लेखनी लिखती है कि-
यकीनन गुरु के अंत में
कुछ तो खास है;
क्योंकि परमात्मा
गुरु के पास है।
उनके नयनों की गहनता देख
शिष्य की चंचलता नष्ट हो जाती है
उनके विशाल भाल को देख
शिष्य की अहमियत नष्ट हो जाती है
उनकी सधी चाल को देख
शिष्य का चंचल मन स्थिर हो जाता है
उनकी शांत मुद्रा को देख
शिष्य सारी दुनिया को भूल जाता है
उनके वचन-सुधा को पीकर
अंतर में तृप्त हो जाता है
गुरु को पाने के बाद
स्वर्गों का सुख भी फीका लगता है।
इसमें कारण है
गुरु का ज्ञान, गुरु का आत्मदर्शन
गुरु का त्याग, गुरु का निजानुभवन
उनकी साधना, आत्माराधना
प्रभु से गुरु की निकटता
परिणामों की निर्मलता
ऐसे गुरु मात्र ग्रंथों में नहीं
साक्षात् हैं इस धरा पर
वह हैं गुरु श्रीविद्यासागरजी,
जिनमें रत्नत्रय से भरी
संयमित सागर की
विद्यमान हैं गहराईयाँ,
ऐसे गुरु के दर्शन को
तरसती हैं मेरी अँखियाँ।