लेखनी लिखती है कि-
जल ईख में जाकर मिष्ट
नीम की जड़ों में कटुक
विषधर के मुख में विष
लवणाकर में जाकर क्षार
सीप के मुख में मुक्ताकार
क्यों बन जाता है?
स्पष्ट है जिसका जैसा उपादान होता है
वैसा ही वह ग्रहण कर पाता है
जिसका जैसा विचार रहता
वैसा ही वह आचरण करता है
वैसे गुरु का हर वचन बन जाता है काव्य
गुरु का हर अनमोल शब्द है श्राव्य
जो गुरु-शरण में जाता
हृदय पात्र करके खाली,
गुरु उँडेल देते हैं उसमें
अपनी ज्ञानामृत की प्याली;
क्योंकि गुरु वाणी को मात्र श्रवण से ही
सुना नहीं जाता
ज्ञान के कटोरे से
पिया जाता है,
रखकर चैतन्य कटोरे में
सुख से जिया जा सकता है।
जैसे विनम्र होकर विद्याधर ने
पायी थी विद्या गुरु श्रीज्ञानसागरजी से,
वह शिष्य भी हुआ धन्य
और गुरु श्रीज्ञानसागरजी भी हुए धन्य
शिष्य पाकर विद्याधर जैसे।