लेखनी लिखती है कि-
सुनी होगी कहावत तुमने
"पूत हो सकता है कपूत
पर माता कुमाता नहीं होती"
इसके आगे भी है एक युक्ति
शिष्य हो सकता है मतलबी
पर गुरु की वृत्ति कभी स्वार्थी नहीं होती।
सरिता तो सरकेगी ही
सूरज तो उगेगा ही
चंदा तो चाँदनी छिटकायेगा ही
वृक्ष तो उगेगा ही
सारी प्रकृति लीन है अपने में
पर मनुष्य व्यर्थ समय खोता लड़ने में
दूसरों पर अधिपत्य जमाता है
तभी तो संकटो से घिर जाता है।
लेखनी भी हसँती है उसकी मूढ़ता पर
क्या धरती को बांटा जा सकता है ?
क्या आसमाँ को काटा जा सकता है ?
गुरु जड़ संपत्ति नहीं कि
आपस में बाँट ले
गुरु कोई जमीं जागीदारी नहीं कि
अपनी-अपनी नाप ले।
अरे! गुरु तो होते विराट
सम्राटों के भी सम्राट
जिन्हें शीश झुकाने मनुज ही क्या
देवता भी तरसते हैं
ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी के चरणों में
त्रियोग से नमते हैं।