लेखनी लिखती है कि
गुरु शिष्य को कभी गिराते नहीं
मोह से घिरे हुए का मोह छुड़ाते हैं
गिरे हुए को गुरु उठाते हैं
उठाकर स्नेह से बिठाते हैं
बिठाकर उसे स्वयं चलकर दिखाते हैं
उसे भी चलना सिखाते हैं,
धन्य हैं गुरु जो शिष्य को
बाह्य जगत् से उठाकर
अंतर्जगत् में ले जाते हैं।
फिर भी कोई शिष्य रह जाता अनाड़ी
जिसे अनुशासन भी बंधन लगता है
सुनकर भी गुरु के वचन क्रंदन करता है
जिसे भक्ति का स्वर भी रुदन लगता है
अरे! आकाश पर धूल फेंकने से
स्वयं ही धूल से भर जाओगे
उन पर शूल उछालने से
स्वयं ही शूलों में छिद जाओगे
लेखनी करती है निवेदन-
ऐसे शिष्य कभी मत बनना
गुरु-शिष्य की पवित्र परंपरा
कभी कलंकित मत करना,
वरना कलकल होता रहता जहाँ
ऐसी कलंकला में जन्म लेना पड़ेगा
वहाँ गुरु ही नहीं मिलेंगे
तो दुखों से कौन बचायेगा
अभी भी अवसर है गुरु श्रीविद्यासागरजी मिले हैं
जिनसे अनेक मुरझाये सुमन भी खिले हैं।