गदहे की पीठ पर लदी माटी की उपाश्रम के प्रांगण में उतारा गया। माटी को छानने के लिए बारीक तार वाली चालनी लाई गई। शिल्पी स्वयं माटी को छान रहा है। अपनी दया से भीगी करुणामयी आँखों से चालनी के नीचे गिरी माटी को भाव सहित देखता है, फिर छनी माटी को अपने हाथ में उठाकर, रुचिपूर्वक अंगुलियों से छूकर देखता है। कंकरों-काँटों से रहित, घाव शून्य माटी को देख तन-मन से प्रसन्न होता है, तभी उसके मुख से बिना प्रयास ही वचन निकल पड़ते हैं कि ‘सरलता की यह उत्कृष्ट स्थिति है और नम्रता, मृदुता की उत्कृष्ट प्रसिद्धि है यह' धन्य !
शिल्पी ने माटी का शोधन किया, माटी को उसका यथार्थ रूप बताया। इधर चालनी में ऊपर बच्चे कंकरों में क्रोध-भाव का आना हुआ, फिर भी नपीतुली संयत भाषा में कंकर शिल्पी से पूछते हैं कि दीर्घकाल से माँ माटी के साथ हम रह रहे थे, आज आपने माँ माटी से हमें अलग कर दिया, इसमें कोई विशेष कारण है या बिना कारण ही, हम जानना चाहते हैं।
इतना सुन शिल्पी कठोरता से रहित, मृदु शब्दों में कंकरों से कहता है कि ‘पहला कारण तो यह है कि मैं कुम्भ रूप शिल्प का निर्माण करना चाहता हूँ और शिल्प के लिए मुझे मुलायम, हल्की (कम भार) जाति वाली माटी की ही आवश्यकता होती है तभी शिल्प अच्छा बनता है, किन्तु भारी (वजनदार) जाति वाले कठोर कंकरों से वह शीघ्र ही बिखरता है और दूसरा कारण यह है कि संकर दोष को दूर करना था इसलिए कंकरों के समूह को अलग करना पड़ा जो अत्यन्त आवश्यक था।” (संकर का आशय आगे स्पष्ट किया जा रहा है।)