गन्ध रहित फूल के समान, निरावरण, अचेत (मृत, जड़) वसन्त ऋतु का पौद्गलिक शरीर पड़ा है। उसका मुख थोड़ा-सा खुला है, मुख से बाहर निकली जीभ थोड़ी-सी उल्टी पलटी कुछ कहती-सी लग रही है कि भौतिक जीवन में रस यानी सही सुख नहीं है। रसना शब्द स्वयं भी पलट कर कुछ कहता है कि -र......स.....ना, ना.....स.....र। लगता है, वसन्त के पास सर यानी दिमाग नहीं था, हित-अहित को जानने की बुद्धि भी नहीं रही तभी तो वसन्त के समान आकर्षण किन्तु नश्वर जीवन का सन्तों पर कोई असर, प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् क्षणभंगुर जीवन पर सन्त लुभाते नहीं, आकर्षित नहीं होते।
दाह संस्कार का वक्त आ गया और जब वसन्त के शरीर पर से कफन भी उतार लिया गया तब चारों ओर वैराग्य का वातावरण छा गया। शव में आग लगा दी गई, उन आग की लपटों के उठते ही शव दिखना भी बंद हो गया। सब अतीत की बातें, यादें रह गई बस। वसन्त के दाह संस्कार के बाद भी कुछ हड्डियाँ शेष बची रहीं, वे संसार की अज्ञान दशा पर हँसते-हँसते कुछ कहती हैं -
"जिसने मरण को पाया है
उसे जनन को पाना है
और
जिसने जनन को पाया है
उसे मरण को पाना है।" (पृ. 181)
जिसने मृत्यु (मरण) को ग्रहण किया है, उसे पुनर्जन्म भी लेना पड़ता ही है जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी अनिवार्य है। यह एक अकाट्य नियम है। कितनी बार धरती में गहरे-गहरे गड्ढे खोदकर हमें दफनाया गया, किन्तु अब ऐसा पुरुषार्थ करो कि ना हड्डियाँ शेष बचें और ना ही हमें दफनाना पड़े। (अरिहन्त दशा को प्राप्त करो) क्योंकि हमें दफन (जमीन में गड़ा देना) करना ही पुनः आगामी संसार के लिए बीज-वपन का कारण बनता जा रहा है।