लेखनी लिखती है कि-
शिष्य है यदि खान का पाषाण
तो सद्गुरु हैं शिल्पी,
गुरु हैं यदि कुंभकार
तो शिष्य है मिट्टी,
शिष्य है यदि आधेय
तो गुरु हैं आधार
गुरु के बिना शिष्य का जीवन है बेकार।
पाषाण भी छैनी की चोट खाकर
बन जाता है भगवान्,
खान का हीरा शान पर चढ़कर
हो जाता मूल्यवान।
महिमा शक्ति की नहीं
शक्ति प्रगट कर्ता की है,
कीमत वस्तु की नहीं
उसकी उपादेयता की है।
गुरु तब तक शिष्य को देता है
जब तक वह औरों को देने योग्य न हो जाये
स्वर्ण तब तक अनल में तपता है
जब तक आभूषण बनने के योग्य न हो जाये
गुरु देकर थकता नहीं
और शिष्य पाकर भी पूर्ण होता नहीं;
क्योंकि पूर्ण हो गया तो वह प्रभु हो जायेगा
फिर तो गुरु-शिष्य का संबंध ही खो जायेगा।
ऐसे ही थे शिष्य विद्याधर
गुरु से ज्ञान पाते गये
आनंद सरोवर में डूबते गये
और हो गये निग्रंथ दिगम्बर
सर्व प्रियंकर गुरुवर श्रीविद्यासागर।