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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. लेखनी लिखती है कि- गुरु प्रभावित नहीं होते शिष्य से किंतु प्रसन्न अवश्य होते जब वह प्रभु वाणी को स्वीकारता, गुरु द्वेष नहीं करते शिष्य से किंतु खिन्न अवश्य होते जब वह भगवत् वाणी को नकारता। शिष्य का अच्छा खानदान देख गुरु स्नेह नहीं करते, देखकर शिष्य का ज्ञान-ध्यान गुरु वात्सल्य रूप दृष्टि रखते। खानदान तन का होता तन एक दिन छूटता है, ज्ञान-ध्यान चेतन का होता आतम तो शाश्वत रहता है। देह का सुंदर रंग रूप वचन हो मधुर बहुत पर सरल,विनम्र नहीं यदि तो गुरु नहीं देते शरण शिष्य रूप में करते नहीं वरण; क्योंकि गुरु मानवीय गुणों से ऊपर उठ गये परमात्मा के अति निकट पहुँच गये शिष्य में कम से कम होनी चाहिए मानवोचित प्रकृति, उसके आचरण में होनी ही चाहिए सदाचरण रूप प्रवृत्ति । गुरुदेव का कहना है कि- भूमि उर्वरा है तो फसल अच्छी आएगी मति यदि अच्छी है तो गति अच्छी होएगी इसीलिए न सही महान् बन जाओ अच्छे इंसान यदि नेक इंसान भी नहीं बन पाते हो तो एक बार श्रीविद्यासागरजी गुरु की शरण में क्यों नहीं आते हो? आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  2. लेखनी लिखती है कि- गुरु की वृत्ति है वंदनीय अनुभूति है अनुकरणीय परिणति है पूज्यनीय आत्मरुचि है अभिवंदनीय। गुरुदेव जब होते हैं मुखर तो ऐसा लगता ज्ञानधारा को उतार रहे धरा पर जब वे मौन में डूबते तो लगता स्थिर हो गये हो ज्ञान गगन पर जिनका सम्यक् आचरण लख शिष्यों में जागती है श्रद्धा की उमंग जिनके आगम वचन श्रवण कर हृदय सरवर में उठती आनंद तरंग। शास्त्रों का ज्ञान,भेद विज्ञान भक्ति की फुहार, आनंद बयार दृढ़ संकल्प, चेतन अविकल्प लक्ष्य वीतराग विज्ञान, करते निज ध्यान व्यवहार में हारते नहीं वे निश्चय को तजते नहीं वे। जिनके प्रवचन परमार्थ की जगाते हैं अभिलाषा जो बोलते हैं पथ प्रदर्शक बन प्रभु की ही भाषा, जो गिरि सम उन्नत सागर सम गहन अवनि सम सहनशील सरिता सम गतिशील लगते हैं वे अपने, अपनों से भी अधिक जो देने आये हैं सिद्धों का समाचार ऐसे गुरु श्रीविद्यासागरजी को मेरा वंदन बारंबार। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  3. इधर माटी खोदने की क्रिया पूर्ण हुई और शिल्पी उसे दोनों छोरों से बन्द किन्तु बीच में एक तरफ से खुली (खुरजी) बोरी में अपने दोनों हाथों से खुदी माटी भर रहा है। पूरी भरी हुई बोरी में से ऊपर के ओर की भोली माटी ऐसी लग रही है, मानो सुन्दर साड़ी और वस्त्राभूषणों से सुसजित, लज्जा (शर्म, मर्यादा) का अनुभव करने वाली, लघु उदर (पेट) वाली, नवविवाहिता स्त्री घूंघट में से बाहर की ओर ही झांक रही हो। "सतियों को भी यतियों को भी प्यारी है यही प्राचीना परिपाटी। इसके सामने बन्धन-विरहित-शीला नूतन-नवीना इस युग की जीवन-लीला कीमत कम पाती है।" (पृ. 31) यह घूंघट और आवरण की परम्परा ऋषि-मुनियों और साध्वियों को भी प्रिय है क्योंकि इस मर्यादा के कारण ही जीवन सात्विक और उन्नत बनता हुआ सम्मान पाता है। किन्तु वर्तमान युग में लौकिक मर्यादाओं एवं लजा को छोड़ आधुनिकता और फैशन में डूबी नवीन जीवन लीला, उस प्राचीन परम्परा के सामने कुछ भी मूल्य नहीं पाती है। सात्विक माटी के गालों में छेद से दिख रहे थे, जिसे देखकर शिल्पी विचारता है कि क्या कारण हो सकता है इन छेदों का? और स्वयं ही माटी से पूछता है-हे! सुन्दर आचरण वाली माटी! तुम्हारे गालों में छेद क्यों है? कारण जानना चाहता हूँ। यदि कोई बाधा ना हो तो बताने का प्रयास करोगी।
  4. लेखनी लिखती है कि- गुरु का अर्थ दीर्घ भी होता है भारी भी दूरदृष्टि के साथ गहरी दृष्टि भी स्वयं के साथ शिष्य की सँवारते वृत्ति भी इत्यादि अनेक विशेषताओं के कारण कहलाते वह गुरु। वैसे गुरु शब्द के अनेक अर्थ हैं गुरु में सर्व सामर्थ्य है अनर्थ के गर्त से बचाते हैं बुराईयों की पर्त दर पर्त निश्चित होकर हटाते हैं। व्यर्थ से हटाकर सार्थ बनाते हैं जीवन अमावस को कर देते पूनम जिन्हें वे कर लेते शिष्य रूप में स्वीकार उसे अवश्य देते आनंद का उपहार ऐसे गुरु की महिमा बृहस्पति भी गा न सके गुरु का व्यक्तित्व है इतना विराट कि शिष्य अपने हृदयाकाश में समा न सके तभी तो माला फेरते उनके नाम की स्तुति गाते उनके काम की। जो पहुँचा देते शिष्य की पाती सीधे परमात्मा तक, और परमात्मा का संदेश सुना देते शिष्यों तक। ऐसे गुरु दाता सुपात्र को ही मिल पाते, जिसने अर्जित किया जन्म-जन्मान्तर का पुण्य वही गुरु श्रीविद्यासागरजी के शिष्य बन जाते। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  5. सरिता-तट पर कुम्भकार आ चुका है और अब माटी को उठाकर अपने उपाश्रम तक ले जाना है अतः धरा से माटी को उठाने के पूर्व शिल्पी का उपक्रम (प्रारम्भ की तैयारी) होता है। माटी को कुदाली से खोदना है। इस कार्य को प्रारम्भ करने से पहले शिल्पी ने पञ्च परमेष्ठी का वाचक, बीजाक्षर (मंत्र का पहला अक्षर) मंत्र स्वरूप ओकार (ॐ) को नमन किया तथा नमन क्रिया के पूर्व ही अहंकार, अभिमान को छोड़ दिया। नमन के साथ ही स्वयं के आत्म परिणामों की निर्मलता बनी रहे, अत: "कर्तृत्व-बुद्धि से मुड़ गया है वह और कर्तव्य-बुद्धि से जुड़ गया है वह।" (पृ. 28) स्वयं के कर्तापन का त्याग कर, कर्तव्य भावों को स्वीकार करता है वह शिल्पी। सज्जन पुरुषों, आत्म हितार्थी भव्य आर्यों के लिए यह मुड़न-जुड़न की क्रिया आवश्यक ही नहीं अनिवार्य ही है, जब तक कार्य सम्पन्न न हो जाए। क्योंकि संसार में दुख का मूल कारण कर्तापन (मैं अन्य का अच्छा-बुरा कर अरिहत, सिद्ध-अशरीरी, आचार्य, उपाध्याय, साधु-मुनि। सभी के प्रथम अक्षर के संयोग से अ+अ+आ+उ+म=ओम् (ॐ) सकता हूँ/करता हूँ यह परिणाम) ही बनता है। इसी कारण व्यक्ति पापों को बाँधता हुआ दुखी होता है। इसीलिए कर्तापन का त्याग कर कर्तव्य (करने योग्य था सो किया) बुद्धि से कार्य करें एवं हर्ष-विषाद से बचें। शिल्पी माटी को खोदना प्रारम्भ करता है कि यह जीवन जो बिना रुके बिना थके आगे बढ़ता ही जा रहा है, इस दृश्य को देख रहा है। क्रूर कुदाली से माटी खोदी जा रही है, स्वयं ही शंका-प्रतिशंका करता है कि यह सामने कौन-सा कर्तव्य किया जा रहा है? समझ नहीं आ रहा। कौन इसका निर्देशक है, किस उद्देश्य से यह किया जा रहा है। माटी के माथे पर मार पड़ रही है, माटी की मृदुता में कुदाली की कठोरता लीन हुई जा रही है। क्या माटी की दया ने ही कुदाली की अदया बुलाई है? क्या अदया (क्रूरता) और दया के बीच घनी मित्रता है? यदि नहीं तो माटी के मुख से रोने की आवाज और आँखों से आँसू क्यों नहीं आ रहे? इस क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप मुख पर थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं। कहीं यह राजसत्ता की भाँति कुछ रहस्य तो नहीं कि भय या लोभादि के कारण दुख व्यक्त ना किया जा रहा हो। लगता है कुछ विशेष परिस्थितियों और लोगों को छोड़कर बाहरी क्रियाओं से भीतर की परिणति, भावों का सही-सही अंदाज नहीं लगाया जा सकता, फिर ऐसी स्थिति में गलत निर्णय देना भी उचित नहीं है। जब कोई भव्यात्मा सच्चे सुख के साधन रूप मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ाता है, तब उसे केशलोंच करना, एक बार भोजन करना, पैदल चलना, गर्मी, सर्दी आदि के कष्टों को सहन करना पड़ता है, समीचीन आस्था और वैराग्य होने पर वह समता पूर्वक सब कुछ सहता चला जाता है। इधर सामान्य व्यक्ति (मार्ग से अपरिचित ) यह सब देखकर आश्चर्यचकित होता हुआ विचार करता है कि यह कैसा सुख प्राप्ति का मार्ग है, यहाँ तो कष्ट ही कष्ट दिख रहे हैं।
  6. लो धन्य! अब तो पूरा का पूरा एक चेहरा सामने प्रकट हुआ है, यह चेहरा आत्मीय भावों से तथा अदमनीय उत्साह से भरा हुआ है। यह एक कुशल शिल्पी है, जिसका माथा अनुभवों की वृद्धता को लिए, विस्तृत भाग्य का भण्डार है। अज्ञानता से घिरा हुआ नहीं और ना ही इस माथे पर तनाव झलकता है। "अविकल्पी है वह दृढ़-संकल्पी मानव अर्थहीन जल्पन अत्यल्प भी जिसे रुचता नहीं कभी!" (पृ. 27) दृढ़ संकल्प से बंधा हुआ यह मानव समस्त विकल्पों से रहित है व्यर्थ बोलना जिसे थोड़ा-सा भी अच्छा नहीं लगता। यह शिल्पी अपनी शिल्पकला से कण-कण में बिखरी माटी की अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर रूप प्रदान करता है। अपने शिल्प की वजह से वह सदा चोरी के दोष से मुक्त रहता है इसलिए तो सरकार उससे कर नहीं माँगती। यह शिल्प धन का अपव्यय तो दूर, धन का व्यय भी नहीं करता अपितु निर्धन शिल्पी को धनवान बना देता है। युग के प्रारम्भ से आज तक इसने अपनी परम्परा को कलंकित नहीं किया है। बिना दाग है यह शिल्पकला और कुशल है यह शिल्पी। तभी तो युग के आदि में इसका नाम कुम्भकार रखा। ‘कु' यानि धरती और 'भ' यानि भाग्य जो धरती का भाग्य विधाता हो वही 'कुम्भकार' कहलाता है। निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपना कर्ता स्वयं ही होता है, फिर भी व्यवहार से उपचार वशात् निमित्त को स्वीकारते हुए शिल्पी का नाम 'कुम्भकार' हुआ सो ठीक ही है। 1. मांगलिक कार्य = कुम्भकार का आना, माटी को उठाकर अपने उपाश्रम में ले जाना 2. इष्ट = जो प्रयोजवान हो । 3. अदमनीय = जिसकी दमन / दबाया न जा सके।
  7. माटी को मांगलिक कार्य1 का संकेत मिला-सामने से बडी-बडी खुली आँखों वाला एक हिरण जो कि सोया हुआ था जागृत हुआ, बड़ी फुर्ति के साथ विवेक पूर्वक खेत से खेत लाँघता हुआ पथ के उस पार बहुत दूर जा विलीन हो जाता है। इस दृश्य को देख माटी को एक सूति याद आई- “बांये हिरण दांये जाय, लंका जीत राम घर आय” अर्थात् सफलता निश्चित है। और वह भोली माटी जो टकटकी लगाकर घाटी की ओर निहार रही थी, उसे बहुत दूर घाटी में कोई व्यक्ति दिखा, विचारती है वह, कौन है वह मुझसे देखकर माटी का मन प्रसन्नता से भर गया, सुबह-सुबह ही उसका मन आनन्दित हो उठा । धीरे-धीरे वे चरण पास और अधिक पास ही आ गए। जैसे-जैसे शिल्पीचरण पास आते जा रहे हैं, फैलाव घट रहा है, बाहरी दृश्य सिमट-सिमट कर घना (संकुचित) होता जा रहा है। इसीलिए विशाल आकाशीय दृश्य भी लगभग अस्तित्व हीन-सा हो रहा है। ठीक ही है निकट स्थित इष्ट पर जब दृष्टि टिक जाती है तो अन्य सभी वस्तुएँ लुप्त हो जाती हैं।
  8. माटी की विकास यात्रा का आज मंगलाचरण है। मार्ग के एक ओर पथ के प्रारम्भ पर पथिक यानि कुम्भकार का पहला कदम पड़ता है तभी दूसरी ओर छोर पर पड़ी माटी के तन मन में कुछ हलचल-सी मचती है। स्पन्दन-सा अनुभूत होता है। कुम्भकार की अहिंसक पगतली से मानो संप्रेषण प्रेषित हुआ हो कि मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ। इधर निराशता में डूबी किन्तु पथिक की प्रतीक्षा में भवोंभवों से सुप्त (सोई हुई) सफलता रूपी स्त्री सविनय खड़ी हो गई मानो कुम्भकार का स्वागत कर रही हो । "विचारों के ऐक्य से आचारों के साम्य से सम्प्रेषण में निखार आता है, वरना विकार आता है!" (पृ. 22) संप्रेषक और जिसके प्रति संप्रेषण किया जा रहा है उसके विचारों की एकता और आचरण की समानता होने पर ही संप्रेषण सफल होता है अन्यथा नहीं। यहाँ माटी के मन में अपने उत्थान का भाव है और शिल्पी के मन में माटी को घट बनाने का भाव, यही विचारों की एकता है तथा दोनों का आचरण सात्विक, अहिंसक है, दोनों सरल परिणामी हैं, यह आचरण की साम्यता है तभी तो बिजली के समान संप्रेषण माटी तक पहुँच गया है। नदी जैसे दोनों तटों के बन्धन में रहकर निरन्तर अपने लक्ष्य सागर की ओर बहती है, उसी प्रकार आत्मा के परिणाम/उपयोग का बिना किसी भटकन के सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ना/जाना ही सही-सही संप्रेषण है। हाँ! संप्रेषण करते समय इतना जरूर ध्यान रखना चाहिए कि जिसके प्रति संप्रेषण किया जा रहा है ऐसे व्यक्ति के प्रति भूलकर भी अधिकार का भाव, स्वामीपन नहीं आना चाहिए। मैं व्यक्ति के लिए सहयोग करूं केवल इतना ही भाव आना चाहिए। यही संप्रेषण का सदुपयोग है ऐसे भावों के साथ ही संप्रेषण सफल होता है। अन्यथा अधिकारिक भावों के साथ किया संप्रेषण दुरुपयोगी होता हुआ असफल होता है। संप्रेषण वह खाद है, जिसके द्वारा सद्भावों का लघु पौधा भी पालितपोषित हो वृद्धि को प्राप्त होता है तथा संप्रेषण वह स्वाद भी है जिसके सेवन से, उपयोग से तत्वों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान विकसित हो, पूर्ण ज्ञान को प्राप्त होता है। लेकिन यह बात जरूर है कि प्रारम्भिक दशा में संप्रेषण का साधन बोझ जैसा, सारहीन लगता है, करने वाले के मन में कुछ-कुछ तनाव की अनुभूति भी होती है। (क्योंकि उपयोग को एकाग्र करना सरल नहीं) परन्तु कुछ अभ्यास और समय के बाद की स्थिति प्राथमिक दशा से उल्टी होती है। जैसे कुशल लेखक भी जब नई निब वाली लेखनी लेकर लिखता है तो उसे प्रारम्भ में खुरदरापन अनुभव में आता है, लिखने में कष्ट का अनुभव होता है, किन्तु लिखते-लिखते जब निब की घिसाई हो जाती है, पूर्व की अपेक्षा लेखन में सफाई आती जाती है। फिर विचारों के पीछे-पीछे लिखने वाली लेखनी, विचारों के साथ-साथ ही लिखने वाली सहचरी हो जाती है और अन्त अन्त में तो लेखनी जल में तैरती-सी संवेदित होती (लगती) है, यह सहज प्रक्रिया ही है ऐसा समझना चाहिए।
  9. यात्रा की शुरुआत होनी है। शिल्पी का माटी को लाने अपने उपाश्रम से निकलना, माटी का स्पंदन, संप्रेषण का स्वरूप, प्राथमिक दशा में अनुभूति, मंगल घटना का संकेत, शिल्पी का सरिता तट के निकट घाटी में आना, कुशल शिल्पी की शिल्प कला, कुम्भकार नाम की सार्थकता। माटी खोदने के पहले ओंकार को नमन, अहंकार का वमन, मुड़न-जुड़न की क्रिया। खुदती माटी को देख शंका-प्रतिशंका में उलझा जीवन। बोरी में भरी माटी की शालीनता नवीन युग को तौलती सी। माटी के प्रति शिल्पी की जिज्ञासा, माटी द्वारा समाधान पश्चात्माटी को पीठ पर लाद गदहे द्वारा उपाश्रम की ओर ले जाने का उपक्रम। बीच में माटी की अनुकम्पा, दया का सम्यक् परिचय, दया और वासना में अन्तर। गदहे की प्रार्थना प्रभु से, अनहोनी घटना, परस्पर उपकार की भावना पूर्ण हुई और माटी का उपाश्रम में प्रवेश। उपाश्रम के परिसर की विशेषता।
  10. लेखनी लिखती है कि- सद्गुरु हैं माँ की तरह माँ बालक का तन गंदा देख नहीं सकती; क्योंकि संतान के प्रति ममता रहती गुरु शिष्य का मैला मन देख नहीं सकते; क्योंकि गुरु में समता की रसधार बहती। रगड़-रगड़ कर साबुन से नहलाती माँ बच्चा रोता रहता बीच-बीच में सहलाती माँ उदंडता मिटाकर विनम्रता सिखाते गुरु गलती करने पर देकर प्रायश्चित भेदज्ञान साबुन से शुद्ध कराते गुरु दिशाओं के अंबर ओढ़ाकर सहनशीलता की धरा पर क्रीड़ा कराते हैं गुरु इधर-उधर बिखरे परिणाम रूपी बालों को वैराग्य की कंघी से सँवारते हैं गुरु ज्ञान का अंजन लगाकर अंतर्नयनों में दिव्यता लाते हैं गुरु प्रभु-मिलन के अवसर पर संयम से शृंगारित करते हैं गुरु फिर स्वयं ही निहारते अपने ज्ञान-दर्शन दो नयनों से देख पवित्र शिष्य को हर्षाते हैं गुरु कहीं लग न जाये कर्मों की नजर इसीलिए संकल्प का डिठौना लगाते हैं गुरु। शिष्य एक गलती अवश्य करता है कि वह गुरु को अपना सर्वस्व मानता है। नहीं लगा पाता गुरु के विषय में अध्यात्म; क्योंकि गुरु ही दिखाते हैं परमार्थ। गुरु से ही आँखें मूंद ले तो अंतर्यात्रा कैसे कर पायेगा इसीलिए प्रथम भूमिका में शिष्य गुरु को ही पुकारेगा फिर आगे आचार्यश्री विद्यासागरजी जैसे गुरु का करके अनुकरण शिवधाम पहुँच जायेगा। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  11. इधर सरिता में बहती हुई लहरें ऐसी लग रही हैं, मानो अपनी उज्ज्वलता से चाँदी की चमक को भी तिरस्कृत कर रही हो। अनेक फूलों की अनगिन मालाएँ तैरते-तैरते सरिता तट पर इकट्ठी हुई ऐसी प्रतीत हो रही हैं, मानो आज के इस अवसर पर सरिता ने ही इन्हें माटी के विकासशील पावन चरणों में समर्पित किया हो। सरिता तट पर एकत्रित झाग ऐसा लग रहा है मानो, जिसमें से बाहर दही छलक (उछल) रहा हो ऐसे मंगलोत्पादक, प्रसन्न मुद्रा वाले कलशों को अपने हाथों में ले सरिता तट खड़े हैं। यह दुर्लभ दर्शनीय दृश्य है। ओस बिन्दुओं के बहाने, प्रसन्नता के साथ उमड़ती हुई नदी के समान, धरती माँ के हृदय में करुणा उमड़ रही है और धरती के अंग-अंग अपूर्व आनन्दित होते हुए स्वाभाविक नृत्य कर रहे हैं। इस पावन अवसर पर धरती पर बिखरे ओस के कणों में अत्यधिक उत्साह, अत्यधिक प्रसन्नता उत्पन्न हो रही है। जोशीले क्षणों में तेज प्रकाश और निरन्तर विकास, संतोष दिखाई पड़ रहा है। वहीं रोष भाव के मन में उदासी छा गई है, क्रोध, बैर आदि भाव सब बेहोश से मृतक सम लग रहे हैं तथा दोष के कण तड़पते हुए कष्ट का अनुभव करते हुए समाप्त हो रहे हैं। अत: गुणों का खजाना यहाँ दिखाई पड़ रहा है।
  12. लेखनी लिखती है कि- आशीर्वाद देने को गुरु नहीं बनते शिष्यों से धन्यवाद पाने भी गुरु नहीं बनते गुरु तो बस हो जाते हैं लघु होते-होते विनीत सहज सरल होते-होते बालक से भी निश्छल हो जाता है जब मन तब दर्शन देते हैं भगवान् प्रभु-सी छवि पाकर ही गुरु हो जाते हैं महान् वास्तव में गुरु होने के लिए जो कुछ की जाती है विधि कहलाती वह व्यवहार वृत्ति ही। ज्यों स्वाति की बूंद सीप में जा मोती बन जाती त्यों शिष्य की आत्मा भी गुरु की सद्-भक्ति से गुरु हो जाती। शिष्य पूजता है गुरु को जब लीन हो तब गुरु भी पूजते हैं अपने प्रभु को अंतरात्मा में तल्लीन हो, शिष्य गुरु को सुनाता है और गुरु अपने परम गुरु प्रभु को सुनाते हैं गुरु मध्य में रहकर माध्यस्थ रहते हैं अपूर्व बाँध बनकर कितनों को पार कराते हैं बाँध तो बँधा हुआ वहीं रह जाता किंतु गुरु तो स्वयं चलकर औरों को चलाते हैं। गुरु उपमायोग्य नहीं अनुपम हैं तुलना योग्य नहीं अतुल हैं ऐसे गुरु का दर्शन पाने कहीं ओर नहीं जाना एक बार, बस एक बार गुरु श्रीविद्यासागरजी की शरण में अवश्य आना, अवश्य आना...। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  13. जीवन विकास की भावना से ओत-प्रोत माटी ने अपनी व्यथा धरती के सम्मुख कही, धरती माँ ने कुछ संकेत दिये जिसे माटी ने ध्यान पूर्वक सुना, समझा और चिन्तन किया। चर्चा-परिचर्चा हुई और दिन का समय व्यतीत हुआ। चारों ओर अन्धकार छा गया रात्रि का आगमन हुआ। धरती माँ की नींद लग गई, किन्तु माटी के लिए रात्रि लम्बी-सी लग रही है क्योंकि माटी की आँखों में निद्रा का नामोनिशान नहीं है, वह जाग रही है। बार-बार करवटें ले रही है, प्रभात की प्रतीक्षा में। आत्मोत्थान की भावना का फल और उपयोग की यह बात है कि नींद के दूर भग जाने पर भी दु:ख की नहीं किन्तु सुख की अनुभूति हो रही है माटी को रात भी प्रभात-सी लग रही है। सच ही है- "दु:ख की वेदना में जब न्यूनता आती है दुख भी सुख-सा लगता है। और यह भावना का फल है उपयोग की बात. !" (पृ. 18 ) जब दुख की वेदना में कमी आती है तो हल्का हुआ दु:ख भी सुख जैसा लगता है। अन्तरंग परिणति (भीतरी परिणाम) की बात है। रात्रि व्यतीत हुई और वह समय आ ही गया, जिस पर माटी टक-टकी लगाकर देख रही थी-प्रभातकाल। माटी ने प्रात:कालीन अवसर का स्वागत किया और बोल उठी-मैंने अपने जीवन में कई प्रभात देखे पर आज जैसा प्रभात अतीत में कभी नहीं दिखा। ऐसा लग रहा है, मानो आज का प्रभात मेरे जीवन की काली रात्रि की पीठ पर हल्की लाल स्याही से लिख रहा है कि-आज यह तुम्हारी अन्तिम रात है, प्रथम प्रभात। यह तुम्हारा अन्तिम शरीर है और आगे की विशालता का प्रथम दर्शन । और प्रसन्नता के साथ प्रभात उपहार के रूप में नवीन पत्तियों के हरे रंग की आभा घुली हरी साड़ी रात को भेंट करता है, जिसे पहनकर रात्रि जा रही है | तथा मंद मुस्कान के साथ प्रभात को सम्मानित कर रही है जैसे-एक बहन भाई की भेंट स्वीकार करती हुई मुस्कुराती है।
  14. बहुत देर तक मौन पूर्वक माँ धरती की देशना (उपदेश) को सुनने के बाद अब माटी उपदेशामृत से भीगे भावों को व्यक्त करती है। आपकी अमृतमयी वाणी को सुन यह जीवन सम्यग्ज्ञान को प्राप्त हो प्रभावित हुआ। अतीत (बीता हुआ काल) का दुख कुछ कम हुआ, सुख की झलक-सी मिली, कुछ नई अनुभूति हुई माँ। अतीत में कभी सुनने को नहीं मिला, ऐसा आपका यह सम्बोधन बाहरी उपयोग (विचारधारा) और बाहरी जगत् से बहुत दूर अन्तर आत्मा को छूता-सा लगा। हृदय को छूने वाला यह कथन है माँ! पौद्गलिक कर्म और चेतन आत्मा के मिलने, मन-वचन-काय रूप विकृत योग एवं क्रोधादि कषाय रूप कलुषता के संयोग से शरीर के भीतर ही भीतर तीसरी वस्तु यानि सुख-दुख में कारणभूत शुभाशुभ कर्मों की रचना होती है, वह किसी दूरदर्शक यन्त्र (Telescope) अथवा सूक्ष्मदर्शी यन्त्र (Microscope)से पकड़ में नहीं आ पाती अपितु सम्यग्दृष्टि यानि आस्थावान जीव की दूर दृष्टि में ही कार्मिक रचना पकड़ में आ सकती है। यह कर्म सम्बन्धी व्यथा है माँ! कर्मों का आत्मा से जुड़ना और फिर स्व अर्थात् उपादान कारण, पर अर्थात् निमित्त कारण के वश से पृथक् होना। ये दोनों कार्य आत्मा की ममता अर्थात् मेरे पन का भाव और समता अर्थात् सुख-दुःख, जीवन–मरण, लाभ-हानि इत्यादि प्रत्येक दशा में हर्ष-विषाद से रहित साम्य परिणति पर ही आधारित है। आपने सुनाया, मैंने सुना। अब धार्मिक चिन्तन का विषय है माँ! आज कौन ऐसा व्यक्ति है जिसे आत्मा की सृजनात्मक शक्ति (मैं भी परमात्मा बन सकता हूँ) का आभास हो। चेतन पहले था, अभी है और आगे भी रहेगा इस त्रैकालिक अस्तित्व का ज्ञान किसे है? आत्म तत्व की चर्चा भी कौन करता है रुचि से, कौन सुनता है मन लगाकर? इस आत्म तत्व की उपासना, आत्मतत्व की उपलब्धि हेतु पुरुषार्थ करने के लिए किसके पास समय है? भौतिकता में लीन, जड़ पदार्थों में सुख खोजने वाला, आत्म तत्व की श्रद्धा से रहित यह जीवन केवल चमड़े का बना हुआ आधारभूत शरीर मात्र है माँ! माटी के मुख से ग्रहण किये गये भावों को धरती माँ ने सुना और सहज ही बोल उठी वाह! धन्यवाद बेटा! मेरा उद्देश्य तुम्हें समझ में आ गया, तुम्हारे अन्तरंग को छू गया, अब मुझे कोई चिन्ता नहीं तुम्हारा जीवन अवश्य ही उन्नत बनेगा। कल प्रभात की बेला (वत्त) से तुम्हें अपनी जीवन-विकास यात्रा का शुभारम्भ करना है। अब तुम्हें क्या करना होगा सो बताती हूँ – "प्रभात में कुम्भकार आएगा पतित से पावन बनने, समर्पणा-भाव-समेत उसके सुखद चरणों में प्रणिपात करना है तुम्हें, अपनी यात्रा का सूत्रपात करना है तुम्हें!" (पृ. 16 ) कल सुबह कुम्भकार आयेगा, तुम्हारे पतित जीवन को उन्नति के शिखर तक पहुँचाने के लिए। श्रद्धा-समर्पण भावों से सहित उसके सुखदायी पावन चरणों में नमस्कार कर अपनी यात्रा का शुभारम्भ करना है तुम्हें। क्योंकि उसी के सान्निध्य में तुम्हारा जीवन स्वर्ण के समान बहुमूल्य बन प्रकाशित होगा। तुम्हें कुछ मेहनत नहीं करनी है, तुम्हें तो मात्र उसके उपाश्रम में रहकर शिल्पी की शिल्पकला को निश्चल होकर, मन लगाकर देखना होगा। पुरुषार्थ तो स्वयं शिल्पी करेगा। तुम्हें जानना होगा कि तुम्हारे भीतर वह कौन-कौन-सी शक्तियाँ थीं/हैं, जो निज कारण से ही मृत जैसी पड़ी थीं और हैं। अब उन शक्तियों की क्रम-क्रम से लहरों के समान होने वाले प्रकटीकरण को दिन-रात जानना होगा, समझना होगा बस !
  15. लेखनी लिखती है कि- गुरु सिखाते हैं निश्चय से तू ही तेरा गुरु है; क्योंकि तेरी रुचि ही तुझे सिखाती है तू ही तेरा शिष्य है; क्योंकि तेरी आत्मा अपने उपादान से सीखती है। शिष्य सदा शिष्य नहीं रहता गुरु सदा गुरु नहीं रहता यह तो पर्याय है बदलती रहती कभी पर्वत,नदी तो कभी नदी,पर्वत बन जाती। नश्वर को नहीं अविनश्वर को अध्रुव को नहीं ध्रुव को जो पहचानता है, पर्यायें बाहर में दिखती हैं भिन्न-भिन्न भीतर में सब समानता है, कोई तेरा दाता नहीं तू किसी से कुछ पता नहीं लेन-देन का भ्रम है बाहर में निश्चय से तू ही तेरा दृष्टा है, अपना ज्ञान कोई देता नहीं अन्य का ज्ञान कोई ले सकता नहीं समाया है तेरा ज्ञान तेरे ही भीतर निश्चय से तू ही तेरा ज्ञाता है। गुरु पहले पढ़ाते हैं फिर भूलना सिखाते हैं पहले बोलना फिर मौन होना सिखाते हैं पहले लेखनी से लिखना फिर लखना सिखाते हैं बाह्य गुरु की पहचान बता अंतर्गुरु तक ले जाते हैं। सचमुच, गुरु अद्भुत कराते हैं अध्ययन पहले श्रवण कराते फिर बना देते श्रमण पर्यायों से परे गुरु दिखा देते निजातम द्रव्य दृष्टि जो दिखा दें अपने आप से जो मिला दें ऐसे गुरु विद्यासागर को क्या कह दें? मन यही कहता है इन्हें अपना भगवान् कह दें। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  16. लेखनी लिखती है कि- शिष्य ही जब शिष्य बनाने लगता है गुरु के लिए नहीं अपने लिए चुनने लगता है तब वह शिष्य कहाँ रह जाता है? भक्तों का लगाकर जमघट अपना थोथा ज्ञान बाँटने लगता है तब वह शब्द ज्ञानी सही मायने में गुरु कहाँ कहलाता है? लेकिन स्वार्थवश गुरु समक्ष स्वयं को शिष्य कहता है औरों के समक्ष मान अहंकार के वश स्वयं को गुरु मानता है तब स्वयं तो डूबता ही है अपने भक्तों को भी ले डूबता है इससे तो भला है रहना अकेला क्योंकि जैसा गुरु वैसा चेला जैसी नदियाँ वैसी धारा। पत्थर की नाव दिखती सुंदर पर बैठने वालों को डुबा देती है अनुभव हीन शब्दों की वार्ता जल्दी ही चेतना को ऊबा देती है इसीलिए शिष्य बनाना ही है तो अपने विकारी चंचल भावों को अपना शिष्य बना लो गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान से एकांत में अच्छे से समझा दो इससे अधिक श्रेष्ठ ज्ञान का सदुपयोग क्या होगा? जो स्वयं को सुधार न पाया उससे औरों का सुधार क्या होगा? एक बार जी भरकर देखो विद्याधर को समझ जाओगे सच्चा शिष्य कहते किसको। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  17. माटी ने सुना, धरती माँ का सम्बोधन और व्यक्त किया जो अनुभूत हुआ- मार्मिक कथन, कार्मिक व्यथन, धार्मिक मथन और चार्मिक वतन की बातें । माँ ने दिया धन्यवाद और निश्चिन्त होकर जीवन विकास की यात्रा हेतु दिए कुछ सूत्र कुम्भकार के प्रति समर्पण, उसकी शिल्प कला पर मात्र चितवन तथा अपनी शक्तियों को जानना। माटी और धरती के बीच चली चर्चा-चिन्तन से दिन का समय व्यतीत हुआ, प्रभात के इंतजार में माटी को निद्रा नहीं आई। प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हुई, अवसर का स्वागत माटी द्वारा दुर्लभ दर्शनीय दृश्य दिखा सरिता तट का, माटी के चरणों में समर्पित फूल मालाएँ, तट के करों में कलश, करुणा की उमड़न, ओस के कण, जोश के क्षण, रोष के मनों तथा दोष के कणों की स्थिति।
  18. किन्तु बेटा सन्मार्ग पर चलना, जीवन में चारित्र को अंगीकार करना खेल मत समझना। भव-भव में जब पुरुषार्थ किया जाता है चारित्र ग्रहण करने की भावना भायी जाती है तब कहीं जाकर यह मुक्ति का पथ मिलता है। और यह भी समझ लेना होगा कि समझदार, दमदार व्यक्ति भी क्यों न हो काई लगे पाषाण पर यदि पैर रखता है तो उसका पैर भी फिसलता ही है। फिर साधना के प्राथमिक चरण में, दृढ़ आस्थावान पुरुष भी क्यों न हो? फिसलन की, पदच्युत होने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है, कारण की इस आत्मा पर अनादिकालीन राग-द्वेष, मोह रूप विकृत (बुरे) परिणामों का संस्कार जो रहा। प्राथमिक दशा ही नहीं, निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन - संभव है। जैसे प्रतिदिन रोटी बनाने वाले पाक शास्त्री की भी पहली रोटी लगभग कड़ी और जली-सी बनती है इसीलिए मेरी बात ध्यान से सुनो – "आयास से डरना नहीं आलस्य करना नहीं!" (पृ. 11 ) कभी पुरुषार्थ, मेहनत से भयभीत नहीं होना और ना ही प्रमाद करना। साधना पथ पर चलते-चलते कभी ऐसी चढ़ाई भी आ सकती है, जिसमें श्रेष्ठ समता-साधक भी विषमता को स्वीकार कर लेता है। पथिक सत्पथ से भटक जाता है, साधक दुख की अनुभूति करने लग जाता है, साधना पथ को छोड़ने का मन बना लेता है, फिर ऐसी दशा में समीचीन चारित्र रूपी चिड़िया उड़ जावेगी एवं क्रोध की बुढ़िया अपना जोर दिखाने लगेगी। असंयमित जीवन में फिर अनर्थ ही अनर्थ शेष बचेगा। इसीलिए बेटा! सुनो – "प्रतिकार की पारणा छोड़नी होगी बेटा! अतिचार की धारणा तोड़नी होगी बेटा!" (पृ. 12) आस्था की आराधना स्वरूप साधना की स्वीकार करने के पहले ही बदले की भावना सदा के लिए मन से निकालनी होगी, कोई कितना भी कष्ट दे प्रतीकार नहीं, समता से स्वीकारना होगा। अतिचार यानी ग्रहण किए गए संकल्प में सदोषता का विचार भी मन में नहीं लाना होगा। अन्यथा कालान्तर में ये ही कारण साधना पथ को नष्ट करने में, संयमी जीवन को भ्रष्ट करने में निमित्त बन सकते हैं। एक बात और कहनी है यदि साधना पथ पर चलते हुए अपनी बुद्धि और गति में विकास चाहती हों तो इतना ध्यान रखना किसी भी सत्कार्य, त्यागसंयम को ग्रहण करने के लिए ज्यादा अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं करना, भाव बनते ही तद्रूप परिणत कर लेना, क्योंकि राग से लिप्त यह जीवन सदा अनुकूलता की ही चाह रखता है, किन्तु अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही-सही पुरुषार्थ नहीं है, इससे साधना की गति में मंदता आ सकती है/आती है। इसी प्रकार साधना करते समय यदि प्रतिकूलताएँ आएँ तो उसे स्वीकार करना, तत्व चिन्तन के माध्यम से समता धारण करना क्योंकि प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी एक प्रकार से द्वेष भावों को ही जन्म देना /आमंत्रित करना है और प्रतिकार करने पर बुद्धि भी क्रोधादि कषाय रूप विकृत परिणामों से मलिन हो जाती है। साधना करते-करते कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि हम जितनी साधना करना चाहते थे नहीं कर पा रहे हैं, पर्याप्त प्रगति नहीं मिल पा रही है, तब साधना की चाह कम होने लगती है। धैर्य छूटने लगता है, साहस कमजोर पड़ने लगता है, मन ग्लानि से भर जाता है, किन्तु ध्यान रखना यह सब श्रद्धालु पुरुष, जो पापों का सर्वथा त्याग करने वाला यमी हो, पाँच इन्द्रियों को वश में करने वाला दमी हो और निरन्तर संवेग और वैराग्य का सहारा ले मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करने वाला हो उसके लिए अभिशाप नहीं किन्तु वरदान ही सिद्ध होते हैं। वह साधक और अधिक दुगुणे उत्साह के साथ पुरुषार्थ करने में जुट जाता है। पाप = जो दुख देते हैं, पतन की ओर ले जाते हैं, ऐसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह। दही खट्टा हो अथवा मीठा, सही तरीके से मन्थन किया जावे तो नवनीत का लाभ अवश्य ही होता है। इसी प्रकार अच्छी बुरी सभी परिस्थितियों में साधना का आनन्द लिया जा सकता है यदि समीचीन पुरुषार्थ किया जावे तो, परिणाम यह निकला - "संघर्षमय जीवन का उपसंहार वह नियमरूप से हर्षमय होता है, धन्य!" (पृ. 14 ) जीवन अथवा साधना-पथ चाहे जितना भी संकटों में उलझा हो, किन्तु उसका समापन नियम रूप से प्रसन्नता, आनन्द को देने वाला होता है, क्योंकि दु:ख के बाद नियम से सुख आता है। इसीलिए बेटा! तुझे बार-बार याद दिला रही हूँ कि जीवन में सदा साधु-साध्वियों की आज्ञा पालन करना, उनकी बात टालना नहीं। ‘‘पूत का लक्षण पालने में” ये जो सूति कही जाती है, उसका सही अर्थ अपने बड़े, गुरुजनों की आज्ञा पालने में ही पुत्र का सही लक्षण है, ना कि पालने अर्थात् झूले में। इतना कहकर माँ धरती मौन हो जाती है। 1. दमदार = मजबूत, ताकतवर। 2. स्खलन = फिसलना, हटना। 3. प्रमाद = अच्छे कार्यों में उत्साह नहीं होना, आलस्य करना। 4. विषमता = साम्य परिणामों से विपरीत अवस्था।
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