आगे शिल्पी कंकरों को समझाता हुआ और भी कुछ कहता है- अरे कंकरों! थोड़ा विचार तो करो वर्षों से माटी के साथ रहते आ रहे हों, पर उसमें एकमेक नहीं हुए तुम! अपने अस्तित्व को पृथक् ही बनाए हुए हों। माटी को छुआ पर माटी में घुल ना सके तुम और इतना ही नहीं चलती चक्की में डालकर पीसने पर भी तुमने अपने कठोर स्वभाव को नहीं छोड़ा, भले ही रेत के समान चूर्ण बन गए पर माटी नहीं बने तुम। तुम पर यदि जल डाला जाए भीग तो जाते हों पर माटी के समान मृदु बन फूलते नहीं, तुममें कभी माटी जैसी नमी नहीं आ पाती, क्या यह तुम्हारी कमी नहीं है बोलो !
और फिर तुम्हारे भीतर जल धारण करने की क्षमता कहाँ है? युगों-युगों से तालाब-नदियों के जल में रह रहे हों, पर स्वयं जल को सहारा देने वाले नहीं बन सके तुम! मैं तुम्हें हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा, किन्तु तुम्हारा हृदय पत्थर का अवश्य है, तभी तो दूसरों के दुख-दर्द को देखकर भी हृदय पिघलता नहीं तुम्हारा। फिर भी ऋषि मुनियों-सन्तों से यही उपदेश मिला है हमें कि –
"पापी से नहीं
पर ! पाप से,
पंकज से नहीं
पर ! पंक से
घृणा करो।
अयि आर्य
नर से
नारायण बनो
समयोचित कर कार्य।" (पृ. 50)
पापी से नहीं पाप से घृणा करो, क्योंकि पाप के संयोग से ही व्यक्ति पापी बनता है, पाप छूट जाए तो व्यक्ति पुन: अच्छा बन सकता है। इसी प्रकार कमल से नहीं कीचड़ से घृणा करो। मनुष्य से भगवान् बनने का पुरुषार्थ करो। हे आर्य! नर भव मिला है आत्मकल्याण करना ही अब उचित है।
शिल्पी की उपरोक्त बातें कंकरों को कड़वी दवाई-सी लगीं। वे कंकर दीनता भरी नजरों से माटी की ओर देख रहे हैं तथा माटी भी स्वतन्त्रता भरी आँखों से, मुड़कर कंकरों की ओर देख रही है। माटी की शालीनता कुछ उपदेश देती लग रही है।
हे कंकरो! यदि तुम अपने जीवन को अच्छा बनाना चाहते हो, तो तुम्हें महासत्ता माँ (सर्वव्यापक अथवा केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापी परमात्मा) की खोज करनी होगी, परमात्मा के स्वरूप को जानना होगा। अपनी इच्छाओं को सम्यक्/अच्छी बनाना होगा तथा अपनी संकीर्ण विचारधारा का वमन करना होगा अर्थात् मैं और मेरापन को भीतर से निकाल, बाहर फेंकना होगा। अर्थ यह हुआ कि हल्केपन का त्याग ही बड़प्पन को पाना है और शुभ, उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करना है।