“मर हम मरहम बनें'' यह चार शब्दों की कविता भी कुम्भ पर लिखी है, इसका उद्देश्य यही हो सकता है कि हे भगवन्! हमारा जीवन पत्थर के समान कितना कठोर रहा, कितने लोगों ने हमसे पीड़ा पाई। दूसरों का उपकार भी हम ना कर सके, आज मन में उपकार करने का भाव/विचार बस आया है। हम भी दूसरों को सुखी बनाने में निमित्त बनें, यह भाव भी अच्छे भविष्य का संकेत है, किन्तु इस पतित/पापी जीवन में यह संभव नहीं, अतः यही प्रार्थना है प्रभो से- मुझ पापी की, कि-
"इस जीवन में नहीं सही
अगली पर्याय में.....तो
मर, हम ‘मरहम' बनें...!" ( पृ.१७५ )
इस पर्याय को छोड़कर यानी मरकर जब हम दूसरी पर्याय ( भव) में जन्म लें तो अगला जीवन हमें ऐसा मिले कि हम भी मरहम-जैसे दूसरों के दुख दूर करने में, परोपकार करने में सहयोगी बन सकें।