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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. माटी को और अधिक चिकनी बनाने हेतु शिल्पी माटी की ओर पहुँचता है। सुबह-सुबह ही माटी प्रफुल्लित हो जाती है किन्तु शिल्पी की कुदाली से घायल हुआ काँटा, बदले का भाव लिए शिल्पी की ओर देख रहा है। सोचता है शिल्पी को पीड़ा दिये बिना मन को शान्ति नहीं मिल सकती। काँटे का तन पूर्णत: जीर्ण हो चुका है प्राण कण्ठ तक आ गए हैं किन्तु बाहर नहीं निकल रहे हैं क्योंकि मन में अभी बदला लेने का भाव जो बना हुआ है - "तन का बल वह कण-सा रहता है और मन का बल वह मन-सा रहता है।" (पृ. 96) सब बलों में मन का बल ही सबसे अधिक ताकतवर माना जाता है। मन में दृढ़ता होने पर जीर्ण-शीर्ण काया के साथ भी संयम-साधना, तप-आराधना की जा सकती है। सुकुमाल मुनि के तन को श्यालनी खाती रही किन्तु संकल्प की दृढ़ता और मन-बल के कारण वे सब कुछ समता से सहते रहे और सर्वोच्च सुख के स्थान को प्राप्त किया। काँटे को छल का सहारा मिला और यह मन वैसे ही बैर को बहुत जल्दी स्वीकार कर लेता है, कारण मान कषाय से घिरा मन नमन नहीं करने देता। काँटे के भीतर उपजा बैर भाव नष्ट हो जाए, इस आशय को ले माटी काँटे को समझाती है कि बदले का भाव वह दल-दल है जिसमें बड़े-बड़े हाथी फँसकर अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। बदले का भाव उस अग्नि के समान है, जो तन को और चेतन को दोनों को भव-भव तक जलाती है। जैसे-कमठ दस भव तक बैर भाव की अग्नि में जलता रहा। बदले का भाव उस राहु के समान है जिसके मुख में पहुँचकर चेतन रूपी सूर्य भी अपने अस्तित्व को खो देता है। देखो दशानन ने बालि मुनिराज से बदला लेने का भाव किया था और कैलाश पर्वत को उठाकर फेंकना चाह रहा था कि मुनिराज द्वारा अंगूठा दबाते ही उसका बल कमजोर पड़ने लगा, वह जोर-जोर से रोने लगा, तभी से उसका नाम रावण पड़ा। इसलिए मेरी मानो तुम अपने मन से बदले का भाव निकाल दो।
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