लेखनी लिखती है कि-
वैराग्य रूपी कलश की स्थापना
होती है गुरु-शरण में
स्वयं के दोष निवारण की कामना
होती है गुरु-चरण में
गुरु में कर्म परिवर्तन की क्षमता है;
क्योंकि प्रत्येक परिस्थिति में रखते समता हैं
अपनी निंदा व प्रशंसा में रहते समान
तभी तो कहलाते भावी भगवान्।
इनसे कर्म भी डरते हैं
विज्ञ इन्हें अभय के मेरु कहते हैं
पाप तो बेचारे थरथर काँपते हैं
पुण्य फल को वे चाहते नहीं
पुण्य से परे जाना है इन्हें मोक्ष मही।
इनकी संकल्प शक्ति में ताकत है वो
जो आतम में छिपे परमातम को दिखा देती है
इनकी कृपा में सामर्थ्य है वो
जो अज्ञ को भी प्रज्ञ बना देती है
गुरु का अर्थ ही यही है
जिन्हें गुण युक्त रूपातीत हो जाना है
पर से परे होकर जिन्हें
अपने आप में ही खो जाना है।
जब गुरु अंत में उतर आते हैं
तभी शिष्य एकाकी हो
स्वयं को पा जाते हैं
जब वीर मोक्ष चले जाते हैं
तब गौतम भी कैवल्य पाते हैं
गुरु की हर प्रक्रिया बनाती है शिष्य को उन्नत
धरती को ऐसे ही गुरु की थी जरूरत
तब आया दक्षिण से उड़कर एक विद्याधर
अनेकों की प्यास बुझाने
बन गया वह ज्ञान का सागर विद्यासागर।