लेखनी लिखती है कि-
शिष्यत्व यदि है प्रथम पायदान
तो गुरु का होता है द्वितीय सोपान
और अंतिम है प्रभुत्व
जहाँ सर्व कार्य सिद्ध कर
पा लेते हैं सिद्धत्व।
गुरु अत्यंत प्रभावशाली होकर भी
पर को प्रभावित नहीं करते,
भावित होते पल-पल प्रभु से
प्रभु की ही प्रभावना करते रहते,
जो ज्ञानभाव से युक्त
धर्म्यध्यान संयुक्त रहते।
भगवान् और सद्भक्त शिष्य के बीच
गुरु अदृश्य सेतु हैं,
शिष्य की प्रसन्नता में
गुरु ही एक हेतु हैं।
कहता है सशिष्य-
सब कुछ मेरा गुरु के कारण है
तब गुरु कहते हैं-
मैं हूँ आकिञ्चन अकर्ता
सब मेरा प्रभु के कारण है।
शिष्य के समर्पण भाव का घनत्व
उसमें प्रगट करता है गुरुत्व,
और गुरु की निस्वार्थ प्रवृत्ति
प्रगट कर देती है सिद्धत्व,
मैंने देखा है गुरु श्रीविद्यासागरजी में
सिद्धत्व की यात्रा शुरु हो गई है
इसीलिए सारे जगत् को भूल
मेरी मति उनमें ही खो गई है।