तुम्हें जो चक्कर आ रहा है ना, उसका कारण यह कुलाल चक्र (कुम्हार का चाक) नहीं है, अपितु-तुम्हारी दृष्टि का ही दोष है क्योंकि -
परिधि की ओर देखने से
चेतन का पतन होता है
और
परम-केन्द्र की ओर देखने से
चेतन का जतन होता है। (पृ. 162)
परिधि यानी पर्याय अथवा बाहरी दुनिया की ओर जब हम देखते हैं तो उपयोग बाहर की ओर जाता हुआ भटक जाता है सारा जीवन यूँ ही पर में गुजर जाता है, चेतन की हार हो जाती है, किन्तु परम केन्द्र यानी भीतर, अन्तरात्मा की ओर देखने पर आत्मा में लीनता आती है, जीवन सुखी बनता है चेतन की सुरक्षा होती है एवं आत्मा परमात्म पद को प्राप्त कर जाती है। अतः तुम भी आँख बंद कर भीतर की ओर देखो चक्कर नहीं आयेगा और सुनो यह एक साधारण सी बात है कि -
"चक्कर पथ ही, आखिर
गगन चूमता
अगम्य पर्वत शिखर तक
पथिक को पहुँचाता है
बाधा-बिन बेशक !" (पृ. 162)
घुमावदार पथ ही आकाश को छूने वाले पर्वतों के शिखर पर पथिक को बिना बाधा के, बिना किसी शंका के पहुँचा सकता है सीधा-सीधा पथ नहीं।