लेखनी लिखती है कि-
मेरे शिष्यों की संख्या बढ़ जाये
नहीं सोचते यह गुरु
भक्तों का सैलाब उमड़ आये
नहीं चाहते यह गुरु
अपने आत्मानंद में समाते हैं गुरु
अनर्थकारी व्यर्थ क्रियाओं में
समय गुजारते नहीं गुरु
करने-करने की धुन लगाते नहीं गुरु,
यद्यपि कठिन लगता है कुछ नहीं करना
पर करना ही मरना है यह जानते हैं गुरु
करने-करने की पुरानी है आदत
इसीलिए सहज रहते हैं गुरु।
जानना-देखना स्वभाव है आतम का
इसीलिए देखो' यह कहते हैं गुरु
व्यर्थ कुछ कहते नहीं
अनर्थ कुछ करते नहीं
अर्थपूर्ण जीवन जीते हैं गुरु
आडम्बर रखते नहीं जो
धरा बिछोना अंबर ओढ़ते वो
पराधीनता से परे रहकर
स्वाधीन स्वतंत्र रहते हैं गुरु ।
वैसे गुरु तो अनेक हैं हमारे देश में
भिन्न-भिन्न अभिनिवेश में
भिन्न-भिन्न वेश में
पर हर गुरु काश! ऐसा सद्गुरु होता
तो सारे देश का नक्शा ही बदल गया होता
न कोई दुखी रहता, न ही रोता।
सच्चे संत के अभाव में ही
आज मानव तितर-बितर हो रहा है
सत्पथ प्रदर्शक के न मिलने से ही
आज इंसान भटक रहा है
सूनी है नगर गाँव गली
गुरुवर श्रीविद्यासागरजी आप बिन
भक्तों का हृदय गुरु-गुरु पुकार रहा है।