कर्तापन से रहित सहज भावों से सर्वप्रथम शिल्पी माटी को कुम्भ का आकार प्रदान करने हेतु संकल्पित होता है। उसके उपयोग में कुम्भ को कैसा आकार देना है, विचार उत्पन्न होता है। ज्ञान में ज्ञेय' रूप घट का आकार उभरता है, ध्यान में ध्येय रूप घट अवतरित होता है। प्रासंगिक कार्य प्रारम्भ हुआ मन के पीछे शरीर होता ही है।
कुम्भकार ने दोनों हाथों को कुम्भ का आकार दिया और लौंदे पर दोनों हाथों को रखता है। शिल्पी-करों के प्रथम स्पर्श से ही माटी में एक अपूर्व आनन्द, अपनेपन की शुरूआत होती है और कुम्भकार के हाथों की अंगुलियों के सहारे माटी को नया आकार / रूप मिलता है। अनन्तकाल से रहस्य में छुपी नई पर्याय तरंग क्रम से क्रमशः उद्घाटित हो रही है और सुन्दर घट का निर्माण होता है ठीक ही है-
"रहस्य के घूँघट का उद्घाटन
पुरुषार्थ के हाथ में है
रहस्य को सूंघने की कड़ी प्यास
उसे ही लगती है जो भोक्ता
संवेदनशील होता है,
यह काल का कार्य नहीं है।" (पृ. 163)
अनन्त शक्तियाँ जो आत्मा में छुपी हुई हैं, उनका प्रकटीकरण करना किसी काल पर नहीं अपितु अपने पुरुषार्थ पर आधारित है। पाप त्याग एवं सम्यक् चारित्र ग्रहण रूप पुरुषार्थ वही कर सकता है, जिसके भीतर आत्म तत्त्व को उपलब्ध करने की तीव्र इच्छा जागृत हुई हो, ऐसा वह संवेदनशील चेतन आत्मा। जिसके पास हाथ ही ना हो, वह दूसरों का क्या भला कर सकेगा, करा सकेगा। जिसके पास पैर नहीं हैं, वह दो कदम भी न स्वयं चलता, न औरों को चला सकता है।
काल (वह द्रव्य जो वस्तु के परिणमन में सहायक है) भी ऐसा ही है, सबसे उदासीन, लेन-देन से दूर, निष्क्रिय । वह एक ही स्थान पर रहता है, इसलिए काल को आत्मतत्त्व की उपलब्धि में कारण कैसे माना जा सकता है? हाँ इतना अवश्य है कि प्रत्येक कार्य में काल की उपस्थिति अनिवार्य है क्योंकि आपस में यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। काल उदासीन निमित्त है तो रहस्य का उद्घाटन, परमात्मपने की प्राप्ति नैमित्तिक कार्य।