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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 5. रक्षा : धन सम्पदा की

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    खेद है कि तारागण भी चन्द्रमा का साथ देती हैं। समुद्र चन्द्रमा को देख प्रसन्नता से उमड़ने लगता है तो सूर्य को देख क्रोध से उबलने लगता है कारण-

     

    "अर्थ की आँखें

    परमार्थ को देख नहीं सकती

    अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को

    निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. 192 )

    जिनकी आँखों में सदा धन ही धन दिखता है, उन्हें कभी परमार्थ यानी परम प्रयोजन धर्म-आत्म तत्त्व का दर्शन नहीं हो सकता। धन की इच्छा ने बड़े-बड़े धनिकों, बुद्धिमानों को भी लज्जा हीन बना दिया है। धनवान भी लज्जाहीन हो फणिन हस्त के समान लकड़ी बीनने का काम कर सकते हैं तो सत्यघोष भी  व्यापारी के रत्नों को चुरा सकता है। वीतरागी भगवान् के पास जाकर भी धन की माँग इसी का परिणाम है।

     

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    बहुमूल्य मोतियों का खजाना सागर में मिलता है कारण कि जल की बूंद ही मोती का रूप धारण करती हैं, किन्तु इस कार्य में भी धरती का प्रमुख सहयोग  है, सीप धरती का ही अंश है। धरती ने स्वयं सीप को प्रशिक्षित कर समुद्र में भेजा है, यह कहकर कि जल की जड़ता/अज्ञानता को दूरकर उसे मुक्ताफल (मोती) बनाना है। पाप पंक में गिरे हुए को ऊपर उठाना ही धैर्य को धारण करने वाली धृति-धारिणी धरती माँ का लक्ष्य है, यही दया-धर्म, चेतन का कार्य है। फिर भी जल की विपरीत प्रवृत्ति मिटती नहीं, छल-कपट उसका स्वभाव है।

     

    खुले मुख वाली ऊर्ध्वमुखी सूक्तियों पर जैसे ही जल की एक दो बूंद गिरती है, तत्काल उनके मुख को बंद कर सागर अपने भीतर डुबो लेता है कोई ले ना ले इस डर से। और इतनी गहराई में छुपा लेता है कि यदि कोई गोताखोर सम्पदा धरा (धरती) पर लाने हेतु नीचे पहुँचता है तो उसका खाली हाथ लौटना  भी मुश्किल से हो पाता है। वहीं उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।

     

    धन सम्पदा की रक्षा हेतु भयंकर नाग, अजगर, मगरमच्छ आदि सम्पदा के आस-पास निरन्तर, दिन-रात घूमते रहते हैं वहाँ। कोई अपरिचित-सा दिखे तो तुरन्त ही उसको साबुत निगल लेते हैं, यदि वह पकड़ में न आए तो पूरे वातावरण में विष फैला देते हैं, जिससे वह मर जाता है। लगता है इसी कारण समुद्र में विष यानी जहर का विशाल भण्डार मिलता है।



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