वसन्त ऋतु व्यतीत हो चुकी है, ग्रीष्म काल की बात चल रही है। परिवर्तित प्रकृति को देख शिल्पी का सन्त मन अधीर हुआ धरती माँ से पूछता है कि-ओ वसन्ती माँ! आज तक जो वसन्त ऋतु का वैभव दिख रहा था वह कहाँ चला गया? इस पर कुछ शब्द सुनने को मिलते हैं सन्त को कि वसन्त ऋतु समाप्त हो चुकी है, अनन्त आकाश में यह नश्वरता विलीन हो चुकी, अब शेष बचे उसके शरीर का दाह-संस्कार करना है। ग्रीष्मकाल-उष्णता को आमंत्रित किया था सो वह आ चुकी है। सूर्य का प्रचण्ड रूप, चिलचिलाती भयंकर धूप है, सभी ओर से धगधग करती लू लपट चल रही है। बस! तपन ही तपन, आग ही आग बरस रही है।
दशों दिशाओं की दशा बदल चुकी है, पृथ्वी का विशाल हृदय, विस्तृत पेट गहरे दरारदार बने हैं अर्थात् धरती फट चुकी है। जिनमें गरम-गरम हवाएँ प्रवेश पा रही हैं मानो रसातल यानी धरती की गहराई में पहुँच उबलते लावा को अपना परिचय दे रही हैं। स्वच्छ नीले जल से भरी, जो कभी अन्त को प्राप्त होने वाली नहीं थी, वे नदियाँ भी सूखती-सूखती पूर्णतः जल से रहित हो गई है। यानी न...दी दी....न नदी दीन हो दरिद्रता, उदासता का अनुभव कर रही है। एवं ना....ली ली.... ना नाली भी धरती में लीन हुई जा रही है, छिप रही है लज्जा के कारण। और दिनकर की क्या कहें-
"अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी
विलम्ब से अस्ताचल को छू पाता है
दिनकर को
अपनी यात्रा पूर्ण करने में
अधिक समय लग रहा है
लग रहा है,
रवि की गति में शैथिल्य आया है,
अन्यथा
इन दिनों, दिन बड़े क्यों?" (पृ. 178)
सूर्य शीघ्रता से उदित होकर भी बहुत देर बाद अस्त हो पा रहा है, लगता है इस भीषण तपन के कारण सूर्य को भी अपनी यात्रा करने में अधिक समय लग रहा है, इसी से उसकी गति में शिथिलता, थकावट आई है और दिन बड़े हो गये है |