लेखनी लिखती है कि
शिष्य का जो भी ज्ञान है
गुरु आशीष का ही फल है
शिष्य की स्वयं से जो पहचान है
यह गुरु का ही एहसान है।
माना कि स्वर्ण पाषाण अपने आप में है कीमती
पर आँच में तपकर निखर जाता है
कई गुना चमक जाता है
जब आभूषण में परिवर्तित हो जाता है,
माना कि रत्न पाषाण खान में रहकर भी है कीमती
पर शिल्पी के हाथ में आ वंदनीय हो जाता है
कई गुना कमनीय हो जाता है
जब उसे तराश कर मूर्ति बना देता है
पत्थर से भगवान् बना देता है।
श्रेष्ठ बनना चाहता है हर कोई
पर गुरु बिन कौन श्रद्धा जगा पाता है ?
बिना श्रद्धा तेल के
श्रेष्ठता का दीया कौन जला पाता है ?
इसीलिए दीया जलाने के पूर्व
शिष्य को निश्छिद्र पात्र समझकर
गुरु उसमें ज्ञान का तेल भर देते हैं
फिर उसे आत्मज्योति की धरोहर सौंप
स्वयं को निश्चित कर लेते हैं।
गुरु की शक्ति को तोलो मत
वह अतुलनीय है
गुरु ने जो दिया है उसे कहो मत
वह अकथनीय है
गुरु हमारे चारों ओर मौजूद हैं
बस नयन खोलना है
भावो से भरकर गुरुवर विद्यासागर-विद्यासागर
बस पुकारना है |