लेखनी लिखती है कि-
गुरु समझाते हैं
ज्ञानधन सँभाल कर रखना है
यही अनमोल पूँजी है तुम्हारी
इसे व्यर्थ नहीं खोना है
ज्यों जुआरी हो यदि पुत्र
तो पिता उसे रुपया देता नहीं
त्यों अनाड़ी हो यदि शिष्य
तो गुरु शिक्षा देता नहीं
पात्र की पात्रता टटोलते हैं गुरु
फिर ज्ञानामृत उँडेलते हैं गुरु
कहना है गुरु का कि-
स्वर्ण गुण से पहचाना जाता है
आकार से नहीं,
शिष्य विनम्र वृत्ति से जाना जाता है
वचनों के उद्गार से नहीं।
सच्चे शिष्य को
नहीं चुभती गुरु की कठिन परीक्षाएँ
उसकी दुनिया में बसती हैं
गुरु और वह बस दो ही आत्माएँ
शिष्य सदा चाहता है शिष्य ही बना रहूँ
गुरु-कृपा छाँव में आनंद पाता रहूँ
प्रत्यक्ष है जगत् में उदाहरण
गुरु श्रीविद्यासिंधु का
गुरु-पद वे लेना नहीं चाहते थे
गुरु द्वारा दक्षिणा माँगने पर थे मजबूर
वे तो गुरु के पद में ही रहना चाहते थे
ऐसे गुरु-शिष्य की कहानी अमर
रहेगी सदा इस भू पर
जो शिष्य रहकर भी हो गए
गुरु के भी गुरु
जयवंत रहें मेरे श्रीविद्यासागर गुरु।