उपरोक्त सब चर्चा का सार यह निकला कि दुनिया के सभी द्रव्य’ (छहों) एक दूसरे को सहारा देते हुए अनादिकाल से दूध में शक्कर की तरह घुल-मिलकर रह रहे हैं। फिर भी वे अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। फिर कौन किसको ग्रहण करे, कौन किसको हरे ? अपना स्वामी, अपने परिणामों का कर्ता प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, फिर कौन, किसको पाले-पोषे, पर का कर्ता बने । फिर भी खेद की बात है -
"ग्रहण - संग्रहण का भाव होता है
सो..... भवानुगामी पाप है।" (पृ. 185)
दूसरों को स्वीकारना, लेना, पर पदार्थों को जोड़-जोड़कर रखने का जो परिणाम सदा चलता ही रहता है सो भव-भव में साथ चलने वाले पाप का ही कारण बनता है। अब ज्यादा कुछ नहीं कहना, आज तक यह रहस्य था, खुल ना पाया सो कहा जा रहा है, अपनी-अपनी परिणति से ही सबमें सुधार संभव है, अपने स्वरूप का। अब तो हम सब जागे और अपने स्वरूप स्व-पन को देखने जानने का प्रयास करें।
वसन्त के चले जाने के बाद उसकी देह का दाह-संस्कार कर दिया गया फिर भी आज वन उपवनों पर, धरती के कण-कण पर अभी उसका प्रभाव दिख रहा है। प्राणियों के रग-रग में, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पर वसंत का गहरा प्रभाव जम चुका है। प्राकृत वैराग्य का प्रसंग पूर्णतः समाप्त हो चुका है, फिर भी कुछ वैराग्य के संस्कार रह न जाए इसलिए दाह संस्कार के पश्चात् पूरे परिवार जन एवं स्थान को स्नान करना एवं धोना अनिवार्य-सा लग रहा है।
विशेष : सांसारिक जीवन में किसी परिजन की मृत्यु हो जाने के बाद परिवार जन, संगी-साथी श्मशान पहुँचकर उसकी देह को वस्त्राभूषण से पृथक् कर, कफन भी निकालकर, देह का दाह संस्कार करते हैं तो तात्कालिक श्मशान वैराग्य उत्पन्न होता है। घर लौट आने के बाद भी सूनापन लगता है किन्तु ऐसा लगता है कि वह वैराग्य का वातावरण ज्यादा देर तक तन-मन में न टिक सके इसलिए पूरे परिवार जन तुरन्त स्नान करते हैं एवं पूरे परिसर को पानी डालकर साफ कर दिया जाता है। दो-तीन बाद सभी के मन ज्यों के त्यों राग-रंग में, धन- पैसा कमाने में, मोह जाल में फँस जाते हैं, अनादिकालीन मोह का यह प्रभाव लगता है।