लेखनी लिखती है कि
गुरु किसी एक से बँध नहीं सकता
बहती नदी का जल
किसी के हाथों की ओट से रुक नहीं सकता
तरङ्गिणी है वह तो प्रवाहित होगी ही
अपार सागर की ओर
गुरु जा रहे परम प्रभु से मिलने
पाने भव समंदर का छोर
शिष्य स्नेह का बंधन उन्हें रोक नहीं सकता।
वे तो चलते हैं अविरल मंजिल तक
पथ पर मुड़कर कभी देखते नहीं,
जिन्हें पाना है गुरु से प्रभु-पथ
वे आयें, पथ पायें, किसी को गुरु रोकते नहीं।
जो दुखी हैं
बहिर्मुखी हैं
जिसकी मति की अधोगति है,
उसे अपनी दिव्यदृष्टि की किरण मात्र से
अंतर्मुखी करते हैं,
तब कहने में आता है, गुरु ही सुखी करते हैं
जो स्वयं ऊर्ध्वगति से रति करते हैं
स्वसन्मुख मति रखते हैं।
जानते हैं वे कि-
दैहिक सुख सीमित है
आत्मिक सुख असीम है
देह ही जब विनाशीक है तो
उससे प्राप्त सुख अविनाशी कैसे हो सकता है ?
आत्मा शाश्वत है तो
उससे प्राप्त सुख क्षणिक कैसे हो सकता है ?
इसीलिए दैहिक दृष्टि से सुख मिलता नहीं
और आत्मिक दृष्टि होते ही दुख रहता नहीं
इस तरह तत्त्व ज्ञान बाँटते हुए गुरु
द्रुतगति से लक्ष्य पथ पर बढ़ते जाते हैं,
विद्याधर जैसे पुण्यशाली शिष्य ही
गुरु श्रीज्ञानसागरजी से ज्ञान ले पाते हैं।