लेखनी लिखती है कि
गुरु तो क्षीरसागर की भाँति हैं
जो मिष्ट भी हैं इष्ट भी हैं
ज्ञान की प्यास भी बुझाते हैं
कर्मों की तपन भी मिटाते हैं
गुरु तो पूनम के चाँद की भाँति हैं
उज्ज्वल भी हैं सुंदर भी हैं
आबाल वृद्ध को प्यारे हैं
अज्ञान अंधेरे में गुरु ही सहारे हैं
गुरु तो सुमेरु की भाँति हैं
जो अडिग हैं उत्तुंग भी हैं
साधना से डिगने नहीं देते
शिष्यों को गुणों से उन्नत शृंग-सा कर देते।
गुरु तो दीये की लौ की भाँति हैं
जो स्वयं जलता है प्रकाश भी देता है
नीचे से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है
नि:स्वार्थ भाव से जीने का संदेश देता है
देखा है इन आँखों ने
सुना है इन कानों ने कि-
चलते हैं गुरु, मंजिल पाते हैं शिष्य
करते हैं गुरु, नाम पाते हैं शिष्य
श्रम करते हैं गुरु और विश्राम पाते हैं शिष्य
शब्द कोष में जितने भी प्रशंसात्मक हैं शब्द
सारे गुरु-महिमा में कम पड़ जाते हैं।
गुरु कहते हैं मात्र महिमा न गाओ
अपनी अस्मिता भी जान लो
मेरा श्रम सार्थक हो जायेगा
जिस दिन तू मेरे जैसा ही नहीं
प्रभु जैसा हो जायेगा
ऐसे विशाल हृदयी हैं गुरुवर श्रीविद्यासागर
मन आनंदित होता ऐसे गुरु के दर्शन पाकर।