुए जिनमें श्री पण्डित विद्याकुमार जी सेठी, श्री नाथूलाल जी वकील बँदी, श्री के.एल. गोधा, श्री पण्डित हेमचन्द्र जी शास्त्री के नाम उल्लेखनीय हैं। केशलोंच के अन्त में दीक्षार्थी ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने समस्त परिग्रह का त्याग तृणवत् कर दिया। आकाश गगनभेदी जयनादों से गुंजायमान हुआ। इसी बीच समाज के शिरोमणि धर्मवीर दानवीर श्रीमान् रा.ब. सर सेठ भागचंद साहब सोनी का अत्यंत विद्वत्तापूर्ण ओजस्वी भाषण हुआ। भाषण के अंत में स्वागत समिति के माननीय अध्यक्ष के रूप में श्रीमान् माननीय सर सेठ साहब ने धन्यवादांजलि प्रस्तुत की। दीक्षा समापन के तुरंत बाद लगभग १० मिनट तक मूसलाधार जलवृष्टि हुई। उपस्थिति लगभग ४० हजार जन समूह धर्मप्रभावना देखकर भावविभोर हो गया। नवदीक्षित मुनिराज श्री का नाम श्री १०८ परमपूज्य मुनिराज विद्यासागर जी रखा गया। अंत में नवदीक्षित पूज्य मुनिराज तथा परमपूज्य श्री १०८ ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी महाराज के क्रमशः आशीर्वादात्मक संक्षिप्त प्रवचन हुए। आज के आयोजन में ही माननीय अध्यक्ष महोदय श्रीमान् धर्मवीर सर सेठ भागचंद जी साहब सोनी ने समस्त समाज की ओर से परमपूज्य मुनिराज ज्ञानमूर्ति श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज को ‘चारित्र विभूषण' की उपाधि से समलंकृत किया। अंत में कलशाभिषेक के बाद कार्यक्रम का जयघोष के साथ समापन हुआ। वस्तुत: अजमेर नगर निवासियों का महान् पुण्योदय ही है कि अभी गत माह हुई क्षुल्लक दीक्षा को १ माह ही हुआ था कि फिर उन्हें नेत्र सफल कर जीवन में कुछ करने की प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर मिल गया। फिर भला उस अवसर से लाभ लेने में समाज पीछे क्यों रहता। समाज तन, मन और धन से इस अवसर को स्वर्णिम बनाने में जुट गया। दीक्षा के पूर्व लगातार ५ दिन तक दीक्षार्थी ब्रह्मचारी जी की शोभा यात्राएँ निकाली। बिन्दोरियाँ क्रमशः २५-०६-१९६८ को सेठ मिश्रीलाल जी, मीठालाल जी पाटनी, २६-०६१९६८ को सेठ राजमल जी मानकचंद जी चाँदीवाल, २७-०६-१९६८ को सेठ पूसालाल जी गदिया, २८०६-१९६८ को श्री सेठ मांगीलाल जी रिखबदास जी (फर्म सेठ नेमीचंद जी, शान्तिलाल जी बड़जात्या), २९-०६-१९६८ को श्री समस्त दिगम्बर जैन समाज जैसवाल पंचायत केसरगंज तथा ३०-०६-१९६८ को श्री सेठ हुकमचंद जी नेमीचंद जी दोषी की ओर से निकली। अंतिम बिन्दोरी प्रातः ७:३० बजे प्रारम्भ हुई।। इसके अतिरिक्त सभी बिन्दोरियाँ रात्रि को ७ बजे से निकली थी। अंतिम तीन बिन्दोरियों का आकर्षण अपूर्व था। दिनाँक २९ व ३० को बिन्दोरी हाथी पर निकली जिन्हें लगभग एक लाख व्यक्तियों ने देखा। दिनाँक २८-०६-१९६८ को श्री सेठ नेमीचंद जी शान्तिलाल जी की ओर से निकली बिन्दोरी का जुलूस का स्थानीय श्वेताम्बर बन्धुओं की ओर से भव्य स्वागत किया गया। दिनाँक २९-०६-१९६८ की शानदार बिन्दोरी में अजमेर की जनता ने दीक्षोन्मुख भव्यप्राणी को जब ट्यूबलाइटों से घिरे हुए हाथी पर अपनी सादा पोशाक, धोती और दुपट्टे में वीतराग मुद्रा में देखा तो वाह-वाह कर उठी। उल्लेखनीय है कि वयोवृद्ध साहित्य मनीषी ज्ञानमूर्ति श्री १०८ परमपूज्य ज्ञानसागर जी महाराज विहार करते हुए २०-०६-१९६८ को प्रातः काल ससंघ यहाँ पधारे थे। आपका स्वागत जुलूस के सरगंज पुलिस थाने से प्रारम्भ होकर नगर के प्रमुख बाजारों में घूमता हुआ श्री धर्मवीर सर सेठ भागचंद जी साहब सोनी की नसियाँ जी में पहुँचा। आपके स्वागत सम्मान में अनेकों विद्वानों के भाषण हुए। श्री सर सेठ साहब ने महाराज श्री से ससंघ यहीं चातुर्मास करने की प्रार्थना की। पश्चात् महाराज श्री का अन्त:स्पर्शी सारगर्भित प्रवचन हुआ। मौन सम्मति के साथ ही साथ तभी यह भी शुभ संकेत प्राप्त हुआ था कि इसी आषाढ़ शुक्ला ५ रविवार ३० जून को संघस्थ ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जी मुनि दीक्षा ग्रहण करेंगे। जिसका सौभाग्य आज अजमेर के ही नहीं अपितु बाहर के हजारों धर्म श्रद्धालु महानुभावों ने प्राप्त किया। श्री परमपूज्य १०८ ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण ज्ञानसागर जी महाराज के यहाँ पदार्पण के समय से ही महती धर्म प्रभावना हो रही है दिनाँक २२ जून से २४ जून तक बाल आश्रम दिल्ली के कलाकारों का कार्यक्रम हुआ। ऋषभदेव उदयपुर से वापिस पधारते हुए श्रीमान् सेठ सुनहरीलाल जी आगरा के साथ श्री पण्डित बाबूलालजी जमादार भी पधारे। आपके यहाँ अत्यंत ओजस्वी सारपूर्ण दो भाषण हुए। उक्त सभी कार्यक्रमों को स्थानीय समस्त समाज का पूर्ण सहयोग प्राप्त रहा। स्वागत कमेटी के माननीय अध्यक्ष श्रीमान् धर्मवीर रा.ब.सर सेठ भागचंद जी सोनी का पूर्ण वरदहस्त आयोजन के लिए प्राप्त रहा। सर सेठ साहब की अटूट गुरु भक्ति का ही प्रतिफल है कि आयोजन के प्रत्येक कार्य में समाज ने उन्हें कर्मठ पाया। सर सेठ साहब के अतिरिक्त सर्व श्री छगनलाल जी पाटनी, स्वरूपचंद जी कासलीवाल, शान्तिलाल जी बड़जात्या, पदमकुमार जी फोटोग्राफर, पदमकुमार जी वकील, किशनलाल जी जैन, मिलाप चंद जी पाटनी, स्थानीय संगीत मण्डल, जैन वीर दल, जैसवाल जैन स्वयं सेवकदल, पुलिस विभाग, नगर पालिका तथा पत्रकारों आदि का कार्यक्रम को पूर्ण सफल बनाने में सक्रिय सहयोग अविस्मरणीय रहा। दिनाँक ३० जून को सायंकाल बाहर से आगत समस्त साधर्मी बंधुओं की भोजन व्यवस्था निसंदेह उत्तम रही। (जैन गजट ४ जुलाई १९६८) ७. पर्वराज सम्पन्न अजमेर-यहाँ परमपूज्य ज्ञानमूर्ति श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के विराजने से महती धर्म प्रभावना हो रही है। पर्वराज पर्युषण मुनिराज श्री के सान्निध्य में यहाँ महती प्रभावना के साथ सम्पन्न हुए। पर्व में ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन ब्यावर के व्यवस्थापक श्री पण्डित हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री के पधारने से तत्त्वचर्चा व धर्म-श्रवण का काफी आनन्द रहा। श्री सर सेठ भागचन्द जी साहब सोनी के सरावगी मोहल्ला स्थित मन्दिर जी में पण्डित जी का नित्य प्रति मध्याह्न व रात्रि में तत्त्वार्थसूत्र व दशधर्म पर ओजस्वी प्रवचन होता था। पूजनोपरान्त लगभग साढ़े दस बजे मंदिर जी में ही षोडशकारण भावना व दशधर्म पर स्वयं श्रीमान् धर्मवीर सर सेठ भागचन्द जी साहब सोनी अत्यन्त हृदयग्राही प्रवचन करते थे। प्रात: व मध्याह्न में ३ बजे से नसियाँ जी में परमपूज्य मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज व पूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज का मार्मिक गम्भीर प्रवचन होता था। अनन्त चतुर्दशी व प्रतिपदा को नसियाँ जी तथा शहर के मन्दिरों में कलशाभिषेक हुए। भाद्रपद शुक्ला २ को परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ आचार्यवर्य स्वः शान्तिसागर जी महाराज का स्वार्गारोहरण दिवस धूमधाम से मनाया गया। इसी प्रकार गत वर्ष सल्लेखनापूर्वक दिवंगत मुनिराज श्री १०८ सुपाश्वसागर जी महाराज की पुण्यतिथि भी मनाई गयी। (जैन गजट, सितम्बर १९६८) ८. केशलोंच अजमेर-यहाँ चातुर्मास काल में श्री १०८ परमपूज्य ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागर जी महाराज के ससंघ विराजने से अपूर्व धर्म प्रभावना हुई। दिनाँक ०३-११-१९६८ को परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच अत्यन्त प्रभावना पूर्वक सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर सर्वश्री पण्डित विद्याकुमार जी सेठी, पण्डित चंपालाल जी, बा. निहालचंद जी के अतिरिक्त श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी साहब सोनी का ओजस्वी सामयिक भाषण हुआ। श्रीमान सर सेठ साहब द्वारा नवीन पिच्छिका समर्पित करने के बाद परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज व परमपूज्य ज्ञानमूर्ति १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का सारगर्भित ओजस्वी उपदेश हुआ। अन्त में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण हुआ। (जैन गजट, गुरुवार ७ नवम्बर १९६८, मगसिर कृष्ण ३ वी.नि.सं. २४९५) ९. प्रवचन अजमेर जाटियावास में ज्ञान-ध्यान-तपोरक्त तपस्वी मुनिराज श्री ज्ञानसागर जी मुनिराज व मुनि श्री विद्यासागर जी के प्रवचन के लिए वहाँ के प्रमुख व्यक्तियों ने आयोजन किया। इस स्थान पर पहले आचार्य देशभूषण महाराज का भी प्रभावशाली प्रवचन हो चुका है। पाण्डाल की सुन्दर व्यवस्था थी। जैनों के अतिरिक्त अजैन बन्धु भी हजारों की संख्या में उपस्थित थे। पूज्य मुनि ज्ञानसागर जी महाराज ने 'मानव चरित्र की विशेषता को बतलाते हुए संग्रहवृत्ति की भावना को बुरा बताया विज्ञान ने मानव के लिए सुख-सुविधा के साधन अवश्य जुटाए हैं, लेकिन इससे असंतोष एवं अधैर्य को मानव जीवन में प्रोत्साहन अवश्य मिल रहा है। पूज्य मुनि विद्यासागर जी महाराज ने 'त्याग के महत्व को बतलाते हुए जीवन को त्यागमय बनाने पर जोर दिया। पं. विद्याकुमार जी सेठी शास्त्री, पं. हेमचंद शास्त्री, ब्र. हीरालाल जी, श्री माणकचंद जी सोगानी व श्री निहालचंद जी जैन ने भी सामयिक विचार प्रकट किए। श्री प्रभुदयाल जी जैन ने भी स्वरचित कविता पढ़ी। यह कार्यक्रम दिन के २ बजे से ४ बजे तक सम्पन्न हुआ। (जैन गजट १४ नवम्बर १९६८) १०. संघ विहार अजमेर-चातुर्मास काल में यहाँ विराजमान परमपूज्य वयोवृद्ध ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण श्री १०८ मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज तथा परमपूज्य श्री १०८ मुनिराज विद्यासागर जी महाराज का दिनाँक ०१-१२-१९६८ को केशरगंज के लिए ससंघ विहार हो गया। विहार बेला पर आयोजित सभा में अनेक वक्ताओं ने अपने मार्मिक विचार प्रकट किए। प्राय: सभी वक्ताओं ने पूज्य मुनिराज संघ से अभी यहीं विराजमान रहने का विनम्र अनुरोध करते हुए कहा कि परमपूज्य मुनिराज ज्ञानसागर जी महाराज की वृद्धावस्था तथा समयसार प्रकाशन के महत्त्वपूर्ण कार्य की यथाशीघ्र संपूर्ति के लिए मुनिसंघ का यहाँ विराजना अत्यंत आवश्यक तथा समाज हित में हैं। आशा है, परमपूज्य मुनिराज समाज के अनुरोध को अवश्य स्वीकार करेंगे। वक्ताओं के अंत में मुनिराजद्वय का प्रभावशाली उपदेश हुआ। (जैन गजट, ५ दिसम्बर १९६८)
  20. कभी बरसते नहीं, अनुकूल मित्रों पर कभी हरसते नहीं और ख्याति-कीर्ति-लाभ पर कभी तरसते नहीं। क्रूर नहीं, सिंह-सम निर्भीक किसी से कुछ भी माँग नहीं भीख, प्रभाकर-सम परोपकारी हो प्रतिफल की ओर कभी भूल कर भी ना निहारें, निद्राजयी, इन्द्रिय-विजयी जलाशय-सम सदाशयी मिताहारी, हित-मित-भाषी चिन्मय-मणि के हों अभिलाषी, निज-दोषों के प्रक्षालन हेतु आत्म-निन्दक हों पर निन्दा करना तो...दूर... पर-निन्दा सुनने को भी जिनके कान उत्सुक नहीं होते ...कहीं हों बहरे! यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी हो कर भी, अपनी प्रशंसा के प्रसंग में जिनकी रसना गुंगी बनती है। सागर-सरिता-सरवर-तट पर जिनकी शीत-कालीन रजनी कटती, फिर Never feels puffed up With the favourable friends, And Never pines for Fame, glory and gain. Not cruel, but as fearless as a lion, No demand from any corner for alms, As benevolent as the Sun Never expects some return Even by mistake, Who attains victory over sleep and the sense organs, Well-intentioned like a water-reservoir. Modest in diet, benevolent moderate counsellor, One of those, who are desirous of the jewel of Supreme Soul; Who, for the cleansing of his own drawbacks Should be self-critical, What to talk of censuring the others... Whose ears are never eager Even to hear the calumny of others ...As if they have turned deaf Despite being The renowned, the strong-minded and an ascetic Whose tongue turns mute In the context of his own applause. Whose Winter night passes On the shores of a sea, a river, or a lake, Thereafter...
  21. पात्र-दान अतिथि-सत्कार। परन्तु, पात्र हो पूत-पवित्र पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो पीयूष-पायी हंस-परमहंस हो, अपने प्रति वज्र-सम कठोर पर के प्रति नवनीत... ...मृदु और पर की पीड़ा को अपनी पीड़ा का प्रभु की ईडा में अपनी क्रीड़ा का संवेदन करता हो। पाप-प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह पवन-सम निःसंग परतन्त्र-भीरु, दर्पण-सम दर्प से परीत हरा-भरा फूला-फला पादप-सम विनीत। नदी-प्रवाह-सम लक्ष्य की ओर, अरुक, अथक...गतिमान। मानापमान समान जिन्हें, योग में निश्चल मेरु-सम, उपयोग में निश्छल धेनु-सम, लोकैषणा से परे हों मात्र शुद्ध-तत्त्व की गवेषणा में परे हों, छिद्रान्वेषी नहीं गुणग्राही हों, प्रतिकूल शत्रुओं पर Alms to a worthy personage, hospitality to a guest. But, The personage should be deserving and pious Should be a traveller on foot, using his palms as his vessels A nectar-taker, a liberated soul a great ascetic with divine powers, Hard upon himself like a thunder-bolt For the others, as soft and mild… As butter..., and Should be experiencing His own pain in the pain of the others’ His own playfulness in the eulogy to God. Free from all snares of sin Fully, without bondage, like air, Afraid of dependence, Like a mirror, devoid of arrogance Humble like a tree - Green, grown-up, under perfect fruition. Like the flow of a river, Towards his destination Undeterred, unwearied...dynamic. For whom regard and disregard is similar, Firm like the Mount Meru,while observing penance, Like an honest cow while providing functional consciousness, Who lives beyond worldly ambitions Attains excellence only in the Investigation of Supreme Reality; Should be the merit-seeker And not the fault-finder Who never tells heavily upon The opposing foes,
  22. ३-०४–२०१६ सागडोद (बाँसवाड़ा राज०) ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञायक के साक्षात्कार गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल प्रणति निवेदित करता हूँ... हे गुरुवर ! नसीराबाद के शान्तिलाल जी पाटनी ने आपका परीक्षक बनकर ब्रह्मचारी विद्याधर जी की परीक्षा ली और उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की। उन्होंने बताया मुनि बनने के बाद भी परीक्षा से पीछा नहीं छुटा "अजमेर चातुर्मास १९६८ के समय मुझे एक दिन गुरुजी ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा- शान्तिलाल आप सदा मोक्षमार्ग प्रकाशक की बात करते हो। हमारे मुनि विद्यासागर जी उसे कभी नहीं पढ़ते। तब मैंने कहा- मैं परीक्षा कर लूँ क्या ? तो ज्ञानसागर जी महाराज ने अनुमति दे दी। मैं मुनि विद्यासागर जी के पास गया और उन्हें मोक्षमार्ग पढ़ने के लिए दिया। तो वो बोले-गुरुजी की आज्ञा है कि आचार्य प्रणीत ग्रन्थ ही पढ़ा करें और उन्होंने लेने से मना कर दिया।" इस तरह विद्यासागर जी की कभी भी कैसी भी परीक्षा करो। वो कभी अनुत्तीर्ण नहीं हुए। इस संसार से उत्तीर्ण होने के लिए गुरु आज्ञा नौका के समान है जिस पर मुनि श्री विद्यासागर जी चढ़ गए हैं, निश्चित ही उस पार उतरेंगे। ऐसी आज्ञाकारिता को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. कर पर ले, फिर धरती पर रखता जा रहा कुम्भों को। धरती की थी, है, रहेगी माटी यह। किन्तु पहले धरती की गोद में थी आज धरती की छाती पर है कुम्भ के परिवेश में। बहिरंग हो या अन्तरंग कुम्भ के अंग-अंग से संगीत की तरंग निकल रही है, और भूमण्डल और नभमण्डल ये उस गीत में तैर रहे हैं लो कुम्भ को अवा से बाहर निकले दो-तीन दिन भी व्यतीत ना हुए उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न बता रहा है सबको, कि अब ना पतन, उत्पतन… उत्तरोत्तर उन्नयन-उन्नयन नूतन भविष्य-शस्य भाग्य का उघडून...! बस, अब दुर्लभ नहीं कुछ भी इसे सब कुछ सम्मुख...समक्ष! भक्त का भाव अपनी ओर भगवान को भी खींच ले आता है, वह भाव है- Taking them up on the palm, Is placing the pitchers on the earth. of the Earth was, is and shall remain This soil. But formerly it was into the lap of the Earth, While today, it dwells upon the chest of the earth In the appearance of the pitcher. Whether it is outward or inward, A wave of music is flowing out From each and every limb of the pitcher, And These spheres of earth and sky Are floating into that song. Lo, even two or three days only weren't gone When the pitcher was brought out of the kiln The gush of noble sentiments within its mind Is indicating to all that, There is now no falling down only uprising... Progressive upgrading, uplifting, The unfolding of the fortune Of a new future-harvest...! Enough, Now, nothing is beyond its reach Everything present within...the eye-view ! The true devotion of a devotee draws Even God towards his side, That sentiment is –
  24. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह भीतरी दोष-समूह सब जल-जल कर बाहर आ गये हों, जीवन में पाप की प्रश्रय नहीं अब, पापी वह प्यासे प्राणी को पानी पिलाता भी कब? कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा-सी तैरता-तैरता पा लिया हो अपार भव-सागर का पार। जली हुई काया की ओर कुम्भ का उपयोग कहाँ ? संवेदन जो चल रहा है भीतर...! भ्रमर वह अप्रसन्न कब मिलता है? उसकी भी तो काया काली होती है, सुधा-सेवन जो चल रहा है सदा! काया में रहने मात्र से काया की अनुभूति नहीं, माया में रहने मात्र से माया की प्रसूति नहीं, उनके प्रति लगाव-चाव भी अनिवार्य है। सावधान हो शिल्पी अवा से एक-एक कर क्रमशः It seems to appear as if All the jumble of inner vices On being burnt off Has emerged out, There is no protection in life for sins now, When does a sinner Make a thirsty being Even to drink water ? On the face of the pitcher, there reflects joy as that of a liberated soul As if, while swimming constantly, the other extremity Of the endless, ocean of existence has been reached. Where is the applied consciousness of the pitcher Towards its scorched body ? It is the introspection which is transpiring inwardly....! When does the large black bee Is found unhappy ? Its body too is dark black indeed, Although it is found always busy with gathering honey! Only by being into a body The bodily perceptions aren't necessarily gained, Illusions aren't born Due to merely dwelling into illusory worldliness, The sense of attachment and longing too Is inevitable for them. The Artisan, having a cautious approach towards the Kiln One by one, in an orderly manner,
  25. २-0४–२०१६ वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः) कल्पद्रुम महामण्डल विधान दिगम्बरत्व के संवाहक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में त्रिकाल प्रणति निवेदित करता हूँ... हे गुरुवर! अजमेर चातुर्मास में जब आपने केशलोंच किया था। उस दिन दिल्ली निवासी मानकचंद जैन ने अपनी आँखों से जो कुछ देखा। वह संस्मरण सुनाया और लिखकर दिया, जिसको सुनकर आपकी दूरदर्शिता अनुभूत हुई, वह मैं आपको बता रहा हूँ OCEAN OF KNOWLEDGE “३-११-१९६८ अजमेर, सोनी जी की नसियाँ के प्रांगण में पूज्य मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के केशलोंच को दो विदेशी व्यक्ति देख रहे थे। एक फ्रांस का था और दूसरा स्विट्जरलैंड का था। दोनों ने नसियाँ जी के पिछले भाग में विश्व की अद्वितीय स्वर्ण से निर्मित अयोध्या नगरी का दृश्य देखा और उसके बाद नीचे पूज्य मुनि श्री ज्ञानसागर जी महाराज के केशलोंच देखे और फोटो खींचे। दिगम्बरत्व रूप को देखकर एवं केशलोंच की क्रिया देखकर वो बड़े आश्चर्यचकित हो रहे थे। तब टीकमचंद जैन हाई स्कूल के प्रिंसिपल श्री मनोहरलाल जी ने उन्हें अंग्रेजी भाषा में दिगम्बर मुनि के बारे में समझाया। तो वो बहुत आश्चर्य करने लगे। उन्होंने नाम पूछा तो मनोहरलाल जी ने उन्हें बताया '0CEAN OF KNOWLEDGE' नाम सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने मुनि ज्ञानसागर जी के साथ फोटो खिचवाने की प्रार्थना की। तो ज्ञानसागर जी महाराज ने स्वीकृति दे दी। उन्होंने फोटो खिचवा ली। उसके बाद ज्ञानसागर जी महाराज जाने लगे जैसे ही वो खड़े हुए तो उन्होंने पुन: खड़गासन अवस्था के साथ फोटो खिचवाई ताकि अपने देश में यह साधुता दिखा सकें। फोटो खिचवाने के बाद दोनों विदेशी बड़े खुश हुए जैसे कोई निधि मिल गई हो। तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'धर्म प्रभावनार्थ आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने भी यह किया था।" इस तरह हे गुरुवर! आपने धर्मप्रभावनार्थ कई कार्य किए-कराये, किन्तु अपनी चर्या में दोष नहीं लगाया। आपकी इस विशेषता से लोग बड़े प्रभावित थे। इस सम्बन्ध में दिल्ली निवासी प्रेमचंद जैन जयको घड़ी जैनावॉच कंपनी एवं अधिष्ठाता श्री दिगम्बर जैन अहिंसा स्थल महरौली, दिल्ली ने एक संस्मरण लिखकर भेजा, जो मैं आपको बता रहा हूँ ज्योतिष आत्मविद्या नहीं “मुनि ज्ञानसागर जी महाराज ज्योतिष के धुरन्धर विद्वान् थे, किन्तु मुनि अवस्था में उसका उपयोग नहीं करते थे। मैं उनको पहले से जानता था जब वे देशभूषण जी महाराज के साथ क्षुल्लक अवस्था में कुछ दिन रहे। मोदी नगर मेरठ में एक दिगम्बर जैन मंदिर बनकर तैयार हुआ और उसकी प्रतिष्ठा का मुहूर्त किससे निकलवाया जाए ऐसी समस्या खड़ी हुई। तब मुझे क्षुल्लक ज्ञानभूषण जी का ध्यान आया और पता चला कि वे वर्तमान में दिगम्बर मुनि बन चुके हैं। मैं उनके पास गया एवं उनसे निवेदन किया। तो उन्होंने बड़ी मुश्किल से प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकालकर देते हुए कहा था- ‘अब मैं यह कार्य नहीं करता।' तब हमने कहा-महाराज ये तो मंदिर की प्रतिष्ठा का मुहूर्त है। तो बोले- 'अब मेरी अवस्था इसके लिए नहीं है। ये सब विकल्प के कारण हैं और आत्मसाधना में बाधक हैं। ज्योतिष ज्ञान आत्मविद्या नहीं है।' तब हमने क्षमा माँगी कि आगे से आपको कोई विकल्प नहीं कराऊँगा। तभी मुहूर्त निकालकर दिया था।" इस तरह आप अपनी चर्या को निर्दोष बनाये रखने के लिए बड़ी ही चतुराई से समाधान दिया करते थे। जिससे श्रावकगण संतुष्ट होकर जाते थे और आपके लाड़ले शिष्य भी आपके दिए संस्कारों को पूर्णत: पालन करते हुए ज्योतिष या तंत्र-मंत्र से कोशों दूर हैं। आपके द्वारा दिया गया आत्मज्ञान, अध्यात्म विद्या में सदा लीन रहते हैं। वही उनका ज्ञान है, वही उनकी सोच है, वही उनकी चर्या है, वही उनकी साधना है, वहीं उनकी तपस्या है, वही उनका उपदेश हैं। इसी तरह दिल्ली की श्रीमती कनक जैन (वर्तमान वानप्रस्थ आश्रम ज्ञानोदय अजमेर में साधनारत) ने एक संस्मरण लिखकर दिया। जिसको सुनकर कुतर्कियों के मन की उहापोह समाधित हो जाती है। वह संस्मरण आपको लिख रहा हूँ चश्मा परिग्रह नहीं “एक बार की बात है। अजमेर में सोनीजी की नसियाँ में गुरुजी ज्ञानसागर जी महाराज स्वाध्याय कर रहे थे। तब वहाँ बहुत से लोग स्वाध्याय सुन रहे थे। इतने में एक महानुभाव ने कहा- महाराजश्री कुछ लोग आपको नमस्कार नहीं करते। उनका कहना है कि आप चश्मा लगाते हैं और चश्मा मुनियों के लिए परिग्रह है। यह बात सुनकर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया- ‘यह कथन सही हो सकता है। यदि चश्मे को परिग्रह के रूप में उपयोग किया जाए तो चश्मा परिग्रह तब बनेगा जब चश्मे से चक्षु इन्द्रिय का विषय- रूप सौन्दर्य का सेवन किया जाये, परन्तु दिगम्बर मुनि की यदि आँख कमजोर है और शरीर स्वस्थ है। ऐसी स्थिति में वह समाधि नहीं ले सकता। तब खाली बैठकर क्या करेगा ? और अध्ययन नहीं करेगा तो रत्नत्रय कुशल नहीं रह पायेगा, प्रौढ़ नहीं बन पायेगा, विशुद्ध नहीं बन पायेगा अतः चश्मा के माध्यम से मुनि स्वाध्याय, चर्या, समिति आदि का पालन करता है, तो उससे कर्म बन्ध नहीं अपितु निर्जरा ही होगी। तो वह परिग्रह कैसे हुआ ? वह तो उपकरण है। यह सुनकर उपस्थित सभी जन प्रसन्न हो गए और वो सज्जन भी संतुष्ट होकर चले गए।" इस तरह आपकी वाणी से मन के द्वन्द्वों की समाधि अनुभूत होती है। आपके अंदर विराजमान जिनसरस्वती को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
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