दूसरों की दया करना, अपने स्वरूप-आत्म ध्यान को छोड़ पर उपकार में लगना, मोह-अज्ञानता का फल है, प्राय: अध्यात्म से दूर जैसा लगता है, ऐसी एकान्त धारणा नहीं बनानी चाहिए। ऐसी धारणा बनाने से अध्यात्म ज्ञान का दुरुपयोग तथा अपमान ही माना जाएगा, क्योंकि जब दूसरों पर दया करते हैं तो अपनी भी याद आती है, गौण मुख्यता भले ही हो। स्व के साथ पर का और पर के साथ स्व का ज्ञान होता ही है। जैसे चन्द्रमा को देखते हैं तो नीला आकाश दिखता है और यह भी सत्य है कि -
"पर की दया करने से
स्व की याद आती है
और
स्व की याद ही
स्व-दया है
विलोम - रूप से भी
यही अर्थ निकलता है
या.... द द..... या.....|" (प्र. 38)
साथ ही साथ इतना भी जरूर याद रखना होगा कि स्वयं अपने जीवन की सुरक्षा करने में, पञ्चेन्द्रिय के विषयों की पूर्ति में लगे रहना वासना है, वासना का कारण मोह है। वासना भयंकर अंगार के समान है जो जीवन को पूरी तरह जलाती है, नष्ट कर देती है, दूसरों पर उपकार करना, उनका दुख दूर करना, करुणा भाव होना दया है। दया जब विकसित होती जाती है तो मोक्ष देने वाली बनती है, दया शुभ को करने वाली, मानव जीवन का श्रृंगार है।
कुछ लोग आंशिक (थोड़ी-बहुत) दया-करुणा को मोह का अंश(हिस्सा टुकड़ा) कहते हैं, किन्तु ऐसा नहीं, दया करना मोह का आशिक ध्वंस (नष्ट होना) है अर्थात् जब मोह थोड़ा कम होता है तभी दया-करुणा के भाव मन में पैदा होते हैं अन्यथा क्रूरता बनी रहती है।
वासना, जड़ स्वभावी शरीर के आसपास ही भटकती रहती है किन्तु दया, संवेदनशील चेतना का परिणाम, सुख रूपी अमृत का आवास तथा अनन्त है। करुणावान के जीवन में ही समता का विकास होता है।
इतना सब जानने के बाद भी कौन समझदार पुरुष होगा, जो कहेगा कि करुणा, वासना का ही रूप है, करुणा का सम्बन्ध वासना से है। मद और अज्ञान में अन्धा हुआ, विषयों का दास बना, इन्द्रियों का नौकर और मन का गुलाम होगा जो वही कह सकता है और कोई नहीं। इस बात को हम भी मानते हैं कि –
"प्रति पदार्थ
अपने प्रति
कारक ही होता है,
परन्तु
पर के प्रति
उपकारक भी हो सकता है।" (पृ. 39,40)
प्रत्येक पदार्थ अपने कार्य, अपने परिणामों का ही मुख्य रूप से करने वाला होता है। परन्तु वह दूसरों का उपकार करने वाला भी तो हो सकता है। अपने प्रति करण यानि साधन जो बना है वह दूसरों के लिए उपकरण यानि सहयोगी साधन भी तो बन सकता है।