लेखनी लिखती है कि-
गुरु के शब्द में अर्थ के चित्र उभरते हैं
फिर गुरु उसमें अपनी अनुभूति के रंग भरते हैं
तब शब्द के साथ दिखता है दृश्य
देखते-देखते दृश्य होते हैं अदृश्य
शेष रह जाता दृष्टा,
शब्द के साथ जानने में आते हैं ज्ञेय
जानते-जानते ज्ञेय होते हैं ओझल
शेष रह जाता ज्ञाता,
गुरु की मूरत भी तब ओझल होती है
निज आत्मा की झलक आती है
उन पलों में जो रस आता है
उससे पुण्य का रस भी फीका लगता है।
सच, गुरु के शब्द हैं दीप समान
बिना चर्म चक्षु खोले ही
होता है रोशनी का भान,
देते हुए कुछ दिखते नहीं
पर देते हैं अपूर्व अद्भुत दान
ज्यों नदी पार करने
चाहिए जहाज,
त्यों दुख सरिता से उभरने
चाहिए गुरु शब्द की नाव,
इनके अनमोल वचनों को तोल नहीं सकते
गुरु जो करुणा से भरकर बोलते
नकल करके भी ऐसा कोई बोल नहीं सकते।
इनके शब्दों की चमक के आगे
हीरे की चमक भी पड़ जाती फीकी,
इनके शब्दों की महक के आगे
इत्र की महक भी पड़ जाती फीकी।
सुनकर दो बोल गुरु-मुख से
दैवीय सुख भी नीरस लगता है,
इसीलिए तो श्रीविद्यासागरजी गुरुवर की
वाणी सुनने को मन तरसता है।