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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. देखो एक छोटी सी नाव जिसमें छेद ना हो अपार समुद्र को पार कर जाती है। वह नाव ना ही जल और ना ही जल की गहराई से डरती है, किन्तु कभी-कभी वह भी घबरा जाती है। घबराहट का कारण, जल का वह अंश जो बर्फ के रूप में बदला, जल की गहराई को छोड़कर जल की सतह में तैर रहा है आधा डूबा हुआ-हिमखण्ड। जो कि मानो मानकषाय को नापने का साधन बना हो। हिमखण्ड जल की सरलता को रोकने वाला, विषपने को उगलने वाला, जल के पतलेपन को सुखाने वाला और सघनता-ठोसपने का पालन-पोषण करने वाला है। स्वयं तैरना नहीं जानता, ना ही तैरना चाहता है, किन्तु उसकी परिणति तो देखो, जो सबको पार लगाने वाली ऐसी नौका और नाविक (खिवैया) को ही डुबाना चाहता है वह। सदा तन (अकड़) कर जल के ऊपर रहना चाहता है, जल में घुल मिलकर नहीं, सारे संसार को नीचे पहुँचाकर, स्वयं उनके ऊपर रहना चाहता है। हे मानी प्राणी! दूसरी ओर जल को तो देख और अब अपनी परिणति को सुधार, सरल बन। हे मान कषाय से रहित, सर्वज्ञ प्रभो! यह मान कब समाप्त होगा पता नहीं ? माटी की उपदेश धारा अभी समाप्त नहीं हुई, किन्तु सामान्य अर्थ से हटकर विशेष की ओर, प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर बहती हुई बोलती है माटी, तुम्हें स्वभाव-विभाव को जानना होगा। बीज का बोना हुआ, जल की वर्षा और बीजों का अंकुरण, फिर कुछ ही दिनों में अंकुरित बीज फसल बनकर लहलहाते हैं। फिर बर्फ नहीं किन्तु बर्फीली हवा भी कुछ ही समय में पकी फसल को जला देती है, आग-सी। जिसे ‘पाला पड़ गया' कहा जाता है फसल का जीवन समाप्त, दाना नष्ट । स्वभाव में रहा जल प्राण प्रदाता बनता है, जबकि विभाव रूप में परिणत जल प्राण हरने वाला बन गया। यही स्वभाव-विभाव में अन्तर है। जिन्होंने जीवन की यथार्थता को जान लिया, ऐसे सन्तों की वाणी है यह।
  2. आगे शिल्पी कंकरों को समझाता हुआ और भी कुछ कहता है- अरे कंकरों! थोड़ा विचार तो करो वर्षों से माटी के साथ रहते आ रहे हों, पर उसमें एकमेक नहीं हुए तुम! अपने अस्तित्व को पृथक् ही बनाए हुए हों। माटी को छुआ पर माटी में घुल ना सके तुम और इतना ही नहीं चलती चक्की में डालकर पीसने पर भी तुमने अपने कठोर स्वभाव को नहीं छोड़ा, भले ही रेत के समान चूर्ण बन गए पर माटी नहीं बने तुम। तुम पर यदि जल डाला जाए भीग तो जाते हों पर माटी के समान मृदु बन फूलते नहीं, तुममें कभी माटी जैसी नमी नहीं आ पाती, क्या यह तुम्हारी कमी नहीं है बोलो ! और फिर तुम्हारे भीतर जल धारण करने की क्षमता कहाँ है? युगों-युगों से तालाब-नदियों के जल में रह रहे हों, पर स्वयं जल को सहारा देने वाले नहीं बन सके तुम! मैं तुम्हें हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा, किन्तु तुम्हारा हृदय पत्थर का अवश्य है, तभी तो दूसरों के दुख-दर्द को देखकर भी हृदय पिघलता नहीं तुम्हारा। फिर भी ऋषि मुनियों-सन्तों से यही उपदेश मिला है हमें कि – "पापी से नहीं पर ! पाप से, पंकज से नहीं पर ! पंक से घृणा करो। अयि आर्य नर से नारायण बनो समयोचित कर कार्य।" (पृ. 50) पापी से नहीं पाप से घृणा करो, क्योंकि पाप के संयोग से ही व्यक्ति पापी बनता है, पाप छूट जाए तो व्यक्ति पुन: अच्छा बन सकता है। इसी प्रकार कमल से नहीं कीचड़ से घृणा करो। मनुष्य से भगवान् बनने का पुरुषार्थ करो। हे आर्य! नर भव मिला है आत्मकल्याण करना ही अब उचित है। शिल्पी की उपरोक्त बातें कंकरों को कड़वी दवाई-सी लगीं। वे कंकर दीनता भरी नजरों से माटी की ओर देख रहे हैं तथा माटी भी स्वतन्त्रता भरी आँखों से, मुड़कर कंकरों की ओर देख रही है। माटी की शालीनता कुछ उपदेश देती लग रही है। हे कंकरो! यदि तुम अपने जीवन को अच्छा बनाना चाहते हो, तो तुम्हें महासत्ता माँ (सर्वव्यापक अथवा केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापी परमात्मा) की खोज करनी होगी, परमात्मा के स्वरूप को जानना होगा। अपनी इच्छाओं को सम्यक्/अच्छी बनाना होगा तथा अपनी संकीर्ण विचारधारा का वमन करना होगा अर्थात् मैं और मेरापन को भीतर से निकाल, बाहर फेंकना होगा। अर्थ यह हुआ कि हल्केपन का त्याग ही बड़प्पन को पाना है और शुभ, उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करना है।
  3. कंकरों की कठोर वाणी सुनकर भी शिल्पी के मन में थोड़ा-सा भी तनाव (Tension) पैदा नहीं हुआ, वह पृथ्वी के समान क्षमावान ही बना रहा। फिर सहज रूप से समता के साथ कुछ कहता है शिल्पी -‘संकर दोष के विषय में वर्ण से आशय ना ही शरीर के रंग से है और ना ही शरीर से किन्तु चाल-चलन तरीके से है यानी - "जिसे अपनाया है उसे जिसने अपनाया है उसके अनुरूप अपने गुण धर्म- ....रूप स्वरूप को परिवर्तित करना होगा वरना वर्ण-संकर-दोष को वरना होगा!" (पृ. 47) अर्थात् जिसे स्वीकार किया जा रहा है उसको स्वयं का जीवन, जो उसे स्वीकार कर रहा है उसके अनुसार ढालना, अपने गुण-धर्म स्वभाव को परिवर्तित करना ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो नियम रूप से उसे संकर दोष को स्वीकारना ही होगा और यह अनिवार्य ही है। इस कथन से वर्ण लाभ का निषेध हुआ हो, ऐसा नहीं, चाहो तो उदाहरण के माध्यम से इस विषय को समझ सकते हो-दूध और पानी दोनों की जाति भिन्न-भिन्न है, दोनों का स्पर्श, स्वाद, रंग भी भिन्न-भिन्न ही है, किन्तु दूध में विधि (तरीके) अनुसार, योग्य मात्रा में पानी मिलाते ही पानी दूध रूप में परिवर्तित हो जाता है, यह सभी को ज्ञात है और सुनो रंग की अपेक्षा देखा जावे तो आक के दूध का रंग और गाय के दूध का रंग दोनों दूधिया सफेद हैं, दोनों ऊपर से स्वच्छ हैं किन्तु उन्हें आपस में मिलाने पर दूध फट जाता है, दुख का कारण बन जाता है। अत: पानी का दूध बनना ही वर्णलाभ है, जो कि वरदान है और दूध का फट जाना ही वर्ण संकर है जो कि अभिशाप है। इन सब बातों का यही परिणाम निकला अब ज्यादा कथन से विराम हो। विशेष : प्राणी मात्र का उद्धारक यह जिनशासन अनादिकाल से इस धरा पर विद्यमान है। इसकी शरण को प्राप्त हुए चाण्डाल, धीवर, भील जैसे निम्न जाति के मनुष्यों तथा श्वान, सूकर आदि तिर्यच्चों ने भी अपने जीवन को श्रेष्ठ / उन्नत बनाया। सत्धर्म को जीवन में अंगीकार कर वे स्वर्गों के देवों द्वारा भी पूज्यता को प्राप्त हुए। श्रावकाचार, पुराण/ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं किन्तु वर्तमान परिवेश में कतिपय लोगों की धारणानुसार धर्म से ज्यादा महत्व जाति को दिया जा रहा है, जिनधर्म भले छूट जाए किन्तु जाति नहीं छूटना चाहिए। हमें ऐसा लगता है कि संभवत: उन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए आचार्य श्री ने यह चिन्तन दिया होगा। आचार्यश्री एक साधक मात्र ही नहीं अपितु विशेष जिनशासक प्रभावक, समाज उद्धारक सन्त भी हैं। जिनकी कृपा एवं उदार दृष्टिकोण के फलस्वरूप सैकड़ो दिगंबर श्रमण, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक और श्राविकाएं आचार्य कुंद कुंद की निर्दोष परम्परा का पालन करते हुए भारत भूमि पर भ्रमण कर रहे हैं। आचार्य श्री का मानना है कि व्यक्ति में अहिंसादि व्रतों के संस्कार से श्रेष्ठता आ सकती है। धर्म भव-भव का साथी है जबकि जातियाँ तात्कालिक परिस्थितियों वश निर्मित, हमारी स्वयं की कल्पनाएँ हैं। यदि किसी कन्या का विवाह, जैनधर्म पालित परिवार को छोड़कर, अन्य धर्मावलंबी से किया जाता है, मात्र इस कारण से कि उसके योग्य धन-धान्यादि से सम्पन्न वर उनकी जाति में नहीं है तो यह उचित नहीं है। जाति भिन्न भी हो किन्तु यदि सनातन जिनधर्म को नहीं छोड़ा जावे तो वर्ण लाभ ही माना जाएगा संकर दोष नहीं।
  4. शिल्पी मुख से पृथक्करण के कारणों को सुन कंकर कुछ और अधिक गरम हो गए। उनके होंठ फड़फड़ाने लगे तथा वचनों में भी पहले की अपेक्षा अधिक गरमाहट आ गई और वे कहते हैं शिल्पी से, अरे शिल्पी जी ! शरीर की बात हो या जाति की, वह माटी और हमारी एक ही है, भिन्नता तो हमें कहीं दिखती नहीं, आपको दिखती है क्या? कहीं आपकी आँखों का आपरेशन तो नहीं हुआ और रही रंग की बात तो अब क्या कहें! वह भी हम दोनों का समान है, जो प्रत्यक्ष दिख रहा है कृष्णजी के समान श्याम वर्ण, थोड़ा-सा भी फीका नहीं है। सुन तो रहे हो/ कान तो ठीक है न तुम्हारे, बहरे तो नहीं हैं। फिर रंग-दोष की चर्चा कहाँ रही अब चुपचाप आपको समान वर्ण वाले भीतर विराजित परमात्मा की पूजा करना चाहिए और पुनः हमें माटी में मिला देना चाहिए इतना कहकर कंकर चुप हो जाते हैं।
  5. गदहे की पीठ पर लदी माटी की उपाश्रम के प्रांगण में उतारा गया। माटी को छानने के लिए बारीक तार वाली चालनी लाई गई। शिल्पी स्वयं माटी को छान रहा है। अपनी दया से भीगी करुणामयी आँखों से चालनी के नीचे गिरी माटी को भाव सहित देखता है, फिर छनी माटी को अपने हाथ में उठाकर, रुचिपूर्वक अंगुलियों से छूकर देखता है। कंकरों-काँटों से रहित, घाव शून्य माटी को देख तन-मन से प्रसन्न होता है, तभी उसके मुख से बिना प्रयास ही वचन निकल पड़ते हैं कि ‘सरलता की यह उत्कृष्ट स्थिति है और नम्रता, मृदुता की उत्कृष्ट प्रसिद्धि है यह' धन्य ! शिल्पी ने माटी का शोधन किया, माटी को उसका यथार्थ रूप बताया। इधर चालनी में ऊपर बच्चे कंकरों में क्रोध-भाव का आना हुआ, फिर भी नपीतुली संयत भाषा में कंकर शिल्पी से पूछते हैं कि दीर्घकाल से माँ माटी के साथ हम रह रहे थे, आज आपने माँ माटी से हमें अलग कर दिया, इसमें कोई विशेष कारण है या बिना कारण ही, हम जानना चाहते हैं। इतना सुन शिल्पी कठोरता से रहित, मृदु शब्दों में कंकरों से कहता है कि ‘पहला कारण तो यह है कि मैं कुम्भ रूप शिल्प का निर्माण करना चाहता हूँ और शिल्प के लिए मुझे मुलायम, हल्की (कम भार) जाति वाली माटी की ही आवश्यकता होती है तभी शिल्प अच्छा बनता है, किन्तु भारी (वजनदार) जाति वाले कठोर कंकरों से वह शीघ्र ही बिखरता है और दूसरा कारण यह है कि संकर दोष को दूर करना था इसलिए कंकरों के समूह को अलग करना पड़ा जो अत्यन्त आवश्यक था।” (संकर का आशय आगे स्पष्ट किया जा रहा है।)
  6. शिल्पी द्वारा माटी को छाना जाता हे नीचे गिरी मृदु माटी का स्पर्श कर प्रसन्न होता शिल्पी, किन्तु माटी से पृथक् हुए कंकरों द्वारा क्रोध का प्रदर्शन। पृथक् करने का कारण-संकर दोष का वारण सुन, वर्णसंकर की चर्चा और शिल्पी द्वारा वर्ण का सही-सही अर्थ चालचरण ढंग बताना। पश्चात् कंकरों की कमी-माटी में घुलना नहीं, फूलना नहीं, पर के दुख-दर्द देख पिघलना नहीं। हिमखण्ड के प्रतीक द्वारा मान की बात माटी की शालीनता द्वारा । माटी की देशना जल स्वभाव और हिम विभाव के रूप में। कंकरों को भूल ज्ञात हुई और माँ माटी से मन्त्र की माँग-जिससे यह हीरा बने और खरा बने कंचन–सा, माटी की मुस्कान द्वारा माँग की पूर्णता।
  7. ♦विहार अप्डेट♦ मंगलवार 6/3/18 ????????? ??दिल्ली की ओर बढ़ते चरण?? परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के परम प्रभावक,आज्ञानुवर्ती, अर्हमयोग प्रणेता परम पूज्य ♦मुनि श्री १०८ प्रणम्य सागर जी महाराज ♦मुनि श्री १०८ चन्द्र सागर जी महाराज की मंगल आहार चर्या सांपला (हरियाणा) में सम्पन्न होगी। ⭕ दोपहर 3 बजे सामायिक के बाद मंगल विहार सांपला से बहादुरगढ़ की तरफ़ होगा। रात्रि विश्राम सवास्तिक इंडस्ट्रीज आसौदा (लगभग 9 कि. मी.) में होगा। ? कल प्रातः प्रथम बार भव्य मंगल प्रवेश श्री दिगम्बर जैन मन्दिर अनाज मण्डी बहादुरगढ़ में होगा।
  8. लेखनी लिखती है कि- यकीनन गुरु के अंत में कुछ तो खास है; क्योंकि परमात्मा गुरु के पास है। उनके नयनों की गहनता देख शिष्य की चंचलता नष्ट हो जाती है उनके विशाल भाल को देख शिष्य की अहमियत नष्ट हो जाती है उनकी सधी चाल को देख शिष्य का चंचल मन स्थिर हो जाता है उनकी शांत मुद्रा को देख शिष्य सारी दुनिया को भूल जाता है उनके वचन-सुधा को पीकर अंतर में तृप्त हो जाता है गुरु को पाने के बाद स्वर्गों का सुख भी फीका लगता है। इसमें कारण है गुरु का ज्ञान, गुरु का आत्मदर्शन गुरु का त्याग, गुरु का निजानुभवन उनकी साधना, आत्माराधना प्रभु से गुरु की निकटता परिणामों की निर्मलता ऐसे गुरु मात्र ग्रंथों में नहीं साक्षात् हैं इस धरा पर वह हैं गुरु श्रीविद्यासागरजी, जिनमें रत्नत्रय से भरी संयमित सागर की विद्यमान हैं गहराईयाँ, ऐसे गुरु के दर्शन को तरसती हैं मेरी अँखियाँ। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  9. सरिता तट की पतित माटी उपाश्रम में पहुँच गई है। यहाँ उसे मिला पूर्ण धार्मिक वातावरण, माटी को प्रथम बार ही हुआ उपाश्रम का दर्शन। यहाँ पर रात – दिन जोरदार मेहनत की जाती है, यहाँ मात्र उपदेश ही नहीं किन्तु चारित्र का भी पालन कराया जाता है, अत: योग-शाला भी है और प्रयोगशाला भी बहुत अच्छी। इस शाला में स्वयं शिल्पी क्षण-प्रतिक्षण उपस्थित रहकर शिक्षण और प्रशिक्षण (सैद्धान्तिक और प्रायोगिक ज्ञान) देता है। जिसका असर मात्र ऊपर ही ऊपर नहीं अपितु सीधा भीतरी जीवन पर पड़ता है। यहाँ मात्र किसी तरह जीवन बिताना नहीं, किन्तु उज्वल भविष्य हेतु कुछ नया कार्य-निर्माण करना सिखाया जाता है, इतिहास इस बात का साक्षी है। यहाँ पर आकर नीचे मुख करके रहने वाला पतित जीवन भी, ऊध्र्वमुखी हो उन्नति को प्राप्त करता है। संसार में हारा हुआ बेसहारा जीवन भी दूसरों को सहारा देने वाला बन जाता है। यह वह पवित्र क्षेत्र है जिसके दर्शन से दर्शनार्थी भी दिशाबोध पा जाते हैं। यहाँ पर आने से सदियों से उलझी समस्याएँ भी क्षण मात्र में सुलझ जाती हैं। संस्कार पाने के इच्छुक, यहाँ पर बिना याचना के ही सरल, आनन्ददायी भारतीय संस्कृति के संकेत, संस्कार पा जाते हैं। असि-अस्त्र, शस्त्र को धारण करने वाले क्षत्रिय, मषि-लेखन करने वाले लिपिक आदि, कृषि-खेती कार्य द्वारा आजीविका चलाने वाले कृषक और ऋषि-त्यागी, तपस्वी, ऋद्धिधारी पुरुष आदि को भी कुछ ऐसे सूत्र यहाँ मिलते हैं, जिससे वे निस्वार्थी साधक भी ऋषि प्रणीत आर्ष परम्परा यानि समीचीन निर्दोष मोक्षमार्ग प्राप्त कर लेते हैं। विशेष : उपाश्रम प्रतीक है गुरु–चरण–सान्निध्य का। भव्य जीव गुरु का सान्निध्य पाकर अपने पतित दुखी जीवन को, गुरु-निर्देशन में साधना करता हुआ उन्नत सुखी बना लेता है। क्षण भर की गुरु-संगति से पुरुर्रवा भील के जीव ने सौधर्म स्वर्ग के वैभव को प्राप्त किया और परम्परा से तिर्थंकर महावीर बना। दरदर की ठोकर खाने वाला, बेसहारा मृगसेन धीवर का जीव सोमदत राजा बन दूसरों को सहारा देने वाला बना। दर्शनार्थी पायप्पा आचार्य श्री शान्तिसागरजी के दर्शन मात्र से प्रभावित हो, मोक्षमार्ग के पथिक बन आचार्य पायसागरजी के रूप में पूज्य बने। भव-भव की मिथ्या धारणा, अज्ञान भी गुरु सान्निध्य में दूर हो जाता है, चक्रवर्ती वज़नाभि ने गुरु मुख से संसार, शरीर, भोगों के यथार्थ स्वरूप को जान पञ्च महाव्रत अंगीकार किए। पशु-पक्षी आदि प्राणी मूक होकर भी गुरु कृपा पा, संयम और सल्लेखना जैसे व्रतों को धारण करते हैं। हाथी, शेर, सर्प, बैल, सूकर आदि के उदाहरण आगम में मिलते हैं। गृहस्थों और साधुओं दोनों को गुरुसान्निध्य से समीचीन मोक्षमार्ग प्राप्त होता है। आदर्श गृहस्थ सेठ सुदर्शन, विजय सेठ-विजया सेठानी आदि का जीवन-दर्शन पुराण ग्रन्थों में प्रसिद्ध है।
  10. लेखनी लिखती है कि- गुरु समझाते हैं ज्ञानधन सँभाल कर रखना है यही अनमोल पूँजी है तुम्हारी इसे व्यर्थ नहीं खोना है ज्यों जुआरी हो यदि पुत्र तो पिता उसे रुपया देता नहीं त्यों अनाड़ी हो यदि शिष्य तो गुरु शिक्षा देता नहीं पात्र की पात्रता टटोलते हैं गुरु फिर ज्ञानामृत उँडेलते हैं गुरु कहना है गुरु का कि- स्वर्ण गुण से पहचाना जाता है आकार से नहीं, शिष्य विनम्र वृत्ति से जाना जाता है वचनों के उद्गार से नहीं। सच्चे शिष्य को नहीं चुभती गुरु की कठिन परीक्षाएँ उसकी दुनिया में बसती हैं गुरु और वह बस दो ही आत्माएँ शिष्य सदा चाहता है शिष्य ही बना रहूँ गुरु-कृपा छाँव में आनंद पाता रहूँ प्रत्यक्ष है जगत् में उदाहरण गुरु श्रीविद्यासिंधु का गुरु-पद वे लेना नहीं चाहते थे गुरु द्वारा दक्षिणा माँगने पर थे मजबूर वे तो गुरु के पद में ही रहना चाहते थे ऐसे गुरु-शिष्य की कहानी अमर रहेगी सदा इस भू पर जो शिष्य रहकर भी हो गए गुरु के भी गुरु जयवंत रहें मेरे श्रीविद्यासागर गुरु। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  11. लेखनी लिखती है कि- शिष्य है यदि खान का पाषाण तो सद्गुरु हैं शिल्पी, गुरु हैं यदि कुंभकार तो शिष्य है मिट्टी, शिष्य है यदि आधेय तो गुरु हैं आधार गुरु के बिना शिष्य का जीवन है बेकार। पाषाण भी छैनी की चोट खाकर बन जाता है भगवान्, खान का हीरा शान पर चढ़कर हो जाता मूल्यवान। महिमा शक्ति की नहीं शक्ति प्रगट कर्ता की है, कीमत वस्तु की नहीं उसकी उपादेयता की है। गुरु तब तक शिष्य को देता है जब तक वह औरों को देने योग्य न हो जाये स्वर्ण तब तक अनल में तपता है जब तक आभूषण बनने के योग्य न हो जाये गुरु देकर थकता नहीं और शिष्य पाकर भी पूर्ण होता नहीं; क्योंकि पूर्ण हो गया तो वह प्रभु हो जायेगा फिर तो गुरु-शिष्य का संबंध ही खो जायेगा। ऐसे ही थे शिष्य विद्याधर गुरु से ज्ञान पाते गये आनंद सरोवर में डूबते गये और हो गये निग्रंथ दिगम्बर सर्व प्रियंकर गुरुवर श्रीविद्यासागर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  12. लेखनी लिखती है कि- गुरु की भाषा में भावों का प्रभाव है उनके वचनों में पवित्र भागीरथी-सा प्रवाह है; क्योंकि सामान्य नहीं गुरु का ज्ञानदान इससे श्रेष्ठ कोई न दान ज्ञान से ही दुख के बंद होते हैं कपाट शाश्वत सुख के खुलते हैं द्वार। जिनके नयनों में प्रभु ही प्रभु दिखते हैं, जिनके वचनों में प्रभु के संदेश मिलते हैं, इन्हीं विशेषताओं से शिष्य इन्हें गुरु मानकर चरणों में नमते हैं। वे पहले करते हैं मनन मंथन फिर करते हैं कथन जिससे सुप्त जागृत हो जाते जागृत हैं वे उठकर बैठ जाते बैठे हैं वे खड़े हो जाते खड़े हैं वे चलना प्रारम्भ कर सत्य को उपलब्ध हो जाते। तो गुरु के शब्द सत्य के सम्मुख करते हैं ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी को शिष्य पल-पल भावों से नमते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  13. लेखनी लिखती है कि- गुरु के शब्द में अर्थ के चित्र उभरते हैं फिर गुरु उसमें अपनी अनुभूति के रंग भरते हैं तब शब्द के साथ दिखता है दृश्य देखते-देखते दृश्य होते हैं अदृश्य शेष रह जाता दृष्टा, शब्द के साथ जानने में आते हैं ज्ञेय जानते-जानते ज्ञेय होते हैं ओझल शेष रह जाता ज्ञाता, गुरु की मूरत भी तब ओझल होती है निज आत्मा की झलक आती है उन पलों में जो रस आता है उससे पुण्य का रस भी फीका लगता है। सच, गुरु के शब्द हैं दीप समान बिना चर्म चक्षु खोले ही होता है रोशनी का भान, देते हुए कुछ दिखते नहीं पर देते हैं अपूर्व अद्भुत दान ज्यों नदी पार करने चाहिए जहाज, त्यों दुख सरिता से उभरने चाहिए गुरु शब्द की नाव, इनके अनमोल वचनों को तोल नहीं सकते गुरु जो करुणा से भरकर बोलते नकल करके भी ऐसा कोई बोल नहीं सकते। इनके शब्दों की चमक के आगे हीरे की चमक भी पड़ जाती फीकी, इनके शब्दों की महक के आगे इत्र की महक भी पड़ जाती फीकी। सुनकर दो बोल गुरु-मुख से दैवीय सुख भी नीरस लगता है, इसीलिए तो श्रीविद्यासागरजी गुरुवर की वाणी सुनने को मन तरसता है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  14. दूसरों की दया करना, अपने स्वरूप-आत्म ध्यान को छोड़ पर उपकार में लगना, मोह-अज्ञानता का फल है, प्राय: अध्यात्म से दूर जैसा लगता है, ऐसी एकान्त धारणा नहीं बनानी चाहिए। ऐसी धारणा बनाने से अध्यात्म ज्ञान का दुरुपयोग तथा अपमान ही माना जाएगा, क्योंकि जब दूसरों पर दया करते हैं तो अपनी भी याद आती है, गौण मुख्यता भले ही हो। स्व के साथ पर का और पर के साथ स्व का ज्ञान होता ही है। जैसे चन्द्रमा को देखते हैं तो नीला आकाश दिखता है और यह भी सत्य है कि - "पर की दया करने से स्व की याद आती है और स्व की याद ही स्व-दया है विलोम - रूप से भी यही अर्थ निकलता है या.... द द..... या.....|" (प्र. 38) साथ ही साथ इतना भी जरूर याद रखना होगा कि स्वयं अपने जीवन की सुरक्षा करने में, पञ्चेन्द्रिय के विषयों की पूर्ति में लगे रहना वासना है, वासना का कारण मोह है। वासना भयंकर अंगार के समान है जो जीवन को पूरी तरह जलाती है, नष्ट कर देती है, दूसरों पर उपकार करना, उनका दुख दूर करना, करुणा भाव होना दया है। दया जब विकसित होती जाती है तो मोक्ष देने वाली बनती है, दया शुभ को करने वाली, मानव जीवन का श्रृंगार है। कुछ लोग आंशिक (थोड़ी-बहुत) दया-करुणा को मोह का अंश(हिस्सा टुकड़ा) कहते हैं, किन्तु ऐसा नहीं, दया करना मोह का आशिक ध्वंस (नष्ट होना) है अर्थात् जब मोह थोड़ा कम होता है तभी दया-करुणा के भाव मन में पैदा होते हैं अन्यथा क्रूरता बनी रहती है। वासना, जड़ स्वभावी शरीर के आसपास ही भटकती रहती है किन्तु दया, संवेदनशील चेतना का परिणाम, सुख रूपी अमृत का आवास तथा अनन्त है। करुणावान के जीवन में ही समता का विकास होता है। इतना सब जानने के बाद भी कौन समझदार पुरुष होगा, जो कहेगा कि करुणा, वासना का ही रूप है, करुणा का सम्बन्ध वासना से है। मद और अज्ञान में अन्धा हुआ, विषयों का दास बना, इन्द्रियों का नौकर और मन का गुलाम होगा जो वही कह सकता है और कोई नहीं। इस बात को हम भी मानते हैं कि – "प्रति पदार्थ अपने प्रति कारक ही होता है, परन्तु पर के प्रति उपकारक भी हो सकता है।" (पृ. 39,40) प्रत्येक पदार्थ अपने कार्य, अपने परिणामों का ही मुख्य रूप से करने वाला होता है। परन्तु वह दूसरों का उपकार करने वाला भी तो हो सकता है। अपने प्रति करण यानि साधन जो बना है वह दूसरों के लिए उपकरण यानि सहयोगी साधन भी तो बन सकता है।
  15. मंगल प्रवचन- आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज @ अमरकंटक उपदेश के बिना भी विद्या प्राप्त हो सकती है। जिस राह नहीं चलते वहां रास्ता नहीं, यह धारणा नहीं बनाना चाहिए। कुछ लोग होते हैं, जो रास्ता बनाते जाते हैं। महापुरुष आगे चलते जाते हैं और रास्ता बनता जाता है। आचार्यश्री ने अपने मंगल प्रवचनों में आगे कहा कि समवशरण में सब कुछ प्राप्त हो जाता है किंतु सम्यग्दर्शन मिले, जरूरी नहीं। बाहरी कारण मिलने के साथ भीतरी कारण मिले, यह नियम नहीं होता। अंतरंग निमित्त बहुत महत्वपूर्ण होता है। चक्रवर्ती भरत के 923 बालक जिन्होंने कभी नहीं बोला, वे दादा तीर्थंकर से 8 वर्ष पूर्ण होने के बाद कहते हैं कि भगवन् हमें दीक्षा प्रदान करें। साक्षात तीर्थंकर भगवान का निमित्त पाकर बिना उपदेश सुने ही स्वयं दीक्षित हो जाते हैं। यह समवशरण का अतिशय है। वे दीक्षा धारण कर सीधे जंगल चले जाते हैं। उपदेश के बिना समग्यदर्शन भी संभव है। जानकर भी शास्त्र का श्रद्धा नहीं करना शास्त्र का अवर्णवाद है। मोक्ष मार्ग का निरूपरण करते समय स्वयं को संयत कर लेना चाहिए, वरना स्वयं के साथ-साथ मोक्ष मार्ग का भी बिगाड़ हो जाता है। कषाय के रूप अनेक प्रकार के होते हैं। जिस तरह सूर्य, चंद्रमा और दीपक से अलग-अलग रोशनी मिलती है तथा मुझे मोक्ष मार्ग मिला है तो दूसरों को भी प्राप्त हो जाए, ऐसा वात्सल्य भाव ज्ञानी को होता है। जिस तरह गाय अपने बछड़े के प्रति वात्सल्य भाव रखती है। जो केवल ज्ञान का विषय होता है वह उसे मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान का विषय नहीं बना सकते हैं। जिनेन्द्र देव की वाणी जिनवाणी को गौरव के साथ रखना चाहिए। अनादि मिथ्या दृष्टि भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। एक चोर के लिए सामान्य धर्मी श्रावक प्रेरक बनकर सम्यग्यदर्शन ज्ञान चारित्र की उपलब्धि करा सकता है। मंत्र सिद्धि का सदुपयोग कर एक अंजन चोर भी निरंजन बन जाता है।
  16. लेखनी लिखती है कि- जल ईख में जाकर मिष्ट नीम की जड़ों में कटुक विषधर के मुख में विष लवणाकर में जाकर क्षार सीप के मुख में मुक्ताकार क्यों बन जाता है? स्पष्ट है जिसका जैसा उपादान होता है वैसा ही वह ग्रहण कर पाता है जिसका जैसा विचार रहता वैसा ही वह आचरण करता है वैसे गुरु का हर वचन बन जाता है काव्य गुरु का हर अनमोल शब्द है श्राव्य जो गुरु-शरण में जाता हृदय पात्र करके खाली, गुरु उँडेल देते हैं उसमें अपनी ज्ञानामृत की प्याली; क्योंकि गुरु वाणी को मात्र श्रवण से ही सुना नहीं जाता ज्ञान के कटोरे से पिया जाता है, रखकर चैतन्य कटोरे में सुख से जिया जा सकता है। जैसे विनम्र होकर विद्याधर ने पायी थी विद्या गुरु श्रीज्ञानसागरजी से, वह शिष्य भी हुआ धन्य और गुरु श्रीज्ञानसागरजी भी हुए धन्य शिष्य पाकर विद्याधर जैसे। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  17. लेखनी लिखती है कि- पर्यायों की नश्वरता का ज्ञान जगाते हैं गुरु द्रव्य की अमरता का भान कराते हैं गुरु इसीलिए मंत्र है गुरु की वाणी यंत्र है गुरु की दृष्टि तंत्र है गुरु की आशीष वृष्टि गुरु-स्नेह में ही समायी है शिष्य की समूची सृष्टि; क्योंकि गुरु ही स्थूल से सूक्ष्मता की ओर कलुषता से उज्ज्वलता की ओर जड़त्व से चेतना की ओर पर से निजातमा की ओर आधि व्याधि से बचाकर ले जाते हैं सम्यक् समाधि की ओर जहाँ है सदा आनंद की भोर। इतिहास साक्षी है इस बात का गुरु के बिना मिट सकता नहीं भव का भ्रमण, पर महान् गुरु कहते हैं कि मुझे छोड़े बिना कर नहीं सकता शिवरमा का वरण, शिष्य ने किया है ऐसे गुरु का साक्षात्कार भूल सकता नहीं वह आचार्य श्रीविद्यासागरजी गुरुवर का अनंत उपकार। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  18. लेखनी लिखती है कि- पारमार्थिक गुरु वह नहीं जो करे मात्र परमार्थ की चर्चा, आध्यात्मिक गुरु वह नहीं जो करे मात्र अध्यात्म की वार्ता, अपितु जिनके व्यवहार में भी अध्यात्म झलकता है, जिनके लक्ष्य में परमार्थ ही रहता है, वही होते आध्यात्मिक गुरु पारमार्थिक परम गुरु। गुरु परद्रव्य से ही नहीं परभाव से भी मुक्त रहते हैं, प्रभु गुणानुराग से संयुक्त रहते हैं; क्योंकि मोही के प्रति मोह जगत् में भटकाता है अनंत गुण धाम प्रभु का अनुराग स्वयं को सुखधाम पहुँचाता है। यद्यपि प्रभु के प्रति समर्पण सबका नहीं रहता पर इसके बिन मुक्ति का रास्ता नहीं मिलता सच तो यही है कि- अलौकिक व्यक्तित्व होता है गुरु का प्रतिनिधित्व करता है मुक्ति का जो निजात्म दर्शन करते हुए औरों के बनते पथ प्रदर्शक शिष्यों के लिए गुरु समर्थ्य प्रभु के प्रति रहते समर्पक। तभी तो गुरु के प्रति समर्पित कह दो या सत्य के प्रति समर्पित आत्मज्ञान के प्रति समर्पित कह दो या चैतन्य महासत्ता के प्रति समर्पित सर्व पर्यायवाची ही माने हैं, कोई किसे भी कह दे गुरु पर मैंने तो गुरु श्रीविद्यासागरजी पहचाने हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  19. माटी की इस उदासी का कारण यह है कि वह जान रही है कि इस छिलन और जलन में निमित्त कारण तो मैं ही हूँ, पश्चाताप की आग में झुलस रही है। तभी माटी के भीतर (पलने वाली, वृद्धि को प्राप्त हुई) अनुकम्पा रोने लगी, उसकी आँखों से निकलने वाले आँसू और देह के पसीने ने बाहर आ पूरी बोरी को गीला कर दिया, जिससे पूरी बोरी मुलायम हो गई। इधर दूसरी ओर गदहे का अन्त:करण भी दया से भीगा हुआ बाहर आ भावना भाता हुआ प्रभु से प्रार्थना करता है कि मेरा गदहा नाम सार्थक ही प्रभो! और में सबके रोगों को नष्ट करने वाला बनूँ इसके सिवा मेरी और कोई इच्छा नहीं है। इधर अनहोनी घटना घटती है माटी को अनुभव हुआ कि उसके छिद्र सहित गाल, घावहीन हो धुल गये। यह सब भावना का फल है। गदहे और माटी की अनुकम्पा यहाँ एक जैसी लग रही है कम-ज्यादा नहीं, एक साथ उत्पन्न हुई दो बहनों-सी, छोटी बड़ी नहीं। “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” यह सूत्र यहाँ सार्थक हुआ। सब कुछ यहाँ जीवन्त है जीवन! चिरंजीवन!! संजीवन!!! इतना होने के बाद भी माटी की अनुकम्पा अपनी लघुता व्यक्त करती हुई श्वांस को शमन कर अपने भार को हल्का बनाती हुई प्रतीक्षारत उपाश्रम की ओर ही देख रही है ऐसा लगता है मानो किसी राजा की रानी चाँदी की पालकी में बैठी यात्रा कर रही है किन्तु ऊबी-सी, लज्जा को धारण करती रनवास की ओर देख रही है। इन्हीं प्रसंगों के बीच दया-भावों पर भी प्रकाश डाला गया। अनुकम्पा और दया के विषय में यह कहना उचित होगा कि जिसकी आँखें करुणामयी हृदय को धारण करने वाली हैं, उन आँखों में कोई चेतन हो या अचेतन, दयालु हो अथवा क्रूर सभी के प्रति दिन-रात, प्रतिसमय दया का भाव पैदा होता ही है।और "दया का होना ही जीव-विज्ञान का सम्यक् परिचय है।" (पृ. 37) मन में प्राणि मात्र के प्रति दया के परिणाम होना ही जीव सम्बन्धी सही जानकारी का परिचय, उपयोग है, किन्तु पञ्चेन्द्रिय के विषय-भोगों में लिप्त रहने वाला स्वार्थी, सदा विषय-कषायों, भोगों की पूर्ति में ही लगा रहता है उसके हृदय में पर के प्रति दया कहाँ?
  20. लेखनी लिखती है कि- शिष्यत्व यदि है प्रथम पायदान तो गुरु का होता है द्वितीय सोपान और अंतिम है प्रभुत्व जहाँ सर्व कार्य सिद्ध कर पा लेते हैं सिद्धत्व। गुरु अत्यंत प्रभावशाली होकर भी पर को प्रभावित नहीं करते, भावित होते पल-पल प्रभु से प्रभु की ही प्रभावना करते रहते, जो ज्ञानभाव से युक्त धर्म्यध्यान संयुक्त रहते। भगवान् और सद्भक्त शिष्य के बीच गुरु अदृश्य सेतु हैं, शिष्य की प्रसन्नता में गुरु ही एक हेतु हैं। कहता है सशिष्य- सब कुछ मेरा गुरु के कारण है तब गुरु कहते हैं- मैं हूँ आकिञ्चन अकर्ता सब मेरा प्रभु के कारण है। शिष्य के समर्पण भाव का घनत्व उसमें प्रगट करता है गुरुत्व, और गुरु की निस्वार्थ प्रवृत्ति प्रगट कर देती है सिद्धत्व, मैंने देखा है गुरु श्रीविद्यासागरजी में सिद्धत्व की यात्रा शुरु हो गई है इसीलिए सारे जगत् को भूल मेरी मति उनमें ही खो गई है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  21. लेखनी लिखती है कि- एक गुरु के दो शिष्य एक दिन-रात गुरु के गुण गाता सेवा में सदा तत्पर रहता गुरु के कार्य को लगन से करता फिर भी गुरु उसे मन से नहीं चाहते चरणों में उसे स्थान नहीं देते कारण स्पष्ट है- सब कुछ कर रहा अपने स्वार्थ के लिए गुरु की प्रशंसा कर रहा अपनी प्रशंसा के लिए गुरु की सेवा करता अपनी कराने के लिए ताकि उसके भी शिष्य उसकी करें ऐसी ही सेवा मुक्त कंठ से करें उसकी प्रशंसा बदले की भावना से की गई सेवा निरर्थक है फलती नहीं, अपने विचारों का प्रभाव पड़ता औरों पर भी ऐसा वह जानता ही नहीं। दूसरा शिष्य रहता है मौन दुनिया से रहकर गौण मन ही मन गुरु के गुण गाता है उसकी भक्ति को जग कहाँ जान पाता है? फिर भी गुरु चाहते उसे हृदय से जानते उसे ज्ञान नयन से कि यह स्वार्थ नहीं परमार्थ के लिए आया है पर को खोकर निज को पाने आया है, प्रसिद्धि से परे सिद्धि का लक्ष्य है इसका जानन देखनहार को जानने देखने आया है। अंतरवृत्ति को जानकर गुरु ज्ञान लुटाते हैं, इस प्रसंग में श्रीज्ञानसागरजी गुरु के चरणों में पढ़ते हुए शिष्य विद्याधर याद आते हैं। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  22. लेखनी लिखती है कि- मेरे शिष्यों की संख्या बढ़ जाये नहीं सोचते यह गुरु भक्तों का सैलाब उमड़ आये नहीं चाहते यह गुरु अपने आत्मानंद में समाते हैं गुरु अनर्थकारी व्यर्थ क्रियाओं में समय गुजारते नहीं गुरु करने-करने की धुन लगाते नहीं गुरु, यद्यपि कठिन लगता है कुछ नहीं करना पर करना ही मरना है यह जानते हैं गुरु करने-करने की पुरानी है आदत इसीलिए सहज रहते हैं गुरु। जानना-देखना स्वभाव है आतम का इसीलिए देखो' यह कहते हैं गुरु व्यर्थ कुछ कहते नहीं अनर्थ कुछ करते नहीं अर्थपूर्ण जीवन जीते हैं गुरु आडम्बर रखते नहीं जो धरा बिछोना अंबर ओढ़ते वो पराधीनता से परे रहकर स्वाधीन स्वतंत्र रहते हैं गुरु । वैसे गुरु तो अनेक हैं हमारे देश में भिन्न-भिन्न अभिनिवेश में भिन्न-भिन्न वेश में पर हर गुरु काश! ऐसा सद्गुरु होता तो सारे देश का नक्शा ही बदल गया होता न कोई दुखी रहता, न ही रोता। सच्चे संत के अभाव में ही आज मानव तितर-बितर हो रहा है सत्पथ प्रदर्शक के न मिलने से ही आज इंसान भटक रहा है सूनी है नगर गाँव गली गुरुवर श्रीविद्यासागरजी आप बिन भक्तों का हृदय गुरु-गुरु पुकार रहा है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  23. कुछ देर तक शिल्पी ने माटी को सांत्वना दी, फिर उसने अपने साथी को आमंत्रित किया, वह साथी है-गदहा यानि गधा! जो कि शिल्पी का सहयोग करने के बदले में कुछ वेतन (धन) नहीं लेता, किन्तु शरीर चलाने के लिए कुछ खानपान सामग्री अवश्य लेता है। जिसके गले में रस्सी नहीं है और न ही पैरों में बन्धन, घाटी में घूम रहा था। बंधन उसे रुचता नहीं, बंधता है तो मात्र स्वामी की आज्ञा से, इंतजार करता है स्वामी की आज्ञा का। शिल्पी ने माटी से भरी बोरी उसकी पीठ पर लाद दी और संकेत किया चलो उपाश्रम की ओर। गधा चल पड़ा है उपाश्रम की ओर अपनी पुष्ट पीठ पर माटी को ले। गदहे की पीठ पर बैठकर अपदा (पैर रहित) माटी कुम्भकार के उपाश्रम की ओर जा रही है कि बीच रास्ते में माटी की दृष्टि पड़ती है गदहे की पीठ पर और उसका हृदय अनुकम्पा से भयभीत हो हिल उठा, कारण रूखी बोरी की रगड़ से गदहे की पीठ छिल रही थी, जिससे गदहे को पीड़ा का अनुभव हो रहा था । अनुकम्पा यानि दूसरों के दुख को देखकर हृदय कप जाना, दुखी होना, इस अनुभूति के लिए मात्र क्षेत्रीय निकटता की ही नहीं किन्तु भावों की निकटता भी अनिवार्य है तभी तो यहाँ माटी के मन में करुणा भाव, अपनापन उत्पन्न हो रहा है। यहाँ मृत नहीं किन्तु चेतना की जागृत परम्परा दिख रही है। गदहे की पीड़ा दूर हो इस भावना का यह परिणाम निकला कि तन की दूरी को दूर करती, बोरी में से छन-छन कर माटी करुणा रस से भीगी, गदहे की पीठ पर मलहम बनकर लग रही है जिससे उस स्थान (पीठ और बोरी की रगड़ वाला) का रूखापन भी मुलायम पड़ गया और गदहे को पीड़ा से राहत मिली, किन्तु इतने पर भी माटी उदास है दूसरों का सहारा ले यात्रा करने को मना कर रही है।
  24. लेखनी लिखती है कि- वैराग्य रूपी कलश की स्थापना होती है गुरु-शरण में स्वयं के दोष निवारण की कामना होती है गुरु-चरण में गुरु में कर्म परिवर्तन की क्षमता है; क्योंकि प्रत्येक परिस्थिति में रखते समता हैं अपनी निंदा व प्रशंसा में रहते समान तभी तो कहलाते भावी भगवान्। इनसे कर्म भी डरते हैं विज्ञ इन्हें अभय के मेरु कहते हैं पाप तो बेचारे थरथर काँपते हैं पुण्य फल को वे चाहते नहीं पुण्य से परे जाना है इन्हें मोक्ष मही। इनकी संकल्प शक्ति में ताकत है वो जो आतम में छिपे परमातम को दिखा देती है इनकी कृपा में सामर्थ्य है वो जो अज्ञ को भी प्रज्ञ बना देती है गुरु का अर्थ ही यही है जिन्हें गुण युक्त रूपातीत हो जाना है पर से परे होकर जिन्हें अपने आप में ही खो जाना है। जब गुरु अंत में उतर आते हैं तभी शिष्य एकाकी हो स्वयं को पा जाते हैं जब वीर मोक्ष चले जाते हैं तब गौतम भी कैवल्य पाते हैं गुरु की हर प्रक्रिया बनाती है शिष्य को उन्नत धरती को ऐसे ही गुरु की थी जरूरत तब आया दक्षिण से उड़कर एक विद्याधर अनेकों की प्यास बुझाने बन गया वह ज्ञान का सागर विद्यासागर। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  25. शिल्पी की शंका सुनकर माटी अपने अतीत जीवन की ओर लौट जाती है, उत्तर के रूप में कुछ नहीं कह पाती केवल लंबी श्वांस लेकर छोड़ देती है। इस क्रिया से शिल्पी का संदेह कुछ समाप्त-सा हुआ, माटी की सात्विकता पर विश्वास हुआ किन्तु फिर भी सही-सही कारण ज्ञात न होने से जिज्ञासा बनी रही, जिसे माटी ने समझ लिया और अव्यक्त भावों को प्रकट करने हेतु माटी शब्दों का सहारा ले, कुछ कहती है शिल्पी से "अमीरों की नहीं, गरीबों की बात है ; कोठे की नहीं, कुटिया की बात है।" (पृ. 32) “अमीरों की हवेलियों में नहीं किन्तु गरीबों की झोपड़ियों में वर्षाकाल में टपकती बूंदों द्वारा छेद पड़ जाते हैं। फिर तो मेरे इस जीवन में सदा रोना ही रोना हुआ है। इन दीनहीन आँखों से निरन्तर अश्रु-धारा बहती रही है, ऐसी दशा में इन गालों का सछिद्र होना स्वाभाविक ही है और फिर प्यार और पीड़ा के कारण हुए घावों में अन्तर भी तो होता है ना! राग और वैराग्य के भाव एक जैसे होते हैं क्या शिल्पी जी”? माटी की जीवन गाथा, माटी के मुख से सुन शिल्पी बोल उठा –“सब कुछ सहना, कुछ ना कहना वास्तविक जीवन यही है धन्य! और यह भी एक अकाट्य नियम है कि "अति के बिना इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं और इति के बिना अथ का दर्शन असम्भव!" (पृ. 33 ) इसका अर्थ यह हुआ कि जब दुख अति हो जावे तो समझना दुख समाप्त होने को है और दुख का समापन ही सुख का मंगलाचरण है।”
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