लेखनी लिखती है कि-
गुरु के पास नहीं जड़ संपत्ति
फिर भी क्यों भागते हैं भक्त,
लगाये ध्यान योग लीन हैं गुरु अपने में
फिर भी क्यों होते हैं अनुरक्त।
नाशवान जड़ संपदा त्याग कर
कई भक्त खाली होकर आते हैं
या यूँ कह दें कि विपत्ति स्वरूप जड़ संपत्ति छोड़कर
शाश्वत सुख संपत्ति से झोली भर ले जाते हैं।
जो स्वयं आकिञ्चन्य हैं वे क्या देंगे
कई नास्तिक यह सोचते होंगे ?
सच यही है कि-
गुरु कुछ देते नहीं पर मिल जाता है
सूरज को देखते ही ज्यों कमल खिल जाता है।
यहाँ लेखनी भी कुछ लिखना चाहती है कि-
जगत् से अनंत गुणा प्रेम
जगत्गुरु से करना है
तो गुरु कहते हैं-
मुझसे भी अनंत गुणा प्रेम
श्री प्रभु से करना है
तो प्रभुवर कहते हैं-
मुझसे भी अनंत गुणा प्रेम
स्वयं में स्वयं से करना है।
यहीं से सच्चे सुख का द्वार खुलता है
इस प्रसंग पर निश्चयवादी आत्मा कहता है-
लक्ष्य है जब स्वयं में ही समर्पित होना
तो गुरु के समीप जाकर व्यर्थ समय क्यों खोना ?
उसे कैसे समझायें कि
समय की मौलिकता भी गुरु ने बतलायी है
सदगुरु के बिना ही चेतना अब तक रोयी है
अब रोना नहीं गुरु श्रीविद्यासागरजी आ गये हैं
पाकर गुरु की विराग दृष्टि
लगता है सब कुछ पा गये हैं।