शिल्पी मुख से पृथक्करण के कारणों को सुन कंकर कुछ और अधिक गरम हो गए। उनके होंठ फड़फड़ाने लगे तथा वचनों में भी पहले की अपेक्षा अधिक गरमाहट आ गई और वे कहते हैं शिल्पी से, अरे शिल्पी जी ! शरीर की बात हो या जाति की, वह माटी और हमारी एक ही है, भिन्नता तो हमें कहीं दिखती नहीं, आपको दिखती है क्या? कहीं आपकी आँखों का आपरेशन तो नहीं हुआ और रही रंग की बात तो अब क्या कहें! वह भी हम दोनों का समान है, जो प्रत्यक्ष दिख रहा है कृष्णजी के समान श्याम वर्ण, थोड़ा-सा भी फीका नहीं है। सुन तो रहे हो/ कान तो ठीक है न तुम्हारे, बहरे तो नहीं हैं। फिर रंग-दोष की चर्चा कहाँ रही अब चुपचाप आपको समान वर्ण वाले भीतर विराजित परमात्मा की पूजा करना चाहिए और पुनः हमें माटी में मिला देना चाहिए इतना कहकर कंकर चुप हो जाते हैं।