कुम्भ के जलीय अंश को सुखाने हेतु तपी जमीन पर कुम्भ रखा जाता है। तप की आवश्यकता पर प्रकाश । बसन्त ऋतु का अन्त हो चुका है, चारों ओर बरस रही, चल रही, पल रही है केवल तपन ही तपन । धरा की दशा, धगधग लपट, दरारदार धरती, दीन बनी नदी, हरिता हरी। बसन्त का भौतिक तन पड़ा है, उसका दाह संस्कार किया गया। बची हुई अस्थियाँ विश्व की मूढ़ता पर हँसती हुई कहती है- अब तो मत करो, हमें दफन और देखें अपने पन को। रग-रग में रमा वसन्त, वैराग्य का क्षणिक संस्कार, अन्त में स्नान करना अनिवार्य क्यों ? और अकाल में ही आकाश में बादल दलों की बहुलता का दर्शन, चिन्ता में डूबता शिल्पी।