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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 23. परिणति : हिमखण्ड की

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    देखो एक छोटी सी नाव जिसमें छेद ना हो अपार समुद्र को पार कर जाती है। वह नाव ना ही जल और ना ही जल की गहराई से डरती है, किन्तु कभी-कभी वह भी घबरा जाती है। घबराहट का कारण, जल का वह अंश जो बर्फ के रूप में बदला, जल की गहराई को छोड़कर जल की सतह में तैर रहा है आधा डूबा हुआ-हिमखण्ड। जो कि मानो मानकषाय को नापने का साधन बना हो।

     

    हिमखण्ड जल की सरलता को रोकने वाला, विषपने को उगलने वाला, जल के पतलेपन को सुखाने वाला और सघनता-ठोसपने का पालन-पोषण करने वाला है। स्वयं तैरना नहीं जानता, ना ही तैरना चाहता है, किन्तु उसकी परिणति तो देखो, जो सबको पार लगाने वाली ऐसी नौका और नाविक (खिवैया) को ही डुबाना चाहता है वह। सदा तन (अकड़) कर जल के ऊपर रहना चाहता है, जल में घुल मिलकर नहीं, सारे संसार को नीचे पहुँचाकर, स्वयं उनके ऊपर रहना चाहता है। हे मानी प्राणी! दूसरी ओर जल को तो देख और अब अपनी परिणति को सुधार, सरल बन। हे मान कषाय से रहित, सर्वज्ञ प्रभो! यह मान कब समाप्त होगा पता नहीं ?

     

    माटी की उपदेश धारा अभी समाप्त नहीं हुई, किन्तु सामान्य अर्थ से हटकर विशेष की ओर, प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर बहती हुई बोलती है माटी, तुम्हें स्वभाव-विभाव को जानना होगा। बीज का बोना हुआ, जल की वर्षा और बीजों का अंकुरण, फिर कुछ ही दिनों में अंकुरित बीज फसल बनकर लहलहाते हैं। फिर बर्फ नहीं किन्तु बर्फीली हवा भी कुछ ही समय में पकी फसल को जला देती है, आग-सी। जिसे ‘पाला पड़ गया' कहा जाता है फसल का जीवन समाप्त, दाना नष्ट ।

     

    स्वभाव में रहा जल प्राण प्रदाता बनता है, जबकि विभाव रूप में परिणत जल प्राण हरने वाला बन गया। यही स्वभाव-विभाव में अन्तर है। जिन्होंने जीवन की यथार्थता को जान लिया, ऐसे सन्तों की वाणी है यह।



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