कुम्भ की विकास यात्रा को आगे बढ़ाते हुए चित्रकारी करने के पश्चात् कुम्भ में शेष बचे जलीय अंश (नमी) का पूर्णतः अभाव करने, सुखाने हेतु कुम्भकार सूर्य किरणों से तप्त खुली धरती पर कुम्भ को रख देता है क्योंकि -
"बिना तप के जलत्व का अज्ञान का,
विलय हो नहीं सकता
और बिना तप के जलत्व का-वर्षा का,
उदय हो नहीं सकता।" (पृ. 176)
तपस्या को धारण किये बिना, कर्मों को जलाए बिना अज्ञान का नाश नहीं हो सकता है और जब तक धरती तपती नहीं तब तक जोरदार पानी का बरसना होता नहीं। इसलिए तप को अंगीकार करना आवश्यक है, तपस्या से अशुभ कर्म झरते हैं तथा भेदविज्ञान से उत्पन्न आनंद की भी प्राप्ति होती है। अनादिकाल से आज तक तप के अभाव में ही यह जीव अनेक संकल्प-विकल्पों की आग में झुलसता आ रहा है।
भव-भव में सुख की खोज करता रहा किन्तु असफलता ही मिली, आकुलता ही फली। किस प्रकार से अपनी बात कहें, कैसे सहें और कैसे रहें? समझ नहीं आता। इस जीवन में आज तक इसे सफलता अर्थात् सुख मिलने की बात तो मिली पर मृगतृष्णा की भाँति । सच्चा सुख अभी तक न मिला और शिल्पी का मन नाश रहित, अन्त से दूर, शाश्वत सुख पाने के लिए मचल रहा है अर्थात् हठ कर रहा है बार-बार उछल-कूद कर रहा है।