कुछ देर तक शिल्पी ने माटी को सांत्वना दी, फिर उसने अपने साथी को आमंत्रित किया, वह साथी है-गदहा यानि गधा! जो कि शिल्पी का सहयोग करने के बदले में कुछ वेतन (धन) नहीं लेता, किन्तु शरीर चलाने के लिए कुछ खानपान सामग्री अवश्य लेता है। जिसके गले में रस्सी नहीं है और न ही पैरों में बन्धन, घाटी में घूम रहा था। बंधन उसे रुचता नहीं, बंधता है तो मात्र स्वामी की आज्ञा से, इंतजार करता है स्वामी की आज्ञा का। शिल्पी ने माटी से भरी बोरी उसकी पीठ पर लाद दी और संकेत किया चलो उपाश्रम की ओर। गधा चल पड़ा है उपाश्रम की ओर अपनी पुष्ट पीठ पर माटी को ले।
गदहे की पीठ पर बैठकर अपदा (पैर रहित) माटी कुम्भकार के उपाश्रम की ओर जा रही है कि बीच रास्ते में माटी की दृष्टि पड़ती है गदहे की पीठ पर और उसका हृदय अनुकम्पा से भयभीत हो हिल उठा, कारण रूखी बोरी की रगड़ से गदहे की पीठ छिल रही थी, जिससे गदहे को पीड़ा का अनुभव हो रहा था ।
अनुकम्पा यानि दूसरों के दुख को देखकर हृदय कप जाना, दुखी होना, इस अनुभूति के लिए मात्र क्षेत्रीय निकटता की ही नहीं किन्तु भावों की निकटता भी अनिवार्य है तभी तो यहाँ माटी के मन में करुणा भाव, अपनापन उत्पन्न हो रहा है। यहाँ मृत नहीं किन्तु चेतना की जागृत परम्परा दिख रही है।
गदहे की पीड़ा दूर हो इस भावना का यह परिणाम निकला कि तन की दूरी को दूर करती, बोरी में से छन-छन कर माटी करुणा रस से भीगी, गदहे की पीठ पर मलहम बनकर लग रही है जिससे उस स्थान (पीठ और बोरी की रगड़ वाला) का रूखापन भी मुलायम पड़ गया और गदहे को पीड़ा से राहत मिली, किन्तु इतने पर भी माटी उदास है दूसरों का सहारा ले यात्रा करने को मना कर रही है।