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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. लेखनी लिखती है कि- पुण्य योग से तू पा गया शरण कर रहे गुरु तुम पर कृपा वर्षण पाकर गुरु का स्नेह अपना औचित्य गुण भूल मत जाना अहं से फूल मत जाना। गुरु-स्नेह लघु होने के लिए है गर्व करके बिखरने के लिए नहीं अंतर्मुख होने के लिए है, बहिर्मुखी होकर अपनी महिमा दिखाने के लिए नहीं अपनी महिमा जानने के लिए है। गुरु ने थमा दिया रोशनी का दीया चाहे तो आरती का दीपक भी जला सकते चाहे तो किसी का घर भी, गुरु ने दे दी वचनामृत औषध उससे स्वस्थ भी हो सकते मात्रा के अविवेक से अस्वस्थ भी, गुरु ने तो दिखा दीं सीढ़ियाँ चाहे तो चढ़ सकते ऊपर छत तक सँभलकर न चलने पर गिर सकते हैं नीचे भी, गुरु ने बरसा दीं स्नेह बदरियाँ चाहे तो बुझा ले प्यास या मिटा दे श्वाँस। कृपा पाकर गुरुवर श्रीविद्यासागरजी की कृपा करना है स्वयं पर विजय पाना है विकारों पर तभी सार्थक है गुरु-स्नेह पाना गुरु का शिष्य बनना। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  2. लेखनी लिखती है कि- गुरु दो प्रकार के होते हैं व्यवहार नयाश्रित गुरु और निश्चय नयाश्रित गुरु, भक्ति से पाता है बाह्य गुरु ध्यान से मिल जाता है निश्चय गुरु। यद्यपि निश्चय गुरु स्वयं का ही विवेक ज्ञान है पर निश्चय गुरु की प्राप्ति में बाह्य गुरु का ही अवदान है। ऐसे गुरु के प्रति प्रीत राग नहीं भक्ति कहलाती है, स्वातम के प्रति प्रीत संसार नहीं मुक्ति दिलाती है। यदि गुरु की प्रीत भी अच्छी लगे जगत् की झूठी रीत भी अच्छी लगे तो गुरु भक्त की भक्ति पर प्रश्नचिह्न लगता है उसे आत्म स्वरूप के साथ देह रूप भी अच्छा लगता है गुरु के विराग भाव के साथ अपना अहं भाव भी अच्छा लगता है, गुरु- स्तुति के साथ पर निंदा में भी रस आता है औषध सेवन के साथ कुपथ्य भी छोड़ नहीं पाता है। सच यही है कि - अगर गुरु के गुणों का आकर्षण है तो विकारी भावों से घृणा होगी, गुरु के विचारों का आदर है तो व्यसनों से विरक्ति होगी, गुरु के आचरण से लगाव है तो दुराचरण से नफरत होगी। जैसे गुरु श्री ज्ञानसागर जी से होकर प्रभावित विद्याधर ने ममता को त्याग दिया फिर समता रथ में बैठकर अपने को अपने में पा लिया। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  3. लेखनी लिखती है कि- गुरु शिष्य का संबंध कभी जटिल लगता है तो कभी बहुत ही सरल यह रिश्ता सब रिश्तों में अद्वितीय वंदनीय और है पूजनीय एक श्रेष्ठ गुरु पा, शिष्य होता कृतज्ञ तो एक सशिष्य पा, गुरु होता धन्य दोनों का संबंध है जग से अनूठा प्रकृति का एक अजूबा। जिसमें शिष्य गुरु के अनुशासन में बँध कर शाश्वत मुक्ति पा लेता है जितना-जितना होता गुरु का उतना ही स्वयं का हो जाता है गुरु भी जितना देता जाता उतना ही उनका ज्ञान बढ़ता जाता है गुरु सर्वश्रेष्ठ दाता होकर भी प्रभु का प्रेम पात्र हो जाता है। अद्भुत है यह नाता जिसमें गुरु भी आनंद पाता शिष्य भी सुख से भर जाता जहाँ बंधन भी वंदन बन जाता है। परमानंद का बंद कपाट खुल जाता है इसीलिए छोड़ सारे काम पहले गुरु का वरण करो न बन सको विद्या के सागर तो कम से कम विद्याधर का अनुसरण करो। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  4. यहाँ उपाश्रम के प्रांगण में एक दृश्य दिखाई दे रहा है, एक बहुत बड़ा बर्तन है, जिसके मुख पर साफ सुथरा दोहरा किया हुआ खादी का कपड़ा (छन्ना) बंधा हुआ है। शिल्पी बाल्टी लेकर उसी ओर बढ़ रहा है। पात्र के पास पहुँचकर धार-बाँधकर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे वह जल छान रहा है, जल छन रहा है। इतने में शिल्पी की दृष्टि थोड़ी-सी अन्यत्र चली जाती है कि उछलने को मचल रही मछली, शीघ्र ही बाल्टी में से उछलकर माटी के पवित्र चरणों में जा गिरती है। वस्तु स्वरूप-जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही जानना। जैसे आत्मा शाश्वत है शरीर नश्वर। संसार दु:ख रूप ही है सच्चा सुख मुक्ति/मोक्ष मिलने पर ही है इत्यादि। और फिर माँ माटी को पाकर फूट-फूट कर रोने लगती है। उसकी आँखें संवेदना से भर जाती हैं और पुन: वेदना की स्मृति होने लगती है। वे आँखें अपूर्वता की प्यासी, प्रभु की दासी के समान श्रेष्ठ बनी है। जिन आँखों से गिरती हुई उज्वल आँसुओं की बूंदे माटी के चरणों को प्रक्षालित कर रहीं हैं। इन बूंदों की निर्मलता ने क्षीरसागर की पवित्रता का भी हरण किया है अर्थात् अत्यन्त निर्मल है तथा दुख के समुद्र का खारापन इनमें से पूर्णत: झर रहा है। मछली की इस दशा को देख यह लेखनी इस युग से पूछती है- इस समय मानव के भीतर से मानवता पूर्णत: मर चुकी है क्या ? यहाँ सबके मन में दानवता (क्रूरता) उत्पन्न हुई है। लगता है मानवता से दान देने का परिणाम (परोपकार का भाव) कहीं दूर चला गया है और फिर जहाँ दानवता हो वहाँ दानवत्ता रह भी कैसे सकती है? आज “वसुधैव कुटुम्बकम्” यानी सारी धरती एक परिवार है। इस विचारधारा का दर्शन, स्वाद, अनुभव इन आँखों को सहज नहीं रहा। यदि कहीं सुलभ है तो भारतदेश में नहीं, किन्तु महाभारत पुराण में ही यह सूक्ति मिल सकती है क्योंकि भारत में तो पग-पग पर स्वार्थ ही स्वार्थ देखा जा रहा है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” इसका आधुनिकरण अवश्य हुआ है आज वसु यानी धन ही सबका परिवार और सिर का मुकुट, आदरणीय बन गया है इस जीवन में। लेखनी की बात सुनकर मछली, माँ माटी से कहती है-कुछ तुम भी कहो और इस विषय को स्पष्ट करो माँ! मछली की प्रार्थना सुन, सार रूप में कुछ कहती है माटी - "सुनो बेटा! यही कलियुग की सही पहचान है जिसे 'खरा' भी अखरा है सदा और सत् – युग तू उसे मान बुरा भी 'बूरा'-सा लगा है सदा।" (पृ. 82) सुनो बेटा! कलियुग और सतयुग का सम्बन्ध मात्र काल से नहीं किन्तु व्यक्ति की विचारधारा से भी हुआ करता है। जिस व्यक्ति को खरा यानी अच्छा भी अखरने यानी बुरा लगने लगे तो समझना उसके भीतर ही कलियुग है और जिसे बुरा अर्थात् गुरुओं की डॉट-फटकार, कष्ट से घिरा जीवन भी ‘बूरा' यानी मीठी शक्कर के समान लगे तो समझो सतयुग उसी के भीतर रहता है।
  5. लेखनी लिखती है कि- छोटे से छोटे कार्य को सीखने आवश्यक होता है गुरु तो फिर करने परमात्मा का साक्षात्कार क्यों नहीं चाहिए गुरु; क्योंकि गुरु ही उजड़े चमन को मधुवन बनाते हैं अंधकार से उजाले में लाते हैं पतित से पावन बनाते हैं। गुरु वही हैं जो कराते हैं आध्यात्मिक जगत् में पदार्पण, लोहे को स्वर्ण में ही नहीं पारस रूप में कर देते हैं रूपांतरण। जो शरणागत को परमार्थ के लिए नि:स्वार्थ करते हैं मदद, बदलकर जीवन को बदले में कभी करते नहीं हैं मद। इसीलिए जितना प्राचीन है मानव का इतिहास उतना ही पुराना है गुरु शब्द का राज भले ही आज अर्थ की चकाचौंध में गुरु शब्द के अर्थ को बदल दे पर गुरु के सद्स्वभाव को कालचक्र बदलने पर भी बदल नहीं सकते, गुरु जो कह देते वचन वह कभी टल नहीं सकते। सच, गुरु में प्रभु की छवि है जो गुरु श्रीविद्यासागरजी में मैंने पाई है, इस पंचमकाल में भी चतुर्थकाल-सी चर्या कर जिनशासन की महिमा बढ़ाई है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  6. अब वह समय निकट आ ही गया जब मछली को ऊपर की ओर यात्रा प्रारम्भ करनी है, बाल्टी विमान के समान ऊपर उठने को है कि मछली के मुख से निकल पड़ती है मंगल-भावना हे भगवान्! मेरी एक ही कामना है कि अनन्तकालीन भविष्य में कभी भी मेरे मन में काम यानी विषय-वासना का आवास ना हो। मेरी इस शुभ यात्रा का एक ही लक्ष्य है कि सदा समता रूप परिणाम ही मेरा भोजन हो। मेरे मन की भावनाओं में समीचीन उत्साह बना रहे। कभी भी दानव समान क्रूर वृत्ति का मानव मन पर असर ना हो। आकाश में, धरातल में और पाताल में अर्थात् तीनों लोक में सदा चेतन धर्म और दया धर्म की प्रभावना होती रहे बस! जल से भरी हुई बाल्टी कूप से ऊध्र्वगमन वाली होती है, पतन पाताल से उत्थान उताल की ओर। संकल्पिता मछली बाल्टी में से ऊपर की ओर देख रही है। ना जल का और ना ही बल का अभाव है किन्तु तैर नहीं रही मछली वह, लगता है बुद्धि की चंचलता से दूर शान्त मति वाली मछली वह तैरना भूल-सी गई है। सच है - "स्वभाव का दर्शन हुआ, कि क्रिया का अभाव हुआ-सा लगता है अब.!" (पृ. 78 ) ज्यों-ज्यों वस्तु स्वरूप का ज्ञान होता जाता है, त्यों-त्यों तन-मन की चंचलता/सक्रियता कम होती जाती है। यहाँ भी ऐसा ही लग रहा है। बुद्धि की श्रेष्ठता को प्राप्त हुई-सी लग रही है मछली वह। बिना किसी बाधा के बाल्टी ऊपर आ चुकी है, मछली के लिए कूप का बन्धन दूर हो चुका है। मछली ने किया सुख को झराती (बिखेरती) प्रांगण में फैली सुनहरी धूप का दर्शन-वंदन, रूपवती धूप की आभा को निरखती मछली सुख से भर जाती है। धूप से मिश्रित धूल का समूह ही मछली के मुख का सिंदूर सा बना और मछली की आँखें सीधे उपाश्रम की ओर देखती हैं, ऐसा लग रहा है कि सूर्य ने अपनी पत्नी किरणों को दिन-भर उपाश्रम की सेवा करने ही भेजा हो। वह धूप आश्रम के अंग-अंग और आंगन का मानी आत्मीय आलिंगन ही कर रही हो। वह धूप स्थूल है अर्थात् आँखों से तो दिखती है पर पकड़ में नहीं आती, अत्यन्त सुन्दर, रूपवती है मात्र सूर्य ही उसे पकड़ सकता है। सिद्ध प्रभु के समान सूक्ष्म स्पर्श से भी रहित है वह, लगता है यह उपाश्रम की छाँव का ही परिणाम है। इस वातावरण को देखते ही मछली का दुख नष्ट हुआ और वह अपनी पुरानी बातों को भूल-सी गई। विशेष : मछली प्रतीक है, उस भव्यात्मा का जिसके मन में संसार, शरीर, भोगों के प्रति उदासीनता आ चुकी है और वह मोक्षमार्ग की ओर अपने कदम बढ़ाना चाहता है। मोही परिवार जन अनेक प्रकार से समझाते हुए उसे संसार मार्ग में ही रोक रखना चाहते हैं। परन्तु दृढ़ संकल्पी वह भव्यात्मा संसार के सत्य को जानता हुआ गुरु सान्निध्य में पहुँच ही जाता है।
  7. लेखनी लिखती है कि- सशिष्य यदि बनना है तो गुरु के समक्ष पैर पसारना नहीं गुरु की आज्ञा नकारना नहीं गुरु के आसन पर भूलकर भी बैठना नहीं गुरु निंदक को मीत बनाना नहीं अंतर के दोषों को गुरु से छिपाना नहीं अपनी महाभारत उन्हें सुनाना नहीं गुरु से कभी तुच्छ चीज माँगना नहीं। उत्तम शिष्य वही जो बिना कहे कार्य पूर्ण कर दे मध्यम वहीं जो कहने पर कर दे अधम हैं वे जो कहने पर भी न करें वैसे सद्गुरु कुछ कराते नहीं कर्तृत्व भाव को मिटाते हैं, कुछ देते नहीं किंतु पर स्वामित्व भाव नशाते हैं, अपना बनाते नहीं पर ममत्व भाव हटाते हैं। शिष्य कोई भी साधना गुरु से छिपकर नहीं करता प्रत्येक शुभ कार्य में गुरु का स्मरण करता गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाता समय-समय पर गुरु का दर्शन पाता गुरु के आदर्शों का आदर करता अपना नहीं गुरु नाम का प्रचार करता तब कहीं शिष्यत्व सार्थक होता। ज्यों किया है सार्थक शिष्यत्व श्रीविद्यासिंधु ने गुरु श्रीज्ञानसिंधु के इशारे पर चलके जैसा लिखा आगम में वैसा ही लखके। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  8. लेखनी लिखती है कि- गुरु को तन का समर्पण नहीं धन का भी अर्पण नहीं वचन से स्तुति प्रशंसा भी नहीं चाहिए निर्मल मन का समर्पण, यदि देना ही चाहते गुरु को तो देना है निश्छल मन। यद्यपि गुरु तो कुछ चाहते नहीं लेकिन शिष्य चाहता यदि बोधामृत तो विषय भोगों का जहर पीये नहीं पाना चाहता है गुरु चरणों में स्थान तो हृदय में प्रभु के सिवा किसी को बिठाये नहीं। यदि मन पर राज करेगी बुद्धि तो तर्क को उठाती रहेगी तब श्रद्धा वहाँ से छूमंतर होकर ठहर नहीं पायेगी इसीलिए सर्वप्रथम गुरु निकट जाकर अपने मन को टटोले? कहीं बाहर का सब कुछ देकर मन की इच्छाओं को अपने ही पास रखकर कहने को तो नहीं रह गये शिष्य खोखले? इसमें शिष्य स्वयं से ही छला जायेगा अनेक महत्त्वाकांक्षाओं से भर जायेगा अरे! गुरु का काम नहीं है शिष्य को पकड़कर सुधारना बल्कि जो आये विनम्र होकर शरण में उनकी ज्ञान पिपासा शांत करना। प्रशंसनीय हैं ऐसे गुरु विद्या के भंडार खाली झोली लेकर आता शरणागत दे देते उसे ज्ञान का अपूर्व उपहार। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  9. लेखनी लिखती है कि- क्या यह तुम्हें ज्ञात है गुरु, शिष्य का भविष्य जानता है जैसे बालक के लिए माँ है दर्पण माँ में ही बालक का अनागत होता है वैसे ही गुरु शिष्य के लिए कैमरा नहीं एक्स-रे मशीन भी नहीं एम.आर.आई का यंत्र भी नहीं बल्कि उससे भी भीतर देह के भी अंदर विदेह तत्त्व के भावों को भी पकड़ लेते हैं गुरु। शिष्य क्या सोचने वाला है आगे क्या कर दिखाने वाला है गुरु सब जान लेते शिष्य का मंतव्य, कभी-कभी गुरु की दिव्य दूरदृष्टि शिष्य समझ नहीं पाता, बाद में जब होता रहस्योद्घाटन तब वह अपनी अज्ञता पर पछताता। जब सीता कर रही थी वन गमन गुरु वशिष्ठ ने उतारने न दिये सुहागाभूषण तब गुरु की दूरदृष्टि जनता न समझ पायी, मगर सीता, हरण के समय वही गहने फेंकती गयी श्रीराम द्वारा उन्हीं आभूषणों से वह मिल पायी। वैसे गुरु कभी असत्य नहीं कहते हैं यदि धर्म रक्षा के लिए कहें भी तो उनके झूठ में भी सत्य के दर्शन होते हैं। वास्तव में गुरु की हर वृत्ति अजूबी है शिष्य जो खुद भी न जाने वह गुरु जानते हैं कहा था अजमेर के लोगों ने श्रीज्ञानसिंधु गुरुराज से, दीक्षा मत दो छोटे से विद्याधर को तब गुरु ने कहा था मैंने इसे परख लिया है इसके स्वर्णिम भविष्य को पढ़ लिया है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  10. लेखनी लिखती है कि- क्या तुमने कभी देखी गुरु के नयनों में अद्भुत ज्योति गुरु के वचनों से झरते मोती सुमनों-सी झरती पंक्ति गुरु के आशीष से निःसृत स्नेह भरी रश्मि गुरु की छवि दर्शन से अलौकिक आत्म शांति, यदि नहीं तो चर्म चक्षु को मुँदो गुरु के अनंत उपकारों को सुमरो अपने गर्व को मिटाते जाओ गुणों से भर जाओगे गुरु से शिकायत करते रहोगे तो दुखी ही रह जाओगे गुरु-कृपा बरस रही हर ओर से उसे समाने की जगह बना लो देखो! गुरु, निज प्रभु को छोड़ देख रहे तुम्हें दृष्टि हटाकर सबसे, गुरु पर जमा लो। अरे! गुरु ही ब्रह्मा है हमारा अच्छाईयों का करता है निर्माण गुरु ही विष्णु है हमारा शिष्यों का करता है पालन गुरु ही महेश है हमारा बुराईयों का करता है प्रक्षालन गुरु जो करें वह भगवान् भी नहीं कर सकते इसीलिए तो शिष्य, प्रभु से पूर्व विद्यागुरु को नमते। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  11. इधर कुएँ में ऊपर से नीचे उतरी बाल्टी पूरी तरह पानी में डूब जाती है, बाल्टी में पानी लबालब भर चुका है दोनों एक दूसरे में पूरी तरह डूब गए हैं। संकल्पिता मछली "धम्मं सरण पव्वजामि" मंत्र को हृदय में धारण करती हुई बाल्टी में प्रवेश कर जाती है। उसकी आस्था और अधिक मजबूत होती जा रही है, साथ ही साथ आत्मा भी निर्मलता को प्राप्त हो रही है। धैर्य की चरम-सीमा और बुद्धि की इस श्रद्धा को देख सभी मछलियाँ आश्चर्यचकित हो गई। कुछ पलों के लिए उनका भय छू मन्तर/दूर हो गया, भय को भूल-सी गई मछलियाँ। दृढ़ता पूर्वक एक ने सत्कार्य करने का मन बनाया और सभी ने उसके इस कार्य की मन ही मन सराहना की। एक ने भाव बनाया, शेष सब प्रभावित हुई। एक को सन्मार्ग मिला, शेष सभी मछलियाँ दिशा पा गई। संकल्पिता मछली को दया धर्म का सहारा मिला, मन में एक नई किरण प्रस्फुटित हुई और सभी मछलियाँ उस उजली ज्योति से प्रकाशित हुई मानों तत्काल बाहर और भीतर से नहाई हों। इस अवसर पर मछली का पूरा परिवार उपस्थित हो चुका है। सभी मछलियों की मुख मुद्रा प्रसन्न लग रही है, तैरती हुई मछलियों से उठने वाली तरंगें और तरंगों से घिरी मछलियाँ ऐसी लग रही हैं, मानो प्रत्येक मछली के हाथ में एक-एक फूलमाला है, संकल्पिता महा-मछली का सम्मान किया जा रहा है। सभी मिलकर नारे लगाती हुई कह रहीं हैं – "मोक्ष की यात्रा .....सफल हो मोह की मात्र .....विफल हो धर्म की विजय हो कर्म का विलय हो जय हो, जय हो, जय-जय-जय हो!" (पृ. 76) तुम्हारी यह मुक्ति की यात्रा सार्थक हो, मोह का समूह नष्ट हो, समीचीन धर्म की विजय और कर्मों का नाश हो, सदा जय-जयकार हो।
  12. लेखनी लिखती है कि- किसी से ऐसा मत कहना कि उसे यह कहना पड़े किसी से मत कहना, किसी के इतने अपने मत बनना कि उसे यह कहना पड़े अब तुम किसी के अपने मत बनना, समझाते हैं यह गुरु इनके संकेत समझता जो बेंत की आवश्यकता नहीं उसे गुरु की आज्ञा ही आदेश मानता जो अन्य उपदेश की आवश्यकता नहीं उसे, वही शिष्य समझदार है गुरु कहते हैं कि- समझदार दमदार का बेड़ा पार है। सद्गुरु शिष्य से कुछ चाहते नहीं चाहत ही मिट गई सब जिनकी वे भुक्ति क्या मुक्ति को भी चाहते नहीं ऐसे ही गुरु के सहारे शिष्य पा लेता सुख सारे। गुरु पढ़ाते एक पृष्ठ शिष्य पढ़ लेता सारा ग्रंथ गुरु-आज्ञा में मगन रहकर चलता वहीं से जो गुरु ने बतलाया पंथ। शिष्य के कथनी और करनी में भेद नहीं होता उसके मार्ग व मंजिल में मेल बना रहता ऐसा शिष्य यदि देखना हो तो दक्षिण के विद्याधर को देखना जिनकी श्वाँसों में ज्ञानसागर -ज्ञानसागर की ही सुनाई देगी धुन जरा एकतान होकर सुन। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  13. लेखनी लिखती है कि- खसखस का दाना-सा छोटा बीज भी तभी फलता है जब उसकी अच्छे से देख-रेख हो वरना फलना-फूलना तो दूर छाया तक नहीं दे पाता है फिर गुरु तो ऊँची हस्ती है। दिखावटी शिष्य कह देता है मुझे गुरु-कृपा नहीं मिलती गुरु की स्नेह-वृष्टि नहीं मिलती तनिक विचारो तो सही जब तुमने कुछ किया नहीं अर्पण तो कैसे पा सकते ज्ञानधन? रावण के शीश के पास खड़े थे जब लक्ष्मण ज्ञान पा नहीं पाये, जब खड़े हुए चरणों में स्वयं को ज्ञान से भर लाये। सच ही कहा है - “विणयं मोक्ख दारं " विनय ही मुक्ति का सोपान है विनम्र शिष्य ही महान् है। फिर प्रकृति का भी यही नियम है कि- जैसा खाते अन्न वैसा होता मन जैसा पीते पानी वैसी होती वाणी" इसीलिए शिष्य पहले सोचे कि- गुरु से जानकारी लेने आया है या ज्ञान? गुरु से कुछ सीखने आया है या बढ़ाने मान? लोभ से आया है या बोधिलाभ लेने? समय बिताने आया है या सदुपयोग करने? इन सारे प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे विद्याधर से जो सच्चे शिष्य थे गुरु श्रीज्ञानसागरजी के। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  14. संकल्पिता मछली ने सखी की बात सुनी और वह पुन: कहती है कि-हे सखी। इतना सब सोचने-विचारने का यह समय नहीं है, अपना भाग्य भी तो कुछ होता है ना? यदि तुझे नहीं आना तो मत आ, किन्तु निष्प्रयोजन उपदेश देकर मेरे समय को बर्बाद मत कर और वह संकल्पिता मछली, सहेली को वहीं छोड़, स्वयं अकेले ही बाल्टी की ओर चल पड़ती है। चलते-चलते कुछ समय के अनुकूल युक्ति पूर्ण बातें कहती है – "प्रत्येक व्यवधान का सावधान हो कर सामना करना नूतन अवधान को पाना है या यूँ कहें इसे- अन्तिम समाधान को पाना है।"(पृ. 74) जीवन में आने वाली प्रत्येक बाधा का जागृत रहकर मुकाबला करने से ही कुछ नया खोजा जा सकता है, नया निर्माण किया जा सकता है। अथवा यूँ कहें कि समस्याओं का अन्तिम समाधान पाया जा सकता है। जो व्यक्ति बाधाओं से डर कर, आगे बढ़ने का मन ही नहीं बनाता वह कभी अपने जीवन को उन्नत/अच्छा नहीं बना सकता। संसार में अच्छे-बुरे सभी प्रकार के लोग रहते हैं, गुण हैं तो दोष भी। अत: गुणों के साथ दोषों का ज्ञान होना भी अनिवार्य है किन्तु दोषों से द्वेष रखना उन्हें सदा बुरा-बुरा ही कहते रहना, अपने दोषों को बढ़ाना और गुणों को नष्ट करना है। काँटों से द्वेष भाव रखकर फूलों की सुगन्धी से ही दूर रहना अज्ञानता/मुर्खता ही मानी जावेगी किन्तु "काँटों से अपना बचाव कर सुरभि-सौरभ का सेवन करना विज्ञता की निशानी है सौ..... विरलों में ही मिलती है !" (पृ. 74) काँटों से अपनी सुरक्षा करते हुए फूलों की सुगन्ध का पान करना होशियारी का लक्षण है, सो कुछ गिने-चुने लोगों में ही पाया जाता है सबमें नहीं।
  15. लेखनी लिखती है कि- लौकिक आत्मीय जन घर परिवार की पहचान कराके घर बसाना सिखाते हैं अपनों से घुल मिलकर जीना सिखाते हैं जड़ अक्षरों की पहचान कराते हैं आँखें खोलकर दुनिया का परिचय कराते हैं, पर सद्गुरु निज गुणों की पहचान कराके निजगृह रहना सिखाते हैं अपने में ही रहकर पर से भेदज्ञान कराते हैं अक्षर अविनाशी सुख का पथ दिखाते हैं आँखें मूंदकर भीतरी जगत् का अनुपम दृश्य दिखाते हैं। जहाँ कभी पहुँचा नहीं शिष्य वहाँ अपने दिव्य प्रकाश से ले जाते हैं शिष्य के लिए दीया जलाकर स्वयं अदृश्य हो जाते हैं , शिष्य को स्वयं के समीप लाकर उसे अपनी अव्यक्त शक्तियों से मिलाते हैं। स्वार्थी जगत् खींचता है जब अपनी ओर तब वे सही अपनत्व का बोध कराते हैं मतलबी भक्तों से छुड़ाते हैं सिर्फ चलना ही नहीं स्वयं अस्थिर रहकर शिष्य को स्थिर होना भी सिखाते हैं स्वयं बोलकर शिष्य को मौन के झरने में नहलाते हैं। यह है अलौकिक गुरु की अलौकिक महिमा जहाँ लेखनी भी स्थिर हो जाती है आचार्य श्रीविद्यासागरजी जैसे गुरु पर लिखने चाहे विशिष्ट ज्ञानधर ही क्यों न हो मति थाह नहीं पाती है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  16. मात्र खड़ी है वह संकल्पिता मछली साथ में है उसकी एक सहेली। वह अपनी सहेली से कहती है "चल री चल...! इसी की शरण लें हम। "धम्मो दया–विसुद्धो" यही एक मात्र है अशरणों की शरणा! महा-आयतन है यह यहीं हमारा जतन है" (पृ. 71) चल-चल हम इस विमान की शरण लें, यह ही एक मात्र अशरणों के लिए शरण है महा-आयतन, बोध-गृह। यहीं पर हमारा भविष्य सुरक्षित रह सकता है। वरना आज नहीं तो कल निश्चित ही हमें भी मृत्यु के मुख में प्रवेश करना होगा और तू यह नहीं जानती क्या? यहाँ बड़ी मछली, छोटी-छोटी मछलियों को साबुत, सीधे ही निगल जाती है। साधर्मी और समान जाति वालों में ही ज्यादा बैर-भाव देखा जाता है, कुत्ता-कुत्ते को देखते ही नाखूनों से जमीन खोदता हुआ भौंकता है बुरी-तरह। यह सुनकर सहेली मछली कहती है अरे सखी! किसी दृष्टिकोण से, कुछ हद तक तुम्हारी बात सही है परन्तु इतना भी तो सोचो, यदि हमारे भक्षण से अपनी ही जाति पुष्ट, संपुष्ट हो तो वह हमारे लिए ठीक ही है। क्योंकि अन्त समय में अपनी ही जाति के लोग काम आते हैं और तो सब दर्शक बने देखते रहते हैं। फिर जिसे तुम शरण मान रही हो, उस विजाति व्यक्तित्व का कैसे विश्वास किया जाए? क्योंकि आज तो सामने-सामने ही, प्रतिपल विश्वास टूटता देखा जा रहा है। बाहर जैसा लिखा हो वैसा ही असली माल मिल जाए तो फिर कहना ही क्या? यहाँ तो बगुला जैसे मायाचार का खेल चल रहा है। मुँह में राम-नाम का जाप होता है और बाजू में चाकू छुपा कर दूसरों का घात करने की बात मन में चलती रहती है। जीवन में सही-सही दया का भाव होना और दया की बात करना दोनों पृथक्-पृथक् है। दया होने में जीवन है और दया की बात करने में केवल दया का नाटक है। अब तो अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों और कृपाणों (तलवारों) पर भी दया धर्म का मूल है लिखा मिलता है किन्तु- "कृपाण कृपालु नहीं हैं वे स्वयं कहते हैं हम हैं कृपाण हम में कृपा न!" (पृ. 73 ) देखो कृपाण शब्द स्वयं कह रहा है— हममें दया नहीं है, हम कृपालु नहीं है। आगे कहाँ तक सुनाऊँ तुम्हें-निजी स्वार्थ के लिए, समय पड़ने पर धर्म का झण्डा भी लड़ने का डण्डा बन जाता है, परोपकार करने वाला धर्म शास्त्र भी लड़ाई का शस्त्र बन जाता है। सदा प्रभु भक्ति में लीन रहने वाली सुरीली बांसुरी भी बांस बन प्रभु भक्तों को पीट सकती है। क्या कहें! समय ही ऐसा चल रहा है, कलियुग है। विशेष : उपरोक्त प्रसंग में कवि ने वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते हुए, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, व्यक्ति की बिगड़ती हुई मनोदशा का हृदय स्पर्शी वर्णन किया है, धर्म की आड़ में, स्वार्थ सिद्धि करने वाले व्यक्तियों को भी यहाँ चपेट में लिया गया है। 1 कर्म = सुख-दुख में कारणभूत पुद्गल स्कन्धों का पिण्ड। 2 रसनाधीना = जीभ के वश में रहने वाली। 3 रसलोलुपा = खट्टा-मीठा आदि रसों की इच्छा/चाह रखने वाली। 4 संकल्पिता = जिसने ऊपर धरती पर जाने का संकल्प किया है।
  17. दृढ़ संकल्प हुआ, क्षणभंगुर-नाशवान प्राणों की चाह दूर चली गई, प्रभु प्राप्ति की प्यास मछली के अन्त:करण में जागृत हुई। फिर इस वैराग्य दशा में। जड़भूत जल का प्यार कैसे टिकता? वह भी पल भर में दूर हुआ। अभय का सहारा मिला और मछली के मन का भय दूर हुआ यहीं से प्रारम्भ हुई मछली की विजय-यात्रा । अभय (भय का अभाव, निडरता) अब कूप से जल खींचने का कार्य आगे बढ़ता है। जिसके अंग-अंग जीवदया के संस्कारों से संस्कारित थे तथा जिन्हें संयम की शिक्षा प्राप्त थी, ऐसे शिल्पी ने बाल्टी को रस्सी से बाँध दिया और अब वह सावधानी पूर्वक धीमी गति से बाल्टी को कुएँ में उतार रहा है। धीमी गति से उतारने का कारण यह है कि कूप में रहने वाले मेंढक, मछली इत्यादि जीवों की हिंसा ना हो पावे तथा स्वयं को इस लोक और परलोक में, आज और भविष्य में कभी भी कर्मों का बंध ना हो सके और ना ही कर्मों का फल भोगना पड़े। इधर कूप में पड़ी दृढ़संकल्पिता मछली ने ज्यों ही ऊपर से नीचे उतरती बाल्टी को देखा उसे ऐसा लगा मानो मेरी भावना अब पूर्ण होने वाली है, मेरा संकल्प फलीभूत होने वाला है। ऊपर उठने की इच्छा से भरी मछली की शान्त आँखें ऊपर की ओर देखने लगी। उसे लगा जैसे कोई देव-विमान स्वर्ग से उतरता हुआ आ रहा है, उस पर लिखा हुआ था "धम्मी दया विसुद्धो" तथा "धम्मं सरण गच्छामि" धर्म दया से पवित्र होता है ऐसे दयामयी धर्म की शरण को मैं प्राप्त करता हूँ। ज्यों-ज्यों बाल्टी कुएँ में उतरती गई, त्यों-त्यों कूप में रहने वाले बहुत कुछ जलचर जीव भय के कारण कूप की गहराई में चले गए किन्तु रसना इन्द्रिय के वशीभूत हुई कुछ मछलियाँ, कुछ खाने की सामग्री मिलेगी हमें, इस आशा से चलना-हिलना छोड़ उतरती हुई बाल्टी को अपलक देख रही हैं। जल में उतरी खाली बाल्टी को देखकर उसे कोई नया जाल-सा समझ भयभीत हो दूर भाग, नीचे की ओर चली जाती हैं सभी मछलियाँ रसनाधीना, रसलोलुपा । 1. पौद्गलिक = चेतना शून्य परमाणुओं, स्कन्धों से निर्मित। 2. वैराग्य = रागभाव-आसक्ति का अभाव
  18. उलझी रस्सी सुलझ गई है, गांठ भी खुल गई है। अब कूप से निकालने हेतु कुँए के पाट (तट) पर खड़े हो, बाल्टी हाथ में ले शिल्पी कूप की ओर थोड़ा झुकता है कि, शीतल-शान्त एवं विकसित बुद्धि वाले शिल्पी के शरीर की परछाई गहरे कुएँ के स्वच्छ जल में तैरती हुई मछली के ऊपर पड़ती है। मछली का मुख ऊपर हुआ और उसके मन में ऊपर धरा पर जाने का विचार उत्पन्न हुआ किन्तु ऊपर शिल्पी के पास तक मैं, मेरी काया कैसे उठ सकती है, क्योंकि काया जड़ क्रिया-शून्य, पौद्गलिक है उसे चेतन जीव का सहारा आपेक्षित है। यही चिन्ता मछली को सता रही है। काया (शरीर) से ही सारा संसार बसा है, काया छूट जाए तो परमात्म दशा (सिद्ध अवस्था) प्राप्त हो जाए। संसार के झूठे आकर्षण में ही लीन, उसी से प्रभावित मेरी बुद्धि हो गई है। "मति सन्मति हो सकती है माया उपेक्षित हो...तो... "(पृ. 67) बिद्धि सद्बुद्धि हो सकती है यदि संसार से वैराग्य’ हो तो। इधर अन्धकूप में पड़े-पड़े क्रोध, मान आदि कुत्सित (निन्दित, बुरे) भावों के अनुभव से, कूपमण्डूक सी संकुचित विचारधारा हो गई है मेरी। गति, मति और दशा सब कुछ तो बिगड़ी है फिर मुझे निज रूप-स्वरूप का ज्ञान कैसे हो? ऊपर से भेजी प्रकाश / सम्यग्ज्ञान की एक किरण भी तो मुझ तक नहीं आती और मछली के मुख से दीनता घुली ध्वनि निकल पड़ी कि - कोई इसे इस अंधकूप से निकालो और परमात्म स्वरूप में मिला दो। मेरे इस रुदन को कोई सुनता भी नहीं, अरे कान वालों सब बहरे हो गए हों क्या? जब कोई प्रति आवाज नहीं आई, सहारे का संकेत भी नहीं मिला तो, मेरा यह रोना जंगल में रोने के समान ही निष्फल रहा, यूँ विचार कर पुनः विकल्पों में डूबती जाती है मछली। विकल्पों में उलझते हुए भी उसके मन में एक आशा की किरण जगी और लगा कि निस्सार विकल्पों में उलझने से कुछ लाभ होने वाला नहीं अब तो दृढ़ता के साथ कुछ पुरुषार्थ करना ही होगा, पुरुषार्थ करते हुए भले ही कटुता की अनुभूति हो। इस प्रकार चिरकाल से कार्य करने की क्षमता, दृढ़ संकल्प के रूप में परिवर्तित होती है। मछली सोचती है अब कुछ भी हो, कैसा भी साधन मिले ऊपर धरती पर जाना है अवश्य।
  19. पानी लाने हेतु शिल्पी हाथ में बाल्टी ले कूप पर जाता है। कूप में ऊपर आने को मचलती मछली पर उसकी परछाई पड़ती है, जिसे देख दृढ़ संकल्पित होती है वह, तभी उसकी विजय प्रारम्भ। बाल्टी का कूप के जल में प्रवेश, संकल्पिता मछली द्वारा अपनी सहेली के साथ चलने की बात, सहेली द्वारा समझाना-अपनी जाति, जगत् की बगुलाई, दया का वतन और कथन, झण्डा भी डण्डा और समय की बलिहारी। बाल्टी में प्रवेश पाना, शेष मछलियों का आश्चर्यचकित होना फिर सत्कार्य का अनुमोदन, महामछली की सत्कारमयी भावभीनी विदाई। मछली की कामना घट में काम ना रहे। ऊपर आ उपाश्रम की धूप का वन्दन, रूप, स्वरूप। पानी छानते वक्त बाल्टी से उछलकर मछली का माटी के पावन चरणों में जा पड़ना और अश्रु बहा निज वेदना की अभिव्यति। प्रकट स्थिति पर लेखनी पूछती है युग से मानवता, दानवता और दानवता की बात। माँ माटी द्वारा कलियुग-सतयुग का सही-सही परिचय। बात सुन माटी की गोद में बोध, शोध और सल्लेखना की माँग रखती है मछली। इस पर मुस्कुराती माटी सल्लेखना का सही स्वरूप बता अन्तिम उपदेश के रूप में देती है, मछली को सम्बोधन-छली नहीं, चली नहीं बनना, मासूम मछली बने रहना यही समाधि को जन्म देने वाली है। माटी द्वारा शिल्पी को संकेत-जलीय जन्तु और मछली को शिल्पी सुरक्षित वापस कूप में पहुँचा देता है।
  20. अहिंसा (किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुँचाना) ही हमारी पूजा के योग्य परमात्मा है। जहाँ गांठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही हिंसा सम्बन्धी पाप लगता है। अर्थ यह हुआ कि गांठ (परिग्रह) ही, हिंसा रूपी पाप को जन्म देने वाली है। "निग्रन्थ-दशा में ही अहिंसा पलती है, पल-पल पनपती, .....बल पाती है।" (पृ. 64) जहाँ पर परिग्रह का पूर्णत: त्याग होता है ऐसी निग्रन्थ, दिगम्बर स्थिति में ही सही-सही अहिंसा का पालन होता है और निग्रन्थता की शरण में ही अहिंसा प्रतिक्षण विकसित हो, सम्मान पाती है । हम ऐसे ही निग्रन्थ पन्थ के पथिक हैं। हमारे यहाँ सदा इसी पन्थ की बातें, इसी की पूजा और इसी की प्रशंसा चलती रहती है। हम सदा प्रभु से यही भावना भाते हैं कि-यह जीवन आगे भी इसी प्रकार चलता रहे बस! और कोई लौकिक चाह (संसार सम्बन्धी चाह) नहीं है। तुमने जो कठिन-कठोर गांठ बाँध रखी थी, यदि उसे खोला नहीं जाता तो पानी से भरी बाल्टी को जब ऊपर खींचा जाता तब गांठ गिरी में आ फंसती, जिससे बाल्टी का संतुलन बिगड़ जाता एवं बाल्टी का पानी उछलकर नीचे कूप में जा गिरता और गिरते हुए पानी की चोट से कूप में रहने वाले छोटे-बड़े अनेक जलचर जीव अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होते। उनकी हिंसा से उत्पन्न दोष के स्वामी, मेरे स्वामी शिल्पी जी कैसे बन सकते थे? इसीलिए गांठ का खोलना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य था, समझीं बात ओ री रस्सी ! पगली कहीं की, मेरी सहेली ।
  21. शिल्पी के मुख में बैठी-बैठी रसना (जीभ) भी सब घटना को देख रही है, अत: कुपित हो उत्तेजना भरे स्वर में बोल उठी रस्सी से कि-ओ री रस्सी ! तेरी और मेरी एक ही नाम राशि है, परन्तु क्या बात है आज तू रस-सी नहीं किन्तु कोरी नीरस-सी लग रही है। अभी तक तो दादी-दीदी के समान सबका भला करने वाली सीधी-सादी-सी मानी जाती थी किन्तु अब तू सरल नहीं रही, कसी गांठ पाल रखी, घनी हठीली बनी है। मेरी बात मान हठ को छोड़ गांठ को ढीली कर दे, वरना कुछ ही समय बाद जब तेरा यह अविभाज्य जीवन दो भागों में विभाजित होगा तब तुझे पश्चाताप ही करना पड़ेगा। और इस निन्द्य कार्य के प्रति छी-छी, थु-थू करती रसना गांठ के सन्धि स्थल पर लार टपका देती है परिणाम यह निकला कि रस्सी अपने भयावह भविष्य को देख हिल उठी और कुछ ही क्षणों में गीली गांठ, नरम हो ढीली पड़ गई। फिर क्या पूछना! दाँतों में उत्तेजना आई और ऊपर नीचे, सामने के सभी दाँत मिलकर गांठ खोल देते हैं। रस्सी की गांठ खुलने पर रस्सी जिज्ञासा का भाव ले पूछती है रसना से कि आपके स्वामी को मुझ गांठ से क्या बाधा थी? जो खोलने हेतु इतना पुरुषार्थ किया गया, डराया-धमकाया गया। सो रसना कहती है रस्सी से कि –सुन री रस्सी! क्या तुझे पता नहीं कि मेरे स्वामी शिल्पी जी पाप से दूर रहने वाले, इन्द्रियों को वश में रखने वाले संयमी हैं। वे सदा हिंसा से डरते हैं, अहिंसा ही उनका जीवन है, उनका कहना है कि संयम के अभाव में आदमी, आदमी नहीं है यानि "वही आदमी है जो यथा–योग्य सही आ.....दमी है।" (पृ. 64) जो शक्ति के अनुसार आ-सब ओर से, दमी-इन्द्रियों का दमन करने वाला, उन्हें वश में रखने वाला हो वही सही आदमी है।
  22. माटी को फुलाने हेतु पानी की आवश्यकता है। उपाश्रम के प्रांगण में ही स्वच्छ, मधुर जल से भरा कूप है। हाथ में बाल्टी ले कूप के तट पर पहुँचता है शिल्पी। जीवाणी कूप में सुरक्षित पहुँचाने हेतु बाल्टी में एक कड़ा लगा है, भंवरदार (ऽ) आकार की कड़ी रस्सी में बंधी है। रस्सी को उलझी देख शिल्पी बाल्टी को नीचे रख देता है और रस्सी को सुलझाने लगता है। रस्सी शीघ्रता से सुलझ भी जाती है, किन्तु सुलझाते-सुलझाते रस्सी के बीचों-बीच एक अत्यन्त कसी गांठ आ पड़ती है। शिल्पी सोचता है इस गांठ को खोलना तो बहुत जरूरी है, अत: पुरुषार्थ प्रारम्भ करता है। हाथ के दोनों अंगूठों और तर्जनियों में पूरी शक्ति लगाकर केन्द्रित करता है। भीतर का श्वांस भीतर और बाहर का बाहर ही रह जाता है और यहाँ बिना सोचे ही कुम्भक प्राणायाम जैसी दशा बन गई। इस समय शिल्पी के दोनों होंठ एक दूसरे को चबाते हुए से लग रहे हैं, दोनों भुजाओं की नसों का समूह खिचा हुआ है, त्वचा में उभार सा आया है, इतने पुरुषार्थ पर भी गांठ खुल नहीं रही है। अंगूठे की ताकत कम हुई, दोनों तर्जनी लगभग चेतना रहित, बेहोश-सी हो गई हैं। नाखून भी लाल-लाल खूनदार हो गए हैं, पर गांठ नहीं खुल पा रही है। इसी बीच दाँतों का समूह शिल्पी से कहता है कि – हे स्वामिन! हमें सेवा देकर उपकृत करो और इस समय यह उचित एवं आवश्यक भी है। हमने यही नीति सुनी है कि – "बात का प्रभाव जब बल-हीन होता है हाथ का प्रयोग तब कार्य करता है। और हाथ का प्रयोग जब बल-हीन होता है हथियार का प्रयोग तब आर्य करता है।" (पृ. 6o ) “जब बातों से काम न निकले तब हाथों का प्रयोग करना चाहिए और जब हाथों का बल भी कम पड़ जाए तब सजन पुरुषों को अस्त्र-शस्त्र का भी प्रयोग करना चाहिए,” इसीलिए अब बिना किसी संकोच के आप हमें रस्सी दे दीजिए। दाँतों की बात को उचित मान शिल्पी, रस्सी को दाँतों तक पहुँचा देता है। तभी शूल का दाँत सब दाँतों से कहता है कि, मेरे भाइयों गांठ के सन्धि स्थान की खोज तुम नहीं कर सकते। अत: दाहिनी ओर के नीचे वाला शूल का दाँत सन्धि स्थान को खोजने हेतु चारों ओर से गांठ को देखता है फिर शीघ्र ही सन्धि की गहराई में उतर जाता है, उसी ओर के ऊपरी शूल के दाँत का सहयोग ले। दोनों शूलों के अग्रभाग एक दूसरे से मिल गए जिससे उनकी मजबूत जड़ों को और ताकत मिल जाती है। इतना सब होने पर भी गांठ का खुलना तो दूर वह हिल भी नहीं रही है, अपितु शूल की जड़ें ही लगभग हिलने लगीं। दाँतों के अग्रभाग की नोकें टूटने वाली हैं, ऐसा लग रहा है। इस संघर्ष में मुलायम मसूड़े तो बेचारे छिल-छुल गए, लहुलुहान से हो गए उनमें से माँस ही बाहर झाँकने लगा है।
  23. माटी को फुलाने हेतु कूप से जल निकालना है, सो शिल्पी उलझी रस्सी को सुलझाता है, सुलझते-सुलझते रस्सी में एक कसी गाँठ आ पड़ती है। जिसे खोलने का प्रयास-अंगूठे और अँगुलियों की असफलता, दाँतों की प्रार्थना, रस्सी दाँतों तक, संघर्षित शूल-चूल-मसूड़ों की दशा देख रसना द्वारा रस्सी को सरोष उद्बोधन, भयभीत भविष्य को जान, गांठ का ढीली पड़ना, दाँतों में गरमाई आना और रस्सी का खुलना। रस्सी की जिज्ञासा-गाँठ से क्या बाधा ? सी रसना द्वारा समाधान-ग्रन्थी हिंसा का कारण है इसीलिए तथा जीव रक्षण हेतु गाँठ खोलना अनिवार्य था। माटी के जीवन को विकसित करने हेतु शिल्पी विचार कर रहा है कि मृदु माटी को अनुपात से उचित मात्रा में जल मिलाकर फुलाना है, जल में माटी को घुलाना है और क्रम-क्रम से दु:ख के क्षण, पुरानी बातों को माटी भूल जाए और उसके कण-कण में, प्रतिपल में नयापन आ जाए बस! ऐसा पुरुषार्थ मुझे करना है, आज माटी को फुलाना है, बस!
  24. कंकरों की प्रार्थना सुनकर माटी की मुस्कान कुछ कहती है – "संयम की राह चलो राही बनना ही तो हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा है रा.......ही ही.......रा "(पृ. 56) पाँच पाप को त्यागकर संयम पथ पर चलो, संयमी का जीवन हीरे के समान बहुमूल्य बन जाता है। रत्नत्रय अंगीकार कर, शिवपथ पर गमन करने वाला राही ही तो हीरा बनता है तथा तन और मन को त्याग तपस्या की अग्नि में तपा-तपाकर, जला-जलाकर, राख करना होगा। बहुत पुरुषार्थ करना होगा तब कहीं यह चेतन आत्मा विशुद्ध बनेगा। "खरा शब्द भी स्वयं विलोम रूप से कह रहा है- राख बने बिना खरा-दर्शन कहाँ? रा....ख ख....रा।" (पृ. 57) क्योंकि स्वयं खरा शब्द पलटकर कह रहा है तन-मन को राख बनाए बिना खरा यानि विशुद्ध चेतना का दर्शन संभव नहीं। इतना कहकर समुद्र के समान उदार माटी की मूरत हाथ उठाकर आशीष प्रदान करती है कि तुम्हारा भी जीवन सफल बनें शुभाशीष।
  25. इससे यही समझ आता है कि बर्फ को बाहर से छूने पर भले ही ठण्डा लगता है, किन्तु बर्फ में भीतर से ठण्डापन नहीं ज्वलनशीलता ही उत्पन्न होती है। अन्यथा जिसे बहुत जोरों की प्यास लगी हो, गला सूख रहा हो, आँखों में जलन हो रही हो, ऐसा व्यक्ति पीड़ा से जल्दी-जल्दी छुटकारा पाने जल पीने की बजाय बर्फ की डली खा लेता है, परिणाम स्वरूप उसकी प्यास बुझना तो दूर उल्टी कसकर प्यास और बढ़ जाती है, नाक बहने लगती है क्यों? यही परिणति तो विभाव दशा की सफलता और स्वभाव दशा की असफलता है। इतना होने पर भी सागरीय जल-सत्ता जो माँ के समान है, बर्फ की शिला को डुबोती नहीं इसमें क्या रहस्य है? लगता है अपनी संतान के प्रति माँ की ममता का परिणाम है यह। चुपचाप सब कुछ कष्ट सहन करती हुई भी अपने वंश-अंश (संतान) के प्रति भूलकर भी ऐसा कदम नहीं उठा सकती। माटी की बात सुनकर कंकरों की ओर से व्यंग्यात्मक तरंग आई कि हम मानते हैं कि अपने आपको सबसे अलग दिखाने की भावना का उत्पन्न होना मान कषाय का ही प्रतिफल है, किन्तु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मान का अत्यन्त कम होना, सूक्ष्म होना मान का समाप्त होना-सा लगता है किन्तु वह सूक्ष्म मान भी भावी बहुमान के लिए बीज वपन के समान हो सकता है। कंकरों की ओर से निकली तरंग संग की संगति से दूर माटी के शरीर को ही नहीं सीधे जाकर उसके मन को छूती है। इधर तुरन्त ही कंकरों को लगा कि हमने गलत विचार किया और वे कह पड़े कि नहीं-नहीं हमारा अनुचित साहस हुआ, हमारी भूल के लिए क्षमा करें माँ, यह प्रसंग आपके विषय में घटित नहीं होता कहता हुआ कंकरों का दल रो पड़ा और माटी से प्रार्थना करता है-हे माँ माटी! हमें एक मन्त्र दो जिससे यह जीवन हीरे के समान बहुमूल्य और कंचन यानि स्वर्ण जैसा विशुद्ध बन सके।
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