कंकरों की कठोर वाणी सुनकर भी शिल्पी के मन में थोड़ा-सा भी तनाव (Tension) पैदा नहीं हुआ, वह पृथ्वी के समान क्षमावान ही बना रहा। फिर सहज रूप से समता के साथ कुछ कहता है शिल्पी -‘संकर दोष के विषय में वर्ण से आशय ना ही शरीर के रंग से है और ना ही शरीर से किन्तु चाल-चलन तरीके से है यानी -
"जिसे अपनाया है
उसे
जिसने अपनाया है
उसके अनुरूप
अपने गुण धर्म-
....रूप स्वरूप को
परिवर्तित करना होगा
वरना
वर्ण-संकर-दोष को
वरना होगा!" (पृ. 47)
अर्थात् जिसे स्वीकार किया जा रहा है उसको स्वयं का जीवन, जो उसे स्वीकार कर रहा है उसके अनुसार ढालना, अपने गुण-धर्म स्वभाव को परिवर्तित करना ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो पाता तो नियम रूप से उसे संकर दोष को स्वीकारना ही होगा और यह अनिवार्य ही है।
इस कथन से वर्ण लाभ का निषेध हुआ हो, ऐसा नहीं, चाहो तो उदाहरण के माध्यम से इस विषय को समझ सकते हो-दूध और पानी दोनों की जाति भिन्न-भिन्न है, दोनों का स्पर्श, स्वाद, रंग भी भिन्न-भिन्न ही है, किन्तु दूध में विधि (तरीके) अनुसार, योग्य मात्रा में पानी मिलाते ही पानी दूध रूप में परिवर्तित हो जाता है, यह सभी को ज्ञात है और सुनो रंग की अपेक्षा देखा जावे तो आक के दूध का रंग और गाय के दूध का रंग दोनों दूधिया सफेद हैं, दोनों ऊपर से स्वच्छ हैं किन्तु उन्हें आपस में मिलाने पर दूध फट जाता है, दुख का कारण बन जाता है। अत: पानी का दूध बनना ही वर्णलाभ है, जो कि वरदान है और दूध का फट जाना ही वर्ण संकर है जो कि अभिशाप है। इन सब बातों का यही परिणाम निकला अब ज्यादा कथन से विराम हो।
विशेष : प्राणी मात्र का उद्धारक यह जिनशासन अनादिकाल से इस धरा पर विद्यमान है। इसकी शरण को प्राप्त हुए चाण्डाल, धीवर, भील जैसे निम्न जाति के मनुष्यों तथा श्वान, सूकर आदि तिर्यच्चों ने भी अपने जीवन को श्रेष्ठ / उन्नत बनाया। सत्धर्म को जीवन में अंगीकार कर वे स्वर्गों के देवों द्वारा भी पूज्यता को प्राप्त हुए। श्रावकाचार, पुराण/ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं किन्तु वर्तमान परिवेश में कतिपय लोगों की धारणानुसार धर्म से ज्यादा महत्व जाति को दिया जा रहा है, जिनधर्म भले छूट जाए किन्तु जाति नहीं छूटना चाहिए। हमें ऐसा लगता है कि संभवत: उन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए आचार्य श्री ने यह चिन्तन दिया होगा। आचार्यश्री एक साधक मात्र ही नहीं अपितु विशेष जिनशासक प्रभावक, समाज उद्धारक सन्त भी हैं। जिनकी कृपा एवं उदार दृष्टिकोण के फलस्वरूप सैकड़ो दिगंबर श्रमण, आर्यिका, उत्कृष्ट श्रावक और श्राविकाएं आचार्य कुंद कुंद की निर्दोष परम्परा का पालन करते हुए भारत भूमि पर भ्रमण कर रहे हैं।
आचार्य श्री का मानना है कि व्यक्ति में अहिंसादि व्रतों के संस्कार से श्रेष्ठता आ सकती है। धर्म भव-भव का साथी है जबकि जातियाँ तात्कालिक परिस्थितियों वश निर्मित, हमारी स्वयं की कल्पनाएँ हैं। यदि किसी कन्या का विवाह, जैनधर्म पालित परिवार को छोड़कर, अन्य धर्मावलंबी से किया जाता है, मात्र इस कारण से कि उसके योग्य धन-धान्यादि से सम्पन्न वर उनकी जाति में नहीं है तो यह उचित नहीं है। जाति भिन्न भी हो किन्तु यदि सनातन जिनधर्म को नहीं छोड़ा जावे तो वर्ण लाभ ही माना जाएगा संकर दोष नहीं।