लेखनी लिखती है कि
गुरु लोभवश मत बनाना
कि वह तुम्हें भगवान् बना देंगे,
गुरु भयवश मत बनाना
कि वह तुम्हें नरक से बचा लेंगे,
गुरु स्वार्थवश भी मत बनाना
कि वह बिगड़ी बना देंगे,
मेरी खाली झोली भर देंगे,
गुरु कर्त्तव्यवश भी मत बनाना
कि सब गुरु बनाते हैं तो मुझे भी बनाने पड़ेंगे
मेरे भी कभी काम आयेंगे
प्रसिद्ध गुरु मेरी प्रसिद्धि बढ़ायेंगे।
बल्कि गुरु बनाना है तो
तय करो वह तुम्हारी मिथ्या मान्यता मिटा देंगे
जो तुम्हें प्राणों से प्रिय हैं
उसे तुम्हारे प्राणों से हटा देंगे
अपना मानकर जो किया है एकत्रित तुमने
वह सब तुमसे छीन लेंगे
बदल देंगे तुम्हारा जीवन
और बदले में लौटा देंगे तुम्हारा चैतन्य धन।
जो शिष्य स्वयं अपने लिए कर न पाया
अपने होकर गुरु कर देते हैं वह
वास्तव में गुरु एक अनुपम शक्ति है
चर्म चक्षु से दिखती नहीं है वह
श्रद्धा चक्षु से उसके होने का
मात्र एहसास किया जाता है।
गुरु जो देते हैं अदृश्य देते हैं
दृश्य जगत् को कहाँ दिख पाता है
दिखाने का प्रयोजन ही क्या
गुरु-शिष्य का आपसी यह नाता है
जिसका कोई गुरु नहीं
वह यह अनुभव कर नहीं सकता,
शिष्य की चेतना कहती है-
जिसके गुरु हों श्रीविद्यासागरजी जैसे
वह संसार में भटक नहीं सकता।