लेखनी लिखती है कि-
एक गुरु के दो शिष्य
एक दिन-रात गुरु के गुण गाता
सेवा में सदा तत्पर रहता
गुरु के कार्य को लगन से करता
फिर भी गुरु उसे मन से नहीं चाहते
चरणों में उसे स्थान नहीं देते
कारण स्पष्ट है-
सब कुछ कर रहा अपने स्वार्थ के लिए
गुरु की प्रशंसा कर रहा अपनी प्रशंसा के लिए
गुरु की सेवा करता अपनी कराने के लिए
ताकि उसके भी शिष्य उसकी करें ऐसी ही सेवा
मुक्त कंठ से करें उसकी प्रशंसा
बदले की भावना से की गई सेवा
निरर्थक है फलती नहीं,
अपने विचारों का प्रभाव पड़ता औरों पर भी
ऐसा वह जानता ही नहीं।
दूसरा शिष्य रहता है मौन
दुनिया से रहकर गौण
मन ही मन गुरु के गुण गाता है
उसकी भक्ति को जग कहाँ जान पाता है?
फिर भी गुरु चाहते उसे हृदय से
जानते उसे ज्ञान नयन से
कि यह स्वार्थ नहीं परमार्थ के लिए आया है
पर को खोकर निज को पाने आया है,
प्रसिद्धि से परे सिद्धि का लक्ष्य है इसका
जानन देखनहार को जानने देखने आया है।
अंतरवृत्ति को जानकर गुरु
ज्ञान लुटाते हैं,
इस प्रसंग में
श्रीज्ञानसागरजी गुरु के चरणों में पढ़ते हुए
शिष्य विद्याधर याद आते हैं।