लेखनी लिखती है कि-
पारमार्थिक गुरु वह नहीं
जो करे मात्र परमार्थ की चर्चा,
आध्यात्मिक गुरु वह नहीं
जो करे मात्र अध्यात्म की वार्ता,
अपितु जिनके व्यवहार में भी
अध्यात्म झलकता है,
जिनके लक्ष्य में
परमार्थ ही रहता है,
वही होते आध्यात्मिक गुरु
पारमार्थिक परम गुरु।
गुरु परद्रव्य से ही नहीं
परभाव से भी
मुक्त रहते हैं,
प्रभु गुणानुराग से
संयुक्त रहते हैं;
क्योंकि मोही के प्रति मोह
जगत् में भटकाता है
अनंत गुण धाम प्रभु का अनुराग
स्वयं को सुखधाम पहुँचाता है।
यद्यपि प्रभु के प्रति समर्पण सबका नहीं रहता
पर इसके बिन मुक्ति का रास्ता नहीं मिलता
सच तो यही है कि-
अलौकिक व्यक्तित्व होता है गुरु का
प्रतिनिधित्व करता है मुक्ति का
जो निजात्म दर्शन करते हुए
औरों के बनते पथ प्रदर्शक
शिष्यों के लिए गुरु समर्थ्य
प्रभु के प्रति रहते समर्पक।
तभी तो गुरु के प्रति समर्पित कह दो
या सत्य के प्रति समर्पित
आत्मज्ञान के प्रति समर्पित कह दो
या चैतन्य महासत्ता के प्रति समर्पित
सर्व पर्यायवाची ही माने हैं,
कोई किसे भी कह दे गुरु
पर मैंने तो गुरु श्रीविद्यासागरजी पहचाने हैं।