विनम्र माटी पिण्ड (माटी का लौंदा) पर्याय को छोड़ कुम्भ का रूप धारण करती है, धैर्य के साथ धरती से ऊपर उठ रही है। वैसे सामान्य रूप से सभी की जीवन यात्रा अपनी-अपनी गति से चलती ही रहती है। जीवन में विशेष विकास, उत्थान तभी होता है, जब मान से रहित विनम्र बुद्धि व्यक्ति का साथ देती है और पतन, विनाश तभी शुरू हो जाता है जब मान से सहित राग-बुद्धि साथ देती है। उत्थान-पतन का यही प्रारंभिक मंगलाचरण है।
घी से भरे घड़े के समान बड़ी सावधानी से शिल्पी ने चाक पर से कुम्भ को उतारा और जमीन पर रख दिया तथा यूँ ही सूखने के लिए छोड़ दिया सो दो- तीन दिन में कुम्भ का गीलापन दूर हुआ, ढीलापन सिकुड़-सा गया। शिल्पी ने बड़े ही प्रसन्न मन से कुम्भ को हाथ में उठा लिया, फिर एक हाथ में सोट ( एक लकड़ी का छोटा- सा टुकड़ा जिससे कुम्भ पर चोट की जाती है ) ले दूसरे हाथ का सहारा दे, कुम्भ की खोट’ पर प्रहार करता है वह।
"हाथ की ओट की ओर देखने से
दया का दर्शन होता है,
मात्र चोट की ओर देखने से
निर्दयता उफनती-सी लगती है
परन्तु,
चोट खोट पर है ना !" ( पृ. 165)
हाथ के सहारे की ओर देखने से दया का तथा मात्र चोट की ओर देखने से निर्दयता प्रकट होती-सी लगती है, पर प्रहार दोषों पर है, जो कि आवश्यक है। शिल्पी की आँखें अपलक हो सावधानी रख रही हैं इसलिए तो शिल्पी ने कुम्भ को घोंट-घोंटकर सुन्दर रूप प्रदान किया है ना कि उसका जीवन ही नष्ट किया है।