भीषण गर्मी के विषय में चिन्तन चल रहा था, वसन्त की यथार्थता का । जीवन की नश्वरता का बोध हुआ किन्तु उधर आकाश में यह क्या सघन बहुत मात्रा में बादल उमड़ने लगे। शिल्पी विचार करता है - अभी वर्षा ऋतु का मौसम काल नहीं है फिर भी अतिथि के समान बादल आ गए, किन्तु अति ठीक नहीं क्योंकि नीति है -
"आय नहीं होती, नहीं सही
व्यय से भी कोई चिन्ता नहीं
परन्तु
अपव्यय महा भयंकर है।” (पृ. 187)
धन की आमदनी ना हो ना सही, खर्च की भी इतनी चिन्ता नहीं किन्तु अति खर्चा, अपरिमित व्यय तो अत्यन्त हानिकारक, भयंकर है। भविष्य अच्छा नहीं लगता, लगता है कुम्भ का भाग्य उज्ज्वल नहीं है। बादल-दलों का विकराल रूप देखकर ऐसा लग रहा है मानो वे एक ही ग्रास में पूरे विश्व को बिना चबाये ही निगलने वाले हों अर्थात् धरा पर जोरदार, मूसलादार वर्षा होने की पूरी संभावना बन चुकी है।