लेखनी लिखती है कि-
पर्यायों की नश्वरता का
ज्ञान जगाते हैं गुरु
द्रव्य की अमरता का
भान कराते हैं गुरु
इसीलिए
मंत्र है गुरु की वाणी
यंत्र है गुरु की दृष्टि
तंत्र है गुरु की आशीष वृष्टि
गुरु-स्नेह में ही समायी है
शिष्य की समूची सृष्टि;
क्योंकि
गुरु ही स्थूल से सूक्ष्मता की ओर
कलुषता से उज्ज्वलता की ओर
जड़त्व से चेतना की ओर
पर से निजातमा की ओर
आधि व्याधि से बचाकर
ले जाते हैं सम्यक् समाधि की ओर
जहाँ है सदा आनंद की भोर।
इतिहास साक्षी है इस बात का
गुरु के बिना मिट सकता नहीं
भव का भ्रमण,
पर महान् गुरु कहते हैं कि मुझे छोड़े बिना
कर नहीं सकता शिवरमा का वरण,
शिष्य ने किया है ऐसे गुरु का साक्षात्कार
भूल सकता नहीं वह
आचार्य श्रीविद्यासागरजी गुरुवर का अनंत उपकार।