हरी भरी लताएँ सूख गई हैं, पके फलों में मधुरता कम हो गई, कहाँ गई पता नहीं? मन्द सुगन्ध हवा का बहाव कहाँ चला गया, पेड़ों का फलों के समूह से भरकर झूलना, फूलों की मुस्कान, पत्तों के टकराने की आवाज, भौंरों का गुंजन कहाँ खो गया। पल भर के लिए भी शीतलता की अनुभूति नहीं हो पा रही है, सब कहाँ चली गई; लगता है यह सब तपन का ही प्रतिफल है।
प्रकृति का आकर्षण, चेतना की जागृति, फूलों की महक, चिड़ियों का चहचहाना अब नहीं रहा। तन को सुख देने वाली किरणों वाला सूर्य कहाँ चला गया? हँसी- खुशी की बात, चेतना, उत्साह कुछ भी शेष नहीं रहा, इसका कारण भी तपन है। इन सब परिस्थितियों को देखकर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि संसार का सब वैभव नाशवान है। भोग' सामग्री यहीं पड़ी है, किन्तु भोक्ता चला गया। दुनिया के सारे संयोग, साथी यहीं पड़े हैं योगी जिससे संयोग था, वह चला गया है। भोक्ता के बिना भोग्य पदार्थों का क्या मूल्य, विचारना होगा कौन किस के लिए-
"धन जीवन के लिए
या जीवन धन के लिए?
मूल्य किसका
तन का क्या वेतन का,
जड़ का क्या चेतन का ?" (पृ. 180)
जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए गृहस्थ जीवन में धन आवश्यक है किन्तु क्या सारा जीवन धन संग्रह के लिए ही व्यतीत करना उचित है? मूल्य किसका शरीर का या जीविका चलाने हेतु प्राप्त धन का, जड़ पदार्थों की रक्षा का या चेतन आत्मा की सुरक्षा का?
ऐसा लग रहा है कि वसन्त ऋतु के तन पर से आभरण-आभूषण सभी उतार लिए गए हैं। जिस वस्त्र की आड़ में वासना छुप जाती है, उस वस्त्र को भी उतार लिया गया है किन्तु वास्तव में-
"वासना का वास, वह
न तन में है, न वसन में
वरन्।
माया से प्रभावित मन में है।" (पृ.180)
विषय भोगों की इच्छा का निवास, न ही शरीर में है और न ही वस्त्रों में अपितु अज्ञान से प्रभावित मन में है, वह वहाँ ही पैदा होती और वहीं रहती है।