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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 46. विधि : साधना की

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    वहीं कुम्भ पर कछुवा और खरगोश का चित्र भी है, जो साधक को साधना की विधि सिखा रहे हैं। खरगोश तेज चाल वाला होकर भी बहुत पीछे रह गया, जबकि कछुवा धीमी चाल वाला होकर भी लक्ष्य की ओर पहले पहुँच गया, कारण खरगोश ने बीच में निद्रा ली प्रमाद किया जबकि कछुवा निरन्तर चलता रहा। सार यह निकला कि - "प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।"

     

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    प्रमाद ही राहगीर का सबसे बड़ा शत्रु है। क्योंकि प्रमाद ही कर्मबन्ध का मुख्य कारण है। प्रमाद का अर्थ अयत्नाचार अथवा असावधानी भी है। अयत्नाचार पूर्वक क्रिया / कार्य करते हुए जीव मरे अथवा न मरे साधक को नियम से पाप का बंध होता है, जबकि प्रमाद रहित होकर प्रवृति करते समय यदि जीव मर भी जाए तो साधक हिंसक नहीं कहा जाता, ना ही उसे पाप बंध होता है।

     

    प्रमाद के १५ भेद कहे हैं - स्त्रीकथा, चोरकथा, भोजनकथा और राजकथा ये चार विकथा, क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार कषाएँ, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, निद्रा और स्नेह। इन सबके वशीभूत होकर प्रवृत्ति करना प्रमाद है । अतः साधक को सदा प्रमाद से बचना चाहिए। कहा भी है-"जो सो गया, सो खो गया।'' सदा जागृत रहते हुए अपना कर्त्तव्य जप-तप, स्वाध्याय और आत्म ध्यान आदि करना चाहिए।



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